राजस्थान के लोकनृत्य

Rajasthan ke loknrity

1. गैर

  • केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य। 
  • गैर का मूल शब्द ‘घेर’ है जो घेरे से सम्बन्धित है। 
  • मेवाड़ और बाड़मेर क्षेत्र में पुरूष लकड़ी की छड़ियां लेकर गोल घेरे में नृत्य करते हैं यही नृत्य गैर नृत्य के नाम से प्रसिद्ध है। इसे गैर घालना, गैर रमना, गैर खेलना तथा गैर नाचना जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।
  • गैर करने वाले ‘गैरिये’ कहलाते है। यह नृत्य होली के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ होकर करीब पन्द्रह दिन तक चलता रहता है। 
  • इस नृत्य की संगति में प्रमुख वाद्य हैं – ढोल, बांकिया ऐर थाली। 
  • गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे ‘खांडे’ नाम से जाने जाते है। इसके लिए पहले गूंदी वृक्ष से टहनियां काटकर लाते है और उनकी छाल हटाकर एक-एक इंच की दूरी रखते हुए उसी पर उस छाल को लपेट देते है। इसके बाद उस टहनी (डंडे) को अग्नि का स्पर्श देकर छाल हटा ली जाती है। हटाई हुई छाल की जगह अग्नि का असर नहीं रहने से वह भाग सफेद ही रहता है जबकि बिना छाल वाला भाग काला अथवा चौकलेटी रंग लिये उभर जाता है तब पूरा डंडा जेबरे की शक्ल सा बड़ा खूबसूरत लगने लगता है। ऐसी छड़ियों अथवा खांडों से जब गैर खेली जाती है तो उसका रंग ही कुछ और होता है।
  • यही गैर कहीं-कहीं पर खांडो की बजाय ‘तलवारों’ से भी खेली जाती है। इसमें नर्तक के एक हाथ में नंगी तलवार रहती है। जबकि दूसरे हाथ में उसकी म्यान शोभा पाती है।
  • नाथद्वारा में शीतला सप्तमी से पूरे माह तक गैर का आयोजन रहता है। यहाँ गैर की पहली प्रस्तुति श्रीनाथजी को समर्पित होती है।
  • इस नृत्य में भील संस्कृति की प्रधानता रही है।
  • इस नृत्य के साथ-साथ संगीत की लड़ियाँ गाई जाती है वे किसी वीरोचित गाथा या प्रेमाख्यान के खण्ड होती हैं।
  • वागड़ क्षेत्र में गैर में युवतियां भी सम्मिलित होती है।
  • सन् 1970 ई. में भीलवाड़ा में वहां के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने गैर मेला प्रारम्भ किया जो अब लोक-मेले के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।

गैरों के प्रकार – 

मोटे रूप में चार प्रकार है – 

(1) डांडिया गैर :- 

  • इसमें नर्तक के हाथ में डाण्डिया होती है। बीकानेर के मरूनायक के मंदिर चौक में डांडिया की रंगत देखते ही बनती है। एक बार बीकानेर के महाराजा गंगासिंह यहाँ पर डाण्डियों के खेल देखने के लिए पधारे थे। कलकत्ता व मुम्बई को डाण्डियों के खेल की देन बीकानेर को है।
  • डांडिया गैर की पुर्णाहूति भैरूजी व सीवल माता गाकर होती है। 
  • प्रथम दिन की शुरूआत गणेशजी व रासलीला के गायन से होती है। 

(2) आंगिया गैर/आंगीबांगी :- 

  • चैत्र बदी तीज को आयोजित होने वाला गैर नृत्य। 
  • मुख्य आयोजन स्थल – लाखेटा गाँव (बाड़मेर)। 
  • नाचने वाले गैरियों के हाथों में एक-एक मीटर की डंडियाँ रहती है जो आजुबाजु के नृत्यकार की डंडियों से टकराकर खेली जाती हैं।
  • चंग, ढोल व थाली इसके प्रमुख वाद्य है।

(3) चंग गैर :- 

  • शेखावाटी क्षेत्र में चंग हाथ में लेकर किया जाता है।
  • इस नृत्य का प्रारम्भ धमाल गीत से होता है।
  • यह पुरुष प्रधान नृत्य है।
  • शेखावाटी क्षेत्र में गीदड़ और चंग नृत्य में महिला पात्र (पुरुष बना हुआ) जो नृत्य करती है उसे महरी या गणगौर कहते है।
  • होली के दिनों में ब्रज प्रभावित क्षेत्रों में यह नृत्य ‘होरी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है।
  • इस नृत्य में चंग या ढप के साथ बांसुरी भी बजाई जाती है। 

(4) तलवार गैर (एक हाथ में तलवार एक हाथ में म्यान) :- 

  • मेनार (मेणार) उदयपुर, नामक गांव की तलवारों की गैर प्रसिद्ध है। 
  • मेनार में यह गैर वहाँ के प्रसिद्ध ऊंकारेश्वर चौरा (चौराहा) पर होती है। इसे ऊंकार महाराज का चौरा भी कहते हैं।
  • ढोल पर डंडे से प्रहार-‘डाका’ कहलाता था।
  • ढोल के तीन डाके के साथ सैनिकों के सिर को काटकर वहीं गाड़ दिया गया था। ये अमरसिंह के समय से जुड़ी घटनाएं हैं।

2. गींदड़ नृत्य

  • केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
  • चूरू-शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य, जो होली के पंद्रह दिन पूर्व प्रारंभ होकर होली के साथ समाप्त हो जाता है। 
  • प्रदर्शन हेतु खुले मैदान में एक ऊँचा मंडप बनाया जाता है। मंडप के बीच नगारे बजाने वाला नगारची बैठता है।
  • इस नृत्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो नगारची होता है जो नगारा वादन में बड़ा प्रवीण और पठु होता है।
  • इस नृत्य में पुरूष पात्र जो महिला का स्वांग धरते हैं, उन्हें ‘महरी/गणगौर’ कहते हैं।
  • गींदड़ नृत्य के संगत में ढोल, डफ, चंग गूँजने लगते है गाँवों में इन दिनों लड़के कहना आरम्भ कर देते है कि “लागे डांडा, घाले गींदड़”।
  • ताल, सुर और नृत्य इन तीनों का अनुपम योग इस नृत्य में देखने को मिलता है।
  • इस नृत्य में विभिन्न प्रकार के स्वांग करते है जैसे : साधु, शिकारी, सेठ-सेठानी, डाकिया, डाकन, दूल्हा, दुल्हन, सरदार, पठान, पादरी, बाजीगर, जोकर, शिव-पार्वती, पराक्रमी योद्धा, राम, कृष्ण, काली आदि।
  • यह एक प्रकार का स्वांग नृत्य है।

3. नेजा नृत्य 

  • यह एक खेल नृत्य है जिसका प्रचलन डूंगरपुर-खैरवाड़ा के आदिवासी मीणों/भीलों में अधिक देखने को मिलता है।
  • यह नृत्य होली के बाद तीसरे दिन आयोजित होता है।
  • इस नृत्य में खुली जगह पर खम्भा रोप दिया जाता है तथा उसके उपरी सिरे पर नारियल बांध दिया जाता हैं।
  • खम्भे के चारों ओर स्त्रियाँ हाथों में बेंत लिए खड़ी रहती है जबकि पुरुष नारियल लेने का प्रयत्न करते हैं। इस अवसर पर जो ढोल बजाया जाता है उस पर ‘पगल्या लेना’ नामक थाप दी जाती है। 
  • इस खेल नृत्य में महिलाओं की बहादुरी और शक्ति सम्पन्नता देखने को मिलती हैं।

4. झेला नृत्य 

  • यह बारां के शाहबाद की सहरिया जनजाति का फसली नृत्य है। 
  • आषाढ़ माह में जब फसल पक जाती है तब सहरिया पुरुष अपने खेतों पर मस्ती में झूमते हुए यह नृत्य करते है।
  • इस नृत्य के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं वे झेला नाम से जाने जाते हैं।
  • एक के बाद एक नृत्य करते हुए पुरुष-दर-पुरुष और महिला-दर-महिला जब गीत की पंक्तियां झेलते हैं तो वह गीत ही झेला के रूप में जाना जाता है। इसका अन्य नाम ‘लावणी’ भी सुनने को मिलता है।

5. बम/बमरसिया नृत्य 

  • इस नृत्य के साथ-साथ ‘रसिया’ गाना गाने के कारण इसका नाम ‘बमरसिया’ नृत्य पड़ा।
  • मेवात प्रदेश (अलवर, भरतपुर) का ‘बम’ अपनी लोकरंगी छटा के लिए प्रसिद्ध है।
  • एक विशाल नगाड़े को ही ‘बम’ कहा जाता है। बम के साथ ढोल, मजीरा, थाली, चिमटा, गिलास वाद्यों की संगत लिये नर्तक निकल पड़ते हैं।
  • इस नृत्य की यह विशेषता है कि इसमें नर्तक, वादक तथा गायक तीनों ही तीन भागों में विभक्त होकर गति देते है।
  • यह नृत्य पुरुषों का हैं। 
  • फाल्गुन माह में फसल कटने के पश्चात् ‘चौपाल’ पर किया जाने वाला नृत्य।

6. ईलाईली नृत्य

  • लोकदेव ईला-ईली के सम्मुख किया जाने वाला नृत्य। 
  • लोकजीवन में प्रचलित मान्यता के अनुसार राजपरिवार से जुड़े हुए ये ईलोजी (ईला) राजा हिरण्यकश्यप के बहनोई थे।
  • ईलोजी की शादी से पहले ही होलिका जल कर मर चुकी थी जिसके वियोग में तड़पते हुए ईलोजी ने होलिका की राख को अपने शरीर पर लगाई तथा आजीवन कुंवारे रहे इसलिए आज भी जिसका विवाह नहीं हो पाता है उसे ‘ईलोजी’ नाम ही थरप दिया जाता है। 
  • ईलोजी द्वारा अपने शरीर पर राख लपेटने का वही प्रसंग ‘धूलंडी’ नाम से प्रारंभ हुआ। इसलिए प्रथम दिन होलिका दहन होता है और दूसरे दिन ‘धूलंडी’ को सारे लोग धूल-गुलाल उछालते मौज-मस्ती करते हैं।
  • मेवाड़ में इस त्यौहार को मनाने की परम्परा ज्यादा है।
  • पुत्र कामना के लिए स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य। 
  • ईलाजी की सवारी बाड़मेर में निकलती है।
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7. घूमर नृत्य

  • राजस्थान की आत्मा, रजवाड़ी नृत्य आदि उपनाम से प्रसिद्ध। 
  • गणगौर व तीज पर किया जाने वाला अत्यन्त ही लोकप्रिय नृत्य। 
  • इस नृत्य को राजस्थान का ‘राज्य नृत्य’ का गौरव प्राप्त है।
  • घूमर से तात्पर्य घूमने से है। यह नृत्य घूमते हुए गोलाई में महिलाओं द्वारा किया जाता है। 
  • इस नृत्य में विशिष्ट प्रकार का घाघरा पहना जाता है। यह घाघरा कई कलियों का (108 कलियों तक) होता है। इसकी हर कली घेर लिए होती है।
  • प्रसिद्ध गीत : – ‘अस्सी कली रो घाघरो, कली-कली में घेर।’ 
  • घूमर में 8 मात्रा की ‘कहरवे’ (जमचे) की विशिष्ट चाल का प्रयोग किया जाता है इसे ‘सवाई’ कहते हैं।
  •  ‘मछली नृत्य’ इसी का एक रूप है।
  • इस नृत्य में नाचती हुई महिलाएँ अपने हाथों को उठाती हुई ऊंगलियों द्वारा नाना भाव व्यक्त करती है।

घूमर तीन प्रकार का होता है :- 

(1) घूमर – साधारण स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य। 

(2) लूर – गरासिया स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य। 

(3) झूमरियों – छोटी बालिकाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य। 

  • विवाह के पश्चात् जब दूल्हा पहली बार अपने ससुराल बुलाया जाता है तब भी उसके स्वागत एवं उल्लास में घूमर नाची जाती है।
  • विविध रंगों की लूगड़ी, ओढ़नी, कांचली तथा लहँगा घूमर की खास पोशाक है। सलमा, सितारा तथा सुनहरी-रुपहरी कौर, किनारी गोटा आदि से लूगड़ा लहँगा सजा होता है।
  • गरासियों के घूमर में निराली छटा देखने को मिलती है। वर्षा ऋतु की उमंग में गरासिया पुरुष-महिलाएँ अलग-अलग रूप में वृत्त बनाकर नाचते हैं। ‘कैरवा (कहरवा) ताल पर जो नृत्य किया जाता है उसके बोल हैं – कालो पाणी पड़वो राज झरसरियो।
  • राजस्थान के मुख्य नृत्य के रूप में जाना जाता है। 
  • लंहगे के घेर को ‘घुम्म” कहा जाता है। 
  • घूमर नृत्य में मुख्य वाद्य- ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि होते हैं। 
  • मुख्य गीत – 

म्हाने घूमर छै नखराली ऐ माय। 

घूमर रमवा म्है जास्यां ओ रजरी ।। 

8. कालबेलिया नृत्य

  • यह एक जाति विशेष का नृत्य है जो सांपो की दोस्त जाति है। 
  • सांप पालक जाति होने के कारण ही इस जाति का नाम कालबेलिया पड़ा। 
  • काल का अर्थ ही सांप से है और बेलिया से तात्पर्य दोस्त से है। 
  • कालबेलिया महिलाएँ नृत्य करने में बड़ी प्रवीण होती है। ये अपने नृत्यों में बड़ी स्फूर्ति और लोच लिये जो अदाएँ प्रस्तुत करती है वे देखते ही बनती हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके शरीर में हड्डियां ही नहीं है। इनके आकर्षक बोल और पूंगी की वादन शक्ति सबको अचंभित किये रहती है।
  • कालबेलियां नृत्य की विशेषता उनकी आकर्षक पोशाक भी है। 
  • गुलाबो (जयपुर निवासी) इस नृत्य की प्रमुख नृत्यागंना है। जिसने कालबेलिया नृत्य को पूरे विश्व में प्रतिष्ठित किया। 

कालबेलिया जाति के चार प्रमुख नृत्य :-

(1) शंकारिया नृत्य

  • यह प्रेम कहानी पर आधारित एक युगल नृत्य है। 
  • इसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते है। 
  • मुख्य वाद्य पूंगी, खंजरी, मोरचंग आदि। 

(2) पणिहारी नृत्य – 

  • यह महिला प्रधान नृत्य है जो राजस्थानी लोकगीत ‘पणिहारी’ पर किया जाता हैं। 
  • यह नृत्य सिर पर 5-7 घड़े रखकर अंग संचालन करते हुए किया जाता है। 

(3) इण्डोणी नृत्य – 

  • यह कालबेलियों का प्रसिद्ध युगल नृत्य है। 

(4) बागड़िया नृत्य – 

  • यह नृत्य कालबेलिया स्त्रियों द्वारा भीख माँगते हुए किया जाता है। 

9. घुड़ला नुत्य 

  • यह मारवाड़ का प्रमुख लोक नृत्य है जो शीतला अष्टमी से लेकर गणगौर तक किया जाता है।
  • यह महिलाओं का नृत्य है, इसमें वे अपने सिर पर मिट्टी की मटकी रखती हैं। इस मटकी के चारों ओर छोटे-छोटे छेद किये होते हैं।
  • मटकी के भीतर दीपक जलाकर रखा जाता हैं। छेद के माध्यम से दीपक की रोशनी बाहर छिटकती रहती है, रात्रि में ये किरणें बड़ी सुहावनी लगती हैं।
  • छेद वाली इस मटकी को ‘घुड़ला’ कहते हैं।
  • वि.सं. 1548 में अजमेर के मल्लूखां ने मेड़ता पर चढ़ाई की। वह पीपाड़ के पास कोसाना ग्राम में गोरी पूजा के लिए आई हुई 141 स्त्रियों को ले भागा। इसकी सूचना जब जोधपुर के राव सांतलजी को लगी तो उन्होंने तत्काल पीछा किया। वे नगर कन्याओं (तीजणियों) को तो छुड़ा लाये किन्तु युद्ध के दौरान वे इतने घायल हो गये कि बच नहीं पाये। मल्लूखां की सेना का प्रधान सेनानायक घडूला था जो मुठभेड़ में मारा गया। उसका सिर काटकर उन तीजणियों को दे दिया गया जिन्होंने उसे थाली में रखकर घर-घर घुमाया और इस भावना का संचार किया कि कन्याओं के अपहरणकर्त्ताओं को ऐसा दंड मिलता है।
  • इस नृत्य के अवसर पर गाया जाने वाला प्रमुख गीत – 

घुड़लो घूमेला जी घूमेला 

घुड़ले रे बांध्यो सूत घुड़लो घूमेला जी घूमेला 

पाड़ोसण जायो पूत घुड़लो घूमेला जी घूमेला 

सवागण बारे आव घुड़लो घूमेला जी घूमेला 

मोत्यां रा आखा लाव घुड़लो घूमेला जी घूमेला 

  • इस नृत्य में वाद्य यंत्र ढोल, बांकिया, थाली आदि होते हैं। 

10. वालर नृत्य 

  • यह सिरोही, पाली, आबू व जालौर के आदिवासी गरासियों का प्रमुख नृत्य हैं। इसके दो प्रकार है – 

(1) एक प्रकार जिसमें केवल गरासियाँ महिलाएँ ही भाग लेती हैं। 

(2) दूसरे प्रकार में गरासिया स्त्री एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं। 

  • यह नृत्य एक प्रकार से ‘घूमरा’ का पर्याय भी कहा जाता है। 
  • स्त्रियों द्वारा नाचे जाने वाला ‘वालर’ वाद्य विहीन होता है। जबकि स्त्री-पुरुष युगल रूप में किया जाने वाले ‘वालर’ में ढोल बजाया जाता है।
  • इस नृत्य की शुरुआत में एक पुरुष हाथ में छाता या तलवार लेकर नृत्य प्रारम्भ करता है।
  • वालर के गीतों में गरासियों के गौरवमय इतिहास तथा स्वाभिमानी शूरमाओं द्वारा राजाओं और अग्रेजों से लोहा लेने का शौर्यपरक विवरण मिलता है।
  • प्रसिद्ध वालर नतृक – जवाहरलाल

11.भैरव नृत्य  

  • होली के दो दिन बाद ब्यावर में बादशाह-बीरबल का मेला भरता है। इस दिन पूरे शहर में बादशाह की सवारी निकाली जाती है। 
  • मेले का मुख्य आकर्षण बीरबल होता है जो सवारी के आगे मयूर नृत्य करता चलता है। यह नृत्य लगातार दो दिन तक चलता है। यह शक्ति दिव्य शक्ति होती है जो भैरव शक्ति की प्रतीक कही जाती है।
  • भैरव शक्ति को प्राप्त करने के लिए ‘बीरबल’ सवारी में आने से पूर्व भैरव मंदिर में जाता है और एक घंटे तक उपासना के रूप में नृत्य करता है जो भैरव नृत्य के नाम से जाना जाता हैं। 
  • इस नृत्य से भैरव, बीरबल पर रीझ कर इतनी शक्ति देता है कि बीरबल लगातार सवारी में नृत्य करता अथक बना रहता हैं।
  • भैरव से अपार शक्ति प्राप्त कर बीरबल बादशाह की सवारी में जो नृत्य करता है वह मोर नृत्य या मयूर नृत्य के नाम से जाना जाता है।
  • सवारी में बादशाह बना व्यक्ति अकबर के नौ रत्नों में से एक टोडरमल का स्वरूप है।
  • सवारी के दौरान शहर के सभी स्त्री-पुरुष-बच्चे बादशाह से खर्ची की मांग करते हुए ‘खर्ची दो, खर्ची दो’ कहते हैं। बादशाह खर्ची के रूप में रंग-बिरंगी अबीर-गुलाल की पुड़िया फैंकता-लुटाता चलता है।
  • बीरबल का पात्र (बाना) व्यास परिवार के व्यक्ति धारण करते हैं। 

12. भवाई नृत्य 

  • यह व्यावसायिक नृत्य है। 
  • यह मूलतः मटका नृत्य है किन्तु भवाई जाति में प्रचलित होने के कारण इसका नाम ‘भवाई’ पड़ा। 
  • भवाई नृत्य के प्रवर्तक ‘बाघाजी (नागोजी)’ है परन्तु इस नृत्य को विशिष्ट पहचान भारतीय लोक-कला मण्डल (उदयपुर) के संस्थापक देवीलाल सामर ने एक भील दयाराम के माध्यम से दिलाई। 
  • यह नृत्य व्यावसायिक नृत्यों में सर्वाधिक चर्चित हैं। 
  • भवाई नर्तक अपने सिर पर मटका लिये रहता है। मटकों की संख्या एक से लेकर एक के ऊपर एक करके पंद्रह-बीस तक होती है।
  • भवाई एक कलात्मक जाति है जो परम्परा से रात-दिन ख्याल-तमाशे कर अपने यजमानों को रिझाती आई है।
  • भवाई में नृत्य नाटिकाएँ – शंकरिया, ढोलामारू, बीकाजी, सूरदास, बड़ी डोकरी
  • यह नृत्य मुख्यतः पुरुष प्रधान है। 
  • प्रथम भवाई महिला नर्तक – पुष्पा व्यास (जोधपुर)
  • प्रमुख भवाई कलाकार – रूपसिंह शेखावत (जयपुर), स्वरूप पंवार-तारा शर्मा (बाड़मेर)
  • भीलवाड़ा के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने अपनी पौत्री वीणा को इस नृत्य में प्रवीण करते हुए 63 मंगल कलश का नृत्य तैयार कर उसका नाम ‘ज्ञानदीप’ दिया। 
  • जयपुर की अश्मिता काला ने 111 घड़े सिर पर रखकर नृत्य करके ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज कराया। 
  • द्रोपदी, कजली, कुसुम, श्रेष्ठा सोनी (उदयपुर) प्रसिद्ध भवाई नृत्यांगना हुई। 
  • तेज तलवार पर नृत्य करना, काँच के टूकड़ों पर नृत्य करना आदि भवाई नृत्य की प्रमुख विशेषता है।
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13. अग्नि नृत्य 

  • दहकते अंगारो पर महकते फूलों की तरह जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य।
  • इस नृत्य का जन्म स्थल कतरियासर (बीकानेर) माना जाता हैं। 
  • जसनाथ जी के मंदिर में मेले भरते है और जुम्मे-जागरण के साथ-साथ अग्नि नृत्य के आयोजन होते हैं। गाने वाले भी ये ही सिद्ध और नाचने वाले भी ये ही सिद्ध। 
  • शमी वृक्ष (खेजड़ी) की ढेर-सी लकड़ियां एकत्र कर चबूतरा सा बना दिया जाता है। इन लकड़ियों की आंच बहुत तेज होती हैं। जब लकड़ियां जलकर अंगारों के रूप में दहकने लगती है तब गायक विशेष सबद गाना प्रारम्भ कर देते हैं। तभी जसनाथी अंगारों के मंच पर जा कूदते है। यहां अंगारों की अंगुलियां भर-भर उछालते हैं जैसे पानी की बूंदे उछाली जाती है।
  • यहां कोई तन्त्र-मन्त्र या टोटका नही। केवल सिद्धाचार्य जसनाथजी की असीम कृपा है। ‘फतैह-फतैह’ कहकर ‘धुणा’ की अग्नि पर कूदने का यह आश्चर्यजनक कमाल देखते ही बनता है।
  • इस नृत्य में आग, राग व फाग तीनों का समन्वय है। 
  • जसनाथी सिद्ध रूस्तमजी ने औरगंजेब को परचा दिखलाया। 
  • जसनाथी सिद्ध गृहस्थी होते हैं।
  • आश्विन, माघ व चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य आयोजित होता है।
  • इस सम्प्रदाय में रहने वालों के लिए 36 नियम पालने आवश्यक है। इन नियमों का पालनकर्ता जसनाथी कहलाता है।
  • जसनाथ जी को कतरियासर की जमीन ‘सिकन्दर लोदी’ ने भेंट की थी।
  • इस नृत्य के साथ-साथ नगाड़ा वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
  • इस नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं। वे सिर पर पगड़ी, अंग में धोतीकुर्ता और पांवों में कड़ा पहनते हैं।

14. तेरहताली नृत्य 

  • कामड़ जाति की महिलाओं द्वारा (बहुएँ) किया जाने वाला व्यावसायिक नृत्य। 
  • कामड़ जाति बाबा रामदेवजी की उपासक है जो रामदेवजी के मेले में रात-रात भर भजन तथा ब्यावले गाते हैं और इस जाति की महिलाएँ तेरहताली का प्रदर्शन करती है। 
  • पुरुष महिलाओं के साथ तानपुरा (तंदुरा) पर भजन गाता है। 
  • इस नृत्य के समय रामदेवजी महाराज की तस्वीर या फिर प्रतीक रूप में उनको चढ़ाया जाने वाला कपड़े का घोड़ा रखते है।
  • तेरहताली का प्रदर्शन तेरह मंजीरों की सहायता से किया जाता है। तेरह मंजीरों की निरन्तर चलती रहती संगीत लहरी में जमीन पर बैठे-बैठे तो कभी लेटे-लेटे कामड़ महिलाएं तेरह प्रकार के भावांग प्रस्तुत करती है।
  • तेरह मंजीरो में नौ मंजीरे दांये पाव पर बांधे जाते हैं। दो हाथों के दोनों और ऊपर कोहनी की जगह तथा एक-एक दोनों हाथों में रहते है। हाथ वाले मंजीरे अन्य मंजीरो से टकराते-छूते हुए टन-टन की ध्वनि देते है। इसी ध्वनि के साथ-साथ कामड़ औंरते विविध हावभाव व्यक्त करती है।
  • इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना है – मांगीबाई, दुर्गाबाई (पादरला, पाली)
  • पादरला गांव (पाली) कामड़ पंथियों का प्रमुख केन्द्र है।
  • तेरहताली नृत्य में निम्न प्रदर्शन किये जाते हैं – 

(1) अनाज कूटना (2) उसे साफ करना (3) चक्की में पीसना (4) आटा गूंदना (5) आटे से रोटले पोना (6) दूध दूहना (7) दही बिलोना (8) मक्खन निकालना (9) चरखा चलाना (10) सूत लपेटना (11) नेजा बुनना (12) सिर पर कलश रखना (13) खेत में खड़ी पकी फसल काटना। इस प्रकार के तेरह प्रकार के हाव-भाव व्यक्त किये जाते हैं।

  • जहां-जहां कामड़ बस्ती होती है वहां-वहां रामदेवजी का मंदिर अवश्य होता  है।
  • सभी कामड़ पुरुष अपने सिर पर ‘भगवा रंग’ का साफा धारण करते है।
  • तेरहताली प्रदर्शन के समय अब तो रामदेवजी की विरूदावली के भजन ही मिलते है किन्तु इनसे पूर्व देवी हिंगलाज के भजन गाये जाते थे।

15. चरी नृत्य

  • किशनगढ़ (अजमेर) अँचल में गूजर महिलाओं द्वारा किया जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य।
  • नृत्य करने वाली महिलाएं अपने सिर पर पीतल की बनी ‘चरी’ (चरवी) रखती है जिसमें काकड़े यानी कपास के बीजों में तेल डालकर आग प्रज्वलित की हुई रहती है।
  • इस नृत्य में गोल घेरे में भीतर की ओर घूंघट धारिणी महिलाएँ घूमर की तरह नृत्य करती है।
  • इस नृत्य में प्रमुख रूप से बांकिया, थाली बजाये जाते है तथा आठ मात्रा का कहरवा विलम्बित रूप में बजता है।
  • किशनगढ़ की फलकूबाई ने इस नृत्य को जगजाहिर किया।
  • यह नृत्य शुभ, मंगल एवं स्वागत का प्रतीक है।
  • चरी नृत्य के लिए पुरस्कृत नृत्यांगना – सुनीता रावत
  • गुर्जर महिलाएं नाक में बड़ी नथ पहनती है।
  • यह नृत्य पूर्व में (राज परिवार में) गणगौर के अवसर पर किया जाता था।

16. झूमर नृत्य 

  • गुर्जर और बड़गुर्जर जाति की महिलाओं में प्रचलित यह नृत्य फूलों के शृंगार के लिए प्रसिद्ध है।
  • इस नृत्य में झूमरा आभूषण, झूमरा वाद्य का प्रयोग होता है तथा यह नृत्य झूम-झूम कर किया जाता है इसलिए इसका नामकरण यह पड़ा।
  • रामदेवजी (लोकदेवता) की मुँह बोली बहिन डालीबाई ने इस नृत्य को आगे बढ़ाया।
  • यह नृत्य देवता की आराधना के समय किया जाता है।
  • माउण्ट आबू में नक्की झील के किनारे गरासिया स्त्रियां भी झूमर नृत्य करती है।

17. बिछुड़ो नृत्य

  • यह कालबेलिया स्त्रियों का लोकप्रिय नृत्य है।
  • इस नृत्य के साथ छोटा चंग बजाया जाता है।
  • इस नृत्य के साथ गाया जाने वाला गीत बिछुड़ा है अतः इसी नाम से इस नृत्य की पहचान कायम हुई।
  • कालबेलिया जाति सांप, बिच्छू का जहर उतारने में माहिर होती है। 
  • इस नृत्य में गीत का भाव है कि गेंद खेलते समय उसे बिच्छू ने काट खाया अतः वह पति से कह रही है कि वे झाड़ा डाकर उस पर चढ़ा जहर उतारे।

प्रसिद्ध गीत – 

तालेरिया रमती ने म्हाने बिच्छू घणे रो खायो सा 

अर र र र र गई मर रे रे रे उतार साजन बिछुड़ो

म्हैं तो दड़ी खेलवा गई सा 

चढ़ग्यो म्हाने वैरी बिछुड़ो 

18. चकरी नृत्य

  • यह व्यावसायिक नृत्य है जो छबड़ा (बारां) व किशनगंज (बारां) में कजंर जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
  • इसे ‘फूंदी’ नृत्य भी कहा जाता है मुख्य वाद्य ढ़ोल तथा चंग होते हैं।
  • यह नृत्य सामान्यतः बूंदी के ‘कजली तीज’ के मेले पर सर्वाधिक आयोजित किया जाता है।
  • वर्तमान में प्रमुख नृत्यागंना – शांति, फिलमां और फुलवां 
  • चकरी का पूर्व नाम राई (राही) था जो राह चलों को आकर्षित कर लेता था। 
  • इस नृत्य में नाचने वाली लड़कियां कुंवारी होती है जो अच्छी बनीठनी रहती है।
  • सन् 1974 में चांचोड़ा के रशीद अहमद पहाड़ी ने इस नृत्य को अपने सीमित क्षेत्र से बाहर निकाला तब से इस नृत्य में पूरे संसार में प्रसिद्धि पाई।
  •  ‘कज्जा’ उस व्यक्ति को कहते है जो बस्ती में जाकर अच्छा नाचने वाला का पता लगाता था।

19. कच्छीघोड़ी नृत्य

  • शेखावाटी क्षेत्र में किया जाने वाला प्रसिद्ध व्यावसायिक नृत्य। 
  • काठ की बनी वह घोड़ी जो कमर में पहन कर नचाई जाती है, कच्छीघोड़ी, कहलाती है।
  • राजस्थान में कच्छीघोड़ी नृत्य करने वाली प्रमुख जातियां – ढोली, कुम्हार, सरगरे, भांभी, मुसलमान तथा बावरी।
  • यह नृत्य प्रायः ब्याह-शादियों के अवसर पर किया जाता है। 
  • इस घोड़ी नाच के साथ कहीं-कहीं पर एक सी-स्वांगिया भी होता है। इन दोनों के आपस में दोहों के बड़े चुटकीले सवाल-जवाब चलते रहते है जो मीठे, रोचक और सरस शृंगारमूलक होते हैं।
  • गांछो द्वारा निर्मित होने के कारण कच्छीघोड़ी को ‘गांछाघोड़ी’ भी कहते है।
  • नृत्यकार के पांवो में घुंघरू बंधे रहते है। हाथों में तलवार तथा ढाल रहती है। ढोल, ताशे तथा झांझ के साथ जब नृत्यकार के पांव घोड़ी के पांव बन नृत्य को उतर पड़ते है।
  • इस नृत्य में घोड़ी नृत्यकार मराठे तथा प्यादि मुगल सिपाही के प्रतीक होते हैं।
  • यह नृत्य वीर रस प्रधान है।
  • मुख्य वाद्य- ढोलक, झांझ, डेरु, बांकिया, शहनाई आदि है। 
  • प्रसिद्ध कलाकार – जोधपुर का छवरलाल गहलोत तथा निवाई (टोंक) के गोविन्द पारीक
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20. मोहिली नृत्य

  • यह एक विवाह नृत्य है, इसका प्रचलन स्थल धारियावद-कांठल क्षेत्र (प्रतापगढ़) है।
  • यह स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला धीमी गति का गोलाकार नृत्य है। इसे ‘मोहुलो’ नाम से भी जाना जाता है।
  • मोहिली का अर्थ-गोल से है। 
  • कहीं कहीं पर इसका नाम भवाली, भौली भी प्रचलित है। 

21. रणबाजा नृत्य

  • यह एक युद्ध नृत्य है जिसका प्रचलन मेवों में अधिक देखने को मिलता है।
  • प्राचीन काल में युद्ध में जाने वालों को उत्साहित करने के लिए इसका आयोजन किया जाता था।
  • इस नृत्य में नृर्तक युद्धकालीन वेशभूषा में सजे होते है।
  • नर्तकों के हाथों में तलवार, ढाल, कटार, भाला, बर्छी आदि होते हैं जो युद्ध के ही शौर्यपरक शान है।

22. घूमरघूमरा नृत्य

  • यह एकमात्र शोक सूचक नृत्य है। इसका प्रचलन वागड़ क्षेत्र के बाह्मण समुदाय में है।
  • जब किसी महिला के पति का निधन हो जाता है तब उस महिला को उसके पीहर ले जाकर सम्पूर्ण शृंगार कराया जाता है। उसे कौर किनारी वाली अच्छी पोशाक पहनाई जाती है। उसके हाथों में मेहदी रचाई जाती है। काजल बिन्दी लगाई जाती है। शीश गूंथा जाता है तथा पूरा शरीर आभूषणों से अलंकृत किया जाता है उसके बाद वह अपने पति-गृह लाई जाती है और उसके बाद ही मृतक की अर्थी श्ममान ले जाई जाती है।
  • अर्थी श्मशान ले जाने से पहले विधवा हुई महिला को बीच गोलाई में बिठाकर उसके चारों ओर दो घेरे में महिलाओं के दो समुदाय मिलकर रूदन नृत्य करते हैं।
  • इसमें पहला घेरा विधवाओं का तथा दूसरा घेरा सधवा महिलाओं का होता है। 

23. गोगा नृत्य 

  • लोकदेवता गोगाजी की आराधना में किया जाने वाला नृत्य।
  • यह नृत्य मुख्य रूप से गोगा नवमी (भाद्रपद कृष्णा नवमी) पर जहाँ गोगाजी के मेले भरते है वहां किया जाता है।
  • इस नृत्य में भाग लेने वाले नर्तकों के गले में सर्प टंगे होते है। इनके साथ कुछ वादक होते हैं जो डेरू, ढोल और कटोरा बजाते चलते है।
  • राह चलते-चलते यह नृत्य किया जाता है अतः इसे एक यात्रा नृत्य भी कहा जाता है।
  • लोहे की साँकल पीठ पर मारकर किया जाने वाला नृत्य।

24. ढोल नृत्य

  • पेशेवर नृत्य की श्रेणी में जालोर का ढोल नृत्य बहुत प्रसिद्ध है। 
  • इस नृत्य में भाग लेने वाली प्रमुख जातियां – ढोली, सरगरा तथा भील है जो विवाह के अवसर पर नाचते है।
  • इस नृत्य की शुरूआत ढोल वादक ‘थाकना’ शैली से करता है जिसमें एक साथ चार-पांच ढोल बजाए जाते है।
  • ढोल वादक एक साथ तीन-तीन ढोल भी रखता है। ऐसी स्थिति में एक सिर पर, एक आगे तथा एक पीछे कमर तक लटकता रहता है।
  • जालोर के ढोल नृत्य की प्रसिद्धि के संबंध में सीवाणा गांव के खीमसिंघ राठौड़ एवं एक सरगरी जाति की महिला के प्रेम की गौरव गाथा जुड़ी हुई है।
  •  ‘थाकना’ का शाब्दिक अर्थ है नृत्य के लिए बुलाना या नर्तकों में जोश भरना।

25. फूंदी नृत्य

  • यह नृत्य सभी जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
  • विवाह में विशिष्ट अवसरों पर मुख्यतः फूंदी ली जाती है।
  • किसी भी नृत्य के बीच में उसकी शोभा द्विगुणित करने के लिए फूंदी ली जाती है।
  • इस नृत्य में दो महिलाएँ आमने-सामने होकर एक-दूसरी के विपरीत, हाथ में हाथ थामे पांवो पर जोर देती हुई तनिक पीछे झुकती नृत्य मग्न होती है।
  • इस नृत्य में चोटी के साथ बालों में फूंदी गुंथी जाती हैं जिसकी रंगबिरंगी लटकने ठेठ नीचे तक होती है।
  • फूंदी लड़कियां भी लेती हैं तब अन्य लड़कियां ताली बजाती हुई ‘फूंदी रो फड़ाको जिये बाई रो काको’ पंक्ति उच्चारित करती है। 

25. हुरंगा नृत्य

  • डीग (भरतपुर) में होली के अवसर पर किया जाने वाला प्रमुख नृत्य। 

26. कत्थक नृत्य

  • कत्थक का आदिम घराना – जयपुर 
  • कत्थक का प्रचलित घराना – लखनऊ
  • प्रसिद्ध कत्थक नृत्यागंना – उमा शर्मा 

27. पेजण नृत्य

  • यह नृत्य बांसवाड़ा में दीपावली पर नारी का रूप धारण किये हुए पुरुषों द्वारा किया जाता है।

28. नाहर नृत्य

  • होली के अवसर पर यह नृत्य मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया जाता है। 
  • इस नृत्य को प्रारंभ करने का श्रेय शाहजहाँ को दिया जाता है। 

29. चरकूला नृत्य

  • यह नृत्य मूलतः उत्तर प्रदेश का है। 
  • इस नृत्य का सर्वाधिक प्रचलन भरतपुर जिले में है। 
  • यह नृत्य राधा की स्मृति में बेलगाड़ी के पहिए पर 108 दीपक जलाकर किया जाता है।

30. खारी नृत्य

  • मेवात (अलवर) में दुल्हन की विदाई पर उनकी सहेलियों द्वारा अपने हाथों की चुड़ियां बजाते हुए किया जाने वाला नृत्य।

31. थाली नृत्य

  • इस नृत्य में थाली को हाथों की अंगुलियों पर घुमाया जाता है। 
  • यह नृत्य पाबूजी के भक्तों द्वारा फड़ बाँचते समय किया जाता है। 

32. नौंटकी

  • इस नृत्य का प्रारम्भ उत्तर प्रदेश से माना जाता है।
  • भरतपुर में राजा भतृहरि की नौटंकी, राजा हरिश्चन्द्र की नौंटकी आदि प्रसिद्ध है।

33. सांग नृत्य

  • सांग से तात्पर्य स्वांग से है। सहरिया जाति के स्त्री-पुरुष का यह समूह नृत्य है।
  • इसका आयोजन प्राकृतिक वातावरण में जंगलों और पहाड़ियों के बीच होता है। इसमें पुरुष और महिलाएं भाग लेते हैं।
  • नर्तक पत्थर और जड़ी बूंटियों के विविध रंगों से अपने तन को विशेष रूप से सजाते हैं और भांति-भांति के स्वांग धारण करते हैं।
  • इन स्वांगों में मनुष्य, देवी-देवता, जानवर, पक्षी तथा भूत प्रेत आदि से सम्बन्धित सभी तरह के स्वांग होते हैं।

34. शूकर नृत्य

  • शूकर से तात्पर्य सूअर से है। यह स्वांग-नृत्य है। इसमें प्रमुख आकर्षण सूअर बने नर्तक से है। इसे देखकर जन-साधारण में खलबली मच जाती है।
  • नर्तक कलाकार शिकारी वेश में धोती के ऊपर घुटनों तक घुंघरू बांधे रहता है। बगलबंडी पर कमर में चमड़े का चौड़ा पट्टा बंधा रहता है। सिर पर पगड़ी तथा हाथ में लम्बी छड़ी रहती है जिससे वह सूअर द्वारा नाना प्रकार की नृत्यभंगिमाओं से दर्शकों को लोटपोट किये रहता है। इसके साथ शिकारी भी शिकार करने की मुद्रा लिये सूअर के पीछे नृत्य करता हुआ सबको अपनी ओर खींचे रहता है।
  • नृत्य के समय अनेक भावों का प्रदर्शन बड़ा रोमांचकारी होता है।
  • इसके अन्तर्गत शिकारी के हाथ में तीर कमान रहता है। दूसरे के पास भाला होता है तथा इसके साथ एक कलाकार और होता है जो कुत्ते का स्वांग लिये होता है।
  • नृत्यमयी मुद्राओं में कुत्ता लिये शिकारी कभी-कभी दर्शकों के पीछे अपने कुत्ते को ‘लगैछू‘ कर भगदड़ सा माहौल पैदा कर हंसी मजाक की ठिठोली प्रस्तुत करता है।
  • ढोल और थाली मुख्य वाद्य हैं। ढोल की आवाज बड़ी तेजी लिये होती है।
  • यह नृत्य होली के दिनों में जालोर की ओर देखने को मिलता है।
  • तहसील आहोर (जालौर) का बिजली गांव इस नृत्य के लिये प्रसिद्ध है। अब यह नृत्य लुप्त प्राय ही है।

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