India History

जैन और बौद्ध धर्म || Jain or Boddh Dharm

जैन एवं बौद्ध धर्म

–  ई. पू. की छठी शताब्दी को विश्व में धर्म सुधार आंदोलन के युग के रूप में जाना जाता है। इस काल के दौरान न केवल भारत अपितु विश्व में धर्म सुधार हुआ। जैसे:

देश :  धर्म सुधारक

 चीन :  कन्फ्यूशियस एवं लाऑत्से

 ईरान :  जरथ्रुस्ट्र

 यूनान :  प्लूटो, सुकरात, अरस्तु, परमानट्स जैसे  दार्शनिक

 भारत – महावीर व गौतम बुद्ध

धर्म सुधार आन्दोलन क्यों?

1.  वैदिक कर्मकाण्डी व्यवस्था को समाप्त कर समाज के नैतिक उत्थान हेतु।

2.  वर्ण व्यवस्था में सुधार लाने हेतु।

3.  छुआछूत व अंधविश्वास, कर्मकाण्ड को समाप्त करने के लिए।

नोट : मुण्डकोपनिषद् में ‘यज्ञ को टूटी हुई नौका’ कहा गया है।

बौद्ध धर्म

–  इस धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध अथवा सिद्धार्थ का जन्म नेपाल की तराई में अवस्थित कपिलवस्तु राज्य में स्थित लुम्बिनी वन में 563 ई.पू. में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे तथा माता महामाया कोलिय वंशीय थी।

–  बुद्ध का अन्य नाम शाक्य मुनि भी है।

–  इनका पालन-पोषण इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया।

–  कालदेवल व कौण्डिन्य की भविष्यवाणी के कारण सिद्धार्थ का विवाह 16 वर्ष की आयु में कर दिया गया, यशोधरा से इनका विवाह हुआ तथा राहुल इनका पुत्र था।

–  गौतम बुद्ध ने निम्नलिखित चार दृश्य देखे जिनके कारण उनको वैराग्य उत्पन्न हुआ :-

(1) वृद्ध व्यक्ति 

(2) बीमार व्यक्ति

(3) मृत व्यक्ति   

(4) प्रसन्न मुद्रा में संन्यासी

–  सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की अवस्था में सत्य की खोज में गृह त्याग दिया। गृह त्याग के समय सिद्धार्थ अपने घोड़े  कन्थक व सारथी छन्दक को साथ लेकर गए। गृह त्याग की इस घटना को बौद्ध ग्रंथों में महाभिनिष्क्रमण कहा गया।

–  गृहत्याग के पश्चात् सर्वप्रथम वे आलार कालाम (सांख्य दर्शन के आचार्य) नामक तपस्वी के सम्पर्क में आए तत्पश्चात् वे रामपुत्त नामक आचार्य के पास गए।

–  बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कालाम तथा द्वितीय गुरु रूद्रकरामपुत थे।

–  सात वर्ष तक जगह – जगह भटकने के पश्चात् वे गया पहुँचे जहाँ उन्होंने निरंजना नदी के किनारे पीपल वृक्ष के नीचे समाधि लगाई। यहीं वैशाख पूर्णिमा पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। इस समय उनकी उम्र 35 वर्ष थी। उस समय से वे बुद्ध कहलाए।

–  गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश वाराणसी के समीप सारनाथ में दिया। इसे ‘धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं।

–  चुन्द नामक लोहार द्वारा दिए गए भोजन को ग्रहण करने के बाद 483 ई.पू. में गौतम बुद्ध की मृत्यु कुशीनगर (देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश) में हुई। इसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहते हैं।

–  बौद्ध धर्म अनीश्वरवादी है।

–  बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना नहीं है। (अनात्मवादी) पुनर्जन्म को माना गया है।

–  अपने प्रिय शिष्य आनंद के अनुरोध पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में प्रवेश की अनुमति दी।

–  संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला बुद्ध की सौतेली माँ प्रजापति गौतमी थी।

–  उदयन बौद्ध भिक्षु पिन्डोला भारद्वाज के प्रभाव से बौद्ध बन गया था।

–  कौशल नरेश प्रसेनजित ने संघ के लिए ‘पुब्बाराम(पूर्वा-राम)’ नामक विहार बनवाया था।

–  बिम्बिसार ने संघ को वेणुवन विहार तथा उदयन ने घोषिताराम विहार भिक्षु संघ को प्रदान किया।

–  बौद्ध धर्म को राजाश्रय प्रदान करने वाले शासक- मगधराज बिम्बिसार और अजातशत्रु, कौशल नरेश प्रसेनजीत तथा वत्सराज उदयन,पाल शासकों ने बौद्ध धर्म को विशेष रूप से संरक्षण दिया।

–  बौद्ध धर्म के त्रिरत्न-बुद्ध, धम्म, संघ।

–  बौद्ध संघ का संगठन गणतान्त्रिक प्रणाली पर आधारित था।

–  बौद्ध संघ में प्रविष्ट होने को “उपसम्पदा” कहा जाता था

–  गृहस्थ जीवन के बौद्ध अनुयायी “उपासक” तथा संघ में निवास करने वाले भिक्षु कहलाते थे।

–  बुद्ध की प्रथम मानव के रूप में मूर्ति प्रथम शताब्दी ई. में “मथुरा शैली” में निर्मित की गई।  

बौद्ध धर्म के सिद्धान्त :

–  बौद्ध धर्म का विशद ज्ञान हमें त्रिपिटक से होता है जो पालि भाषा में लिखे गए हैं।

चार आर्य सत्य : बौद्ध धर्म का सार चार आर्य सत्यों में निहित हैं-

(i) दु:ख

(ii) दु:ख समुदाय

(iii) दु:ख निरोध

(iv) दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा।

–  प्रतीत्य समुत्पाद (द्वादश निदान कारणवाद) बुद्ध के उपदेशों का सार है जिसका अर्थ है कि सभी वस्तुएँ कार्य और कारण पर निर्भर हैं। (कार्य-करण सिद्धान्त)

–  प्रतीत्य समुत्पाद : अर्थात् किसी वस्तु के होने पर अन्य वस्तु की उत्पत्ति यह सिद्धांत दूसरे आर्य सत्य में निहित है।

आष्टांगिक मार्ग के 8 तत्त्व निम्नलिखित हैं-

 1. सम्यक् दृष्टि                      2. सम्यक् संकल्प           3. सम्यक् वाक्

 4. सम्यक् कर्म                      5. सम्यक् आजीव          6. सम्यक् स्मृति

 7. सम्यक् समाधि                  8. सम्यक् व्यायाम

–  दु:ख के निवारण के लिए बुद्ध ने जो आठ उपाय या मार्ग बतलाए हैं, आष्टागिंक मार्ग कहलाते हैं।

–  दस शील :बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर बल दिया। इसके लिए उन्होंने दस शील का पालन अनिवार्य बताया।

दस शीलों के नाम

–  दीर्घनिकाय के भाग सिंगालोवाद में पंचशील व दसशील का

वर्णन मिलता है। इसमें प्रथम पाँच ‘पंचशील’ बौद्ध उपासक गृहस्थ

के लिए है। सम्पूर्ण दसशील भिक्षुओं के लिए हैं।

(1) सत्य                                 (2) अहिंसा 

(3) अस्तेय                              (4) ब्रहाचर्य

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(5) मादक पदार्थों का त्याग    (6) असमय भोजन का त्याग,

(7) कोमल शैय्या का त्याग     (8) कंचन कामिनी का त्याग

(9) नृत्य संगीत का त्याग       (10) सुगंधित द्रव्यों का त्याग

बौद्ध धर्म के सम्प्रदाय :

–  कनिष्क के समय बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदाय महायान तथा हीनयान में विभक्त हो गया। (चतुर्थ बौद्ध संगीति के दौरान)

–  हीनयान : रूढ़ीवादी प्रकृति के थे। ये बुद्ध के मौलिक सिद्धान्त पर विश्वास करते थे। हीनयान एक व्यक्तिवादी धर्म था, इनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। ये बुद्ध को मार्गदर्शक या आचार्य मानते थे भगवान नहीं। ये मूर्तिपूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं करते थे।

–  हीनयान के दो सम्प्रदाय – वैभाषिक, सौत्रान्तिक है।

–  महायान : सुधारवादी प्रकृति के थे। बुद्ध को भगवान मानते थे और मूर्ति पूजा पर विश्वास करते थे। अवतारवाद तथा भक्ति से संबंधित हिन्दू धर्म के सिद्धान्त को अंगीकार किया। महायान साहित्य संस्कृत में है। यह सम्प्रदाय चीन, जापान, तिब्बत, कोरिया एवं मंगोलिया में प्रचलित है।

–  शून्यवाद (माध्यमिक) मत का प्रवर्तन नागार्जुन ने किया था तथा विज्ञानवाद (योगाचार) के संस्थापक मैत्रेयनाथ थे। असंग तथा वसुबंध द्वारा विज्ञानवाद का विकास किया गया।

–  नागार्जुन की प्रसिद्ध रचना है- माध्यमिक कारिका।

–  वज्रयान : सातवीं शताब्दी के करीब बौद्ध धर्म में तंत्र – मंत्र के प्रभाव के फलस्वरूप वज्रयान सम्प्रदाय का उदय हुआ।

–  सहजयान व काल चक्रयान का संबंध बौद्ध धर्म से है।

बौद्ध संघ (श्रमण परंपरा)

–  महात्मा बुद्ध के समस्त अनुयायी चार भागों में विभक्त थे।

 (1) भिक्षु    (2) भिक्षुणी      (3) उपासक     (4) उपासिका

–  “बौद्ध संघ” ही बौद्ध धर्म की केन्द्रीय संस्था के रूप में विकसित हुआ।

–  बुद्ध ने ‘बौद्धसंघ’ की स्थापना वैशाली गणतंत्र की प्रणाली पर की थी जबकि उनका भिक्षु संघ वस्तुत: एक धार्मिक गणतंत्र था।

–  बुद्ध ने धर्मचक्रप्रर्वतन के बाद अपने प्रथम पाँच ब्राह्मण शिष्यों के साथ संघ की स्थापना की।

–  बौद्ध ग्रन्थ ‘विनय पिटक’ में संघ की स्थापना तथा संघ के नियमों की विवेचना की गई है।

–  बौद्ध संघ सम्बन्धी नियमों के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

 (1) भिक्षुओं के आचरण पर नियंत्रण करना

 (2) संघ की एकता व अखण्डता का संरक्षण

 (3) एक निगमित निकाय के  रूप में संघ का संचालन

 (4) संघ एवं सामान्य बौद्ध उपासकों के मध्य संबंधों को परिभाषित करना।

वर्षावास व विहार:-

–  बौद्ध संघ की जीवन शैली में स्थायित्व  भिक्षुओं द्वारा वर्षावास संस्थानी कर से हुई।

–  वर्षावास में भिक्षु जिन अस्थायी निवासों का निर्माण करते थे वे ‘आराम’ कहलाते थे तथा ऐसे आवास या आराम स्थल जो संघ के रूप में स्थापित हो गए थे उनका प्रमुख ‘संधि थेर’ कहलाता था।

– “आराम” में भिक्षुओं के लिए बड़ी झोपड़ियाँ ‘विहार’ कहलाती थी।

–  बुद्ध ने अपना प्रथम वर्षावास सारनाथ के “मूलगन्धकूटि विहार” में व्यतीत किया था। उन्होंने सर्वाधिक  21 वर्षावास श्रावस्ती के ‘जेतवन विहार’ में बिताए थे।

–  बुद्ध का अंतिम वर्षावास वैशाली के ‘वेलुवग्राम’ विहार में सम्पन्न हुआ।

संघ का संगठन व नियम

प्रवज्या-

–  जब कोई भिक्षु गृहस्थ जीवन का त्याग कर किसी बौद्ध आचार्य के अधीन एक परिवाजक जीवन को प्रारंभ करने का निर्णय लेता था उस संस्कार को ‘प्रवज्या’ कहा जाता था। प्रवज्या ग्रहण करने की न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी।

– ‘श्रामणेरी श्रमण को’ त्रिशरण (बुद्ध धम्म, संघ) की शपथ लेनी पड़ती थी।

–  कर्जदार, विकलांगों, दण्डित, अपराधी, डाकु व राजकीय सेवकों का संघ में प्रवेश निषिद्ध था।

– ‘श्रामनेर’ को 10 शीलों का पालन करना अनिवार्य होता था।

–  बौद्ध संघ की शिक्षा व्यवस्था में शिष्य को “सद्धिविहारिक” तथा आचार्य को  “उपाध्याय” कहा जाता थाप्रवज्या ग्रहण करने वाले को “श्रामनेर/श्रमण” कहा जाता था।

–  संघ में प्रवेश की प्रक्रिया ‘उपसम्पदा’ कहलाती थी।

–  संघ में भिक्षु जीवन का प्रारंभ ‘प्रवज्या’ से तथा उसकी पूर्णता ‘उपसम्पदा’ से होती थी।

–  भिक्षुओं के वस्त्र ‘चीवर’ कहलाते थे।

–  बौद्ध भिक्षुओं के निषेधात्मक नियम, ‘भिक्खुमोख’ (पतिमोक्ख) तथा बौद्ध भिक्षुणियों के निषेधात्मक नियम, भिक्षुणियों के निषेधात्मक नियम” “भिक्खुनीपतियों” कहलाते थे।

संघ की कार्यप्रणाली

–  संघ की कार्यप्रणाली जनतंत्रीय होती थी तथा सभी के अधिकार समान थे।

–  संघ का प्रमुख ‘विनयधर’ कहलाता था।

–  संघ के अधिवेशन में बैठने की व्यवस्था करने वाला अधिकारी ‘आसन प्रज्ञापक’ कहलाता था।

–  संघ की सभा में रखे जाने वाले प्रस्ताव को “ज्ञाप्ति (नति)” कहा जाता था। प्रस्ताव पाठ को ‘अनुसावन’ कहा जाता था। संघ में स्वीकृत प्रस्ताव को ‘संघ कर्म/कम्मवाचा’ कह जाता था।

उपोसथ  

–  पूर्व चन्द्र तथा नव चन्द्र (ज्येष्ठ पूर्णिमा तथा अमावस्या) के अवसर पर सभी भिक्षु उपस्थित होकर धर्मचर्चा करते थे तो वह ‘उपोसथ’ कहलाता था।

प्रवारणा

–  वर्षावास की समाप्ति के बाद वार्षिक परिशुद्धि के रूप में संघ के सदस्यों को प्रवारणा पर्व में सम्मिलित होकर अपराधों की स्वीकृति करना आवश्यक था। प्रवारण-संस्कार-अपराध स्वीकारोक्ति की विधि है।

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कंथिन/कथीना

–  प्रवारणा पर्व के अंत में किया जाने वाला संस्कार जिसमें उपासकों द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को वस्त्र आदि वितरित किए जाते थे।

त्रिपिटक :-

–  सुत्तपिटक- बौद्ध धर्म के सिद्धांत

–  विनयपिटक- इसमें आचार के नियमों का उल्लेख है।

–  अभिधम्म पिटक- बौद्ध धर्म के सिद्धांतों की दार्शनिक व्याख्या मिलती है।

–  त्रिपिटकों पर लिखे गए भाष्यों को ‘विभाषाशास्त्र’ कहा जाता है।

–  जातक ग्रन्थों में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं का वर्णन है । (जातक ग्रन्थ -549)

प्रथम बौद्ध संगीति

समय

483 ई.पू.

स्थान

सप्तपर्णि गुफा (राजगृह)

शासनकाल

अजातशत्रु

अध्यक्ष

महाकश्यप

कार्य

बुद्ध के उपदेशों का सुत्तपिटक तथा विनयपिटक में अलग – अलग संकलन किया गया।

द्वितीय बौद्ध संगीति

समय

383 ई.पू.

स्थान

वैशाली (बालुका राम  विहार)

शासनकाल

कालाशोक

अध्यक्ष

सब्बाकामी (साबकमीर)

कार्य

भिक्षुओं में मतभेद के कारण स्थविर एवं महासंघिक में विभाजन

तृतीय बौद्ध संगीति

समय

251 ई.पू.

स्थान

पाटलिपुत्र (अशोकाराम विहार)

शासनकाल

अशोक

अध्यक्ष

मोग्गलिपुत्त तिस्स

कार्य

अभिधम्मपिटक का संकलन

चतुर्थ बौद्ध संगीति

समय

प्रथम शताब्दी ई.

स्थान

कुंडलवन (कश्मीर)

शासनकाल

कनिष्क

अध्यक्ष

वसुमित्र (अश्वघोष उपाध्यक्ष)

कार्य

‘विभाषाशात्र’ टीका का संस्कृत में संकलन।

बौद्ध संघ का हीनयान एवं महायान सम्प्रदायों में विभाजन

बौद्ध धर्म के पतन के कारण :

–  बौद्ध धर्म के पतन के कारण में ब्राह्मण धर्म की बुराइयों को ग्रहण करना।

–  पालि छोड़ कर संस्कृत भाषा को अपनाना।

–  बौद्ध विहारों का विलासिता तथा दुराचार के केन्द्र बन जाना।

–  विहारों में एकत्रित धन का संकेंद्रण।

–  बौद्ध शिक्षा के महान केन्द्र “नालन्दा” व “विक्रमशीला” विश्वविद्यालयों को बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया।

जैन धर्म:-

–  जैन शब्द : ‘जिन’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ – विजेता है।

–  जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव थे जिन्हें पहले तीर्थंकर के रूप में जाना जाता है।

–  जैन संतो को तीर्थंकर कहा गया है।

नोट : ऋग्वेद में दो जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव (आदिनाथ) व अरिष्टनेमी का उल्लेख।

नोट : ऋग्वेद व यजुर्वेद दोनों में केवल ऋषभदेव का उल्लेख है।

–  भागवत् पुराण व विष्णु पुराण में ऋषभदेव का उल्लेख मिलता है।

–  जैन परम्परा में 24 तीर्थंकरों के नाम दिए गए हैं जिनमें पार्श्वनाथ तथा महावीर के अतिरिक्त सभी की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।

–  पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें तीर्थंकर थे। ये काशी नरेश अश्वसेन के पुत्र थे इन्हें जैन ग्रन्थों में “पुरुषपादनीयम” कहा गया है।

–  पार्श्वनाथ ने चार महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह का प्रतिपादन किया था।

वर्द्धमान महावीर :-

–  जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर का जन्म वैशाली के निकट कुंडग्राम में 540 ई.पू. में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञांतृक गण के मुखिया थे और माता त्रिशला लिच्छवि गणराज्य प्रमुख चेटक की बहन थी। महावीर के बचपन का नाम वर्द्धमान था।

 नोट : कुछ ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार महावीर का जन्म 599 ई. पू. व मृत्यु 527 ई. पू. माना जाता है।

–  इनका विवाह यशोदा से हुआ तथा इनकी पुत्री का नाम प्रियदर्शना था।

–  महावीर ने 30 वर्ष की अवस्था में बड़े भाई नंदिवर्द्धन की आज्ञा लेकर गृह त्याग कर दिया।

–  12 वर्ष की कठोर तपस्या के पश्चात् जृम्भिक ग्राम (साल वृक्ष के नीचे) के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर वर्द्धमान को कैवल्य प्राप्त हुआ।

–  कैवल्य प्राप्त होने के पश्चात् ये केवलिन, इन्द्रियों को जीत लेने के कारण जितेन्द्रिय तथा अतुल पराक्रम दिखाने के कारण ये महावीर कहलाए।

–  महावीर ने अपने जीवन काल में एक संघ की स्थापना की, जिसमें 11 प्रमुख अनुयायी थे, जिन्हें ‘गणधर’ कहा गया था।

–  72 वर्षकीउम्रमेंराजगृहकेनिकटपावापुरीमें468 ई.पू. में निर्वाण प्राप्त किया। (मल्ल राज्य)

–  महावीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणधर सुधर्मन जीवित बचा, जो जैन संघ का उनके बाद प्रथम अध्यक्ष बना।

–  सालवृक्षकेनीचेमहावीरकोकैवल्यकीप्राप्तिहुईथी।पूर्वमेंयेनिर्ग्रन्थ’ कहलातेथे।

–  जैन मठों को दक्षिण भारत में ‘बसादि’ के नाम से जाना गया है।

जैन धर्म के सिद्धान्त :

–  पंच महाव्रत-1. अहिंसा, 2. सत्य 3. अपरिग्रह, 4. अस्तेय तथा 5. ब्रह्मचर्य।

–  सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को नहीं मानना। (अनीश्वरवादी)

–  देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया है परन्तु इनका स्थान ‘जिन’ से नीचे है।

–  जैन धर्म कर्मवादी है तथा इसमें पुनर्जन्म की मान्यता है।

अन्य धार्मिक सम्प्रदाय

सम्प्रदाय

संस्थापक

आजीवक

मक्खलिपुत्र गोशाल

अक्रियवादी

पूरणकश्यप

उच्छेदवादी

अजित केशकंबी

नित्यवादी

पकुधा कच्चायन

संदेहवादी

संजय वेलट्ठलिपुत्त

त्रिरत्न :

1.  सम्यक् दर्शन – सत में विश्वास।

2.  सम्यक् ज्ञान – वास्तविक ज्ञान।

3.  सम्यक् आचरण – सांसारिक विषयों में उत्पन्न सुख – दु:ख के प्रति समभाव।

–  स्यादवाद : जैन धर्म में ज्ञान को 7 विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा गया है जो स्यादवाद कहलाता है। इसे अनेकान्तवाद अथवा सप्तभंगीय का सिद्धान्त भी कहते हैं।

–  अनेकात्मवाद : आत्मा संसार की सभी वस्तुओं में है। जीव भिन्न – भिन्न होते हैं उसी प्रकार आत्माएँ भी भिन्न – भिन्न होती हैं।

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–  निर्वाण : आत्मा को कर्मों के बंधन से छुटकारा दिलाना ‘निर्वाण’ कहा गया है।

–  अनन्त चतुष्टय की अवधारणा जैन धर्म से सम्बन्धित है।

–  “शलाका पुरुष” अवधारणा का संबंध जैन धर्म से है।

–  जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति के तीन स्त्रोत माने गए हैं :- प्रत्यक्ष, अनुमान तथा तीर्थंकरो के वचन

–  जैन  धर्म में विद्रोह जामालि व तीसगुप्त ने किया था।

–  जामालि महावीर के प्रथम शिष्य तथा उनकी पुत्री प्रियदर्शना के पति थे।

–  महावीर ने अपना प्रथम उपदेश राजगृह की विपुलाचल की पहाड़ी पर दिया।

–  महावीर की मृत्यु के बाद जैन संघ का प्रथम अध्यक्ष सुधर्मन बना।

–  जैन साहित्य प्राकृत (अर्द्वमागधी) भाषा में लिखा गया तथा जैन साहित्य को ”आगम” कहा जाता है।

–  जैन तीर्थंकरों के प्रतीक चिह्न

तीर्थंकर

प्रतीक चिह्न

(1) ऋषभेदव

वृषभ

(2) अजितनाथ

गज

(3) सम्भवनाथ

अश्व

(4) नेमीनाथ

नीलोत्पल

(5) अरिष्टनेमी

शंख

(6) पार्श्वनाथ

सर्प

(7) महावीर

सिंह

सम्मेलन :

प्रथम जैन सम्मेलन

स्थान

पाटलिपुत्र

समय

300 ई.पू.

अध्यक्ष

स्थूलभद्र (शासक चन्द्रगुप्त मौर्य)

 कार्य

जैन धर्म के 12 अंगों का संपादन, जैन

धर्म का श्वेतांबर एवं दिगम्बर में विभाजन

द्वितीय जैन सम्मेलन

स्थान

वल्लभी (गुजरात)

समय

513 ई. (छठी शताब्दी) मैत्रक वंश के शासक श्रवसेन प्रथम के काल में

अध्यक्ष

देवर्धी श्रमाश्रवण

कार्य

जैन ग्रंथों का अंतिम संकलन कर लिपिबद्ध किया गया ।

जैन सम्प्रदाय :

–  चौथीं सदी ई.पू. में मगध में 12 वर्षों तक भयंकर अकाल पड़ा, जिससे भद्रबाहु अपने शिष्यों के साथ कर्नाटक चले गए और स्थूलभद्र अपने शिष्यों के साथ मगध में ही रहा। भद्रबाहु के लौटने तक मगध के भिक्षुओं की जीवनशैली में आया बदलाव विभाजन का कारण बना।

–  मगध में निवास करने वाले जैन भिक्षु स्थूलभद्र के नेतृत्व में श्वेताम्बर कहलाए। ये श्वेत वस्त्र धारण करते थे।

–  जैन आचार्य भद्रबाहु के नेतृत्व में जैन भिक्षु दिगम्बर कहलाए। ये स्वयं को शुद्ध बताते थे और नग्न रहने में विश्वास करते थे।

–  जैन ग्रन्थ ‘कल्पसूत्र’ की रचना भद्रबाहु ने की थी।

–  पुजेरा, ढुंढिया आदि श्वेताम्बर के उपसंप्रदाय थे।

–  बीस पंथी, तेरापंथी तथा तारणपंथी दिगम्बर के उपसम्प्रदाय थे।

–  जैनों ने प्राकृत भाषा में विशेषकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रंथों की रचना की।

–  जैन साहित्य को आगम कहा जाता है जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, प्रकीर्ण, छन्दसूत्र आदि सम्मिलित हैं।

–  जैनियों के स्थापत्य कला में देलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू, खजुराहो में स्थित पार्श्वनाथ, आदिनाथ मंदिर प्रमुख हैं।

आजीवक सम्प्रदाय

–  आजीवक सम्प्रदाय को “भाग्यवादी” व “नियतिवादी” भी कहा जाता है।

–  आजीवक सम्प्रदाय के प्रवर्तक मक्खलिपुत्र गौशाल थे।

–  आजीवक सम्प्रदाय के उदय में नंदवच्छ तथा किस संकिश नामक भिक्षुओं का प्रथम हाथ था।

–  आजीवक सम्प्रदाय का साहित्य 10 पूर्वों, 8 महानिम्मित तथा 2 मग्गों में विभक्त है।

–  आजीवक सम्प्रदाय के साहित्य को दक्षिण भारत में “नवकदिर” कहा गया है।

–  जैन स्त्रोतों के अनुसार मक्खलिपुत्र गोशाल के पिता “मंखा” (धार्मिक चित्रों की प्रदर्शनी करने वाला) थे इसलिए इनका नाम “मंखलि” पड़ा तथा माता का नाम “भद्दा” था।

–  मक्खलिपुत्र का जन्म ‘सरावन’ गाँव (श्रावस्ती) की एक गोशाला में हुआ था।

–  मक्खलिपुत्र प्रारंभ में महावीर स्वामी के शिष्य थे।

–  आजीवक सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र “श्रावस्ती” था।

–  “भगवती सूत्र” में महावीर व  मक्खलिपुत्र के मध्य संघर्ष का वर्णन मिलता है।

–  मौर्यकाल को आजीवक मत की पराकाष्ठा का काल माना जाता है।

–  मौर्य सम्राट अशोक व दशरथ ने आजीवकों को गुफाएँ प्रदान की।

–  महावंश के अनुसार इस सम्प्रदाय का प्रभाव दक्षिण भारत व श्रीलंका में भी था।

–  दक्षिण भारत में मक्खलिपुत्र गोशाल को  ‘अवर्णनीय देवता’ कहा गया है।

–  आजीवक सम्प्रदाय लगभग 1002 ई. तक अस्तित्व में रहा था।

–  धार्मिक सम्प्रदाय के रूप में आजीवकों का वर्णन पतंजलि के “महाभाष्य” में मिलता है।

–  बौद्ध व जैन दोनों ग्रन्थों में आजीवक सम्प्रदाय की घोर आलोचना की गई है।

–  आजीवक लोग अशोक नामक वृक्ष की पूजा करते थे तथा शरीर को गंदा रखते थे और मोर पंख धारण करते थे।

–  आजीवक सम्प्रदाय में जातिगत आधार पर कोई विभाजन नहीं किया जाता था।

–  “हालाहला” नामक कुम्हारिन का घर आजीवक  मत के प्रमुख केन्द्र के रूप में उपयोग में आता था (श्रावास्ती में)

–  कौशल नरेश प्रसेनजीत आजीवक मत का प्रमुख सदस्य था।

–  नगरीय व्यापारी, गृहस्थी तथा स्त्रियाँ भी इस में दीक्षित होने की अधिकारी थी।

–  आजीवकों के अनुसार समस्त प्राणी नियति (भाग्य) के अधीन हैं तथा मनुष्य के जीवन पर उसके कर्मों का कोई प्रभाव नही पड़ता है।

–  आजीवक मत में पाँच तत्त्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा जीव को स्वीकार किया गया है।

–  आजीवक मत के लोग भिक्षा माँगकर दिन में केवल  एक बार हथेली में रखकर भोजन ग्रहण करते थे, इसलिए उन्हें “हत्थापलेखण” कहा गया है।

–  आजीवकों को एक दण्ड धारण  करने के कारण “एक दण्डिन” भी कहा गया है।

–  आजीवक जीवन के अन्तिम समय नृत्य व गान के साथ शरीर त्याग देते थे।

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