मेवाड़ का इतिहास History of Mewar
मेवाड़ का इतिहास History of Mewar
गुहिल वंश को ब्राह्मणों की संतान बताने वाले स्त्रोत–
गोपीनाथ शर्मा ,डी.आर.भंडारकर, आहड़ अभिलेख, कुंभलगढ़ प्रशस्ति, एकलिंग महात्म्य , डॉ दशरथ शर्मा ।
➡ मुहणौत नैणसी और जेम्स टॉड ने इस वंश की 24 शाखाएँ बताई है- कल्याणपुर, वागड़,चाकसू , धोड, काठियावाड़, नेपाल आदि ।
➡ कर्नल जेम्स टॉड की “एनाल्स एण्ड एंटिक्विटिज ऑफ राजस्थान” तथा श्यामलदास के “वीर विनोद” में इस राजवंश का उद्भव गुजरात के वल्लभी से माना गया है।
➡अबुल फजल ने इस वंश को ईरान के बादशाह नौशे खान आदिल की संतान बताया है ।
➡यह विश्व में सर्वाधिक समय तक एक ही क्षेत्र पर राज्य करने वाला वंश है जो वर्तमान उदयपुर संभाग में है
➡ प्राचीन समय में मेवाड़ “शिवि जनपद” कहलाता था जिसकी राजधानी नगरी अथवा मध्यमिका थी। जहाँ के शासकों ने ‘मलेच्छों’ से संघर्ष किया।
➡ महाराणा को “हिन्दुआ सूरज” भी कहा जाता है।
➡ मेवाड़ के राज्य चिन्ह पर अंकित है कि -“जो दृढ़ राखे धर्म को, ताहि रखे करतार”।
➡ G.H. ओझा यह मूल रूप से “सूर्यवंशी” माने जाते हैं।
➡ इस वंश का संस्थापक “गुहिल या गुहे दत्त“ को माना जाता है। 566 ई. में इस वंश की स्थापना की।
➡ कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार वल्लभी के राजा शिलादित्य और रानी पुष्पावती का पुत्र गुहा दित्य था जिसे नागर ब्राह्मणों ने पाल पोस कर बड़ा किया। गुहा या गुफा में जन्म होने के कारण इसका नाम गुहा या गोहिल या गुहा दित्य पड़ा इसके सिक्के आगरा से मिलते हैं।
➡ नागादित्य – इसकी हत्या भीलों द्वारा की गई।
➡ बप्पा रावल ( 734 ई से 753 ई. तक) –
इसने नागदा को राजधानी बनाया
– मान्यता अनुसार इसने एशिया पर भी विजय प्राप्त की और खुरासान में इसकी समाधि है परंतु वर्तमान में “नागदा“में इसकी समाधि मानी गई है ।
– इसका संबंध “हारित ऋषि“ से है। इसने मान मोरी को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया और “मेवाड़ राज्य की स्थापना” की।
– राजस्थान में “सोने के सिक्के” सर्वप्रथम बप्पा रावल ने चलाए तथा “एकलिंग जी का मंदिर“ की स्थापना कैलाशपुरी उदयपुर में की। एकलिंग जी को शासक मानते हुए तथा स्वयं को उसका दीवान मानकर शासन किया। पाशुपति सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र माना जाता है।
– “एकलिंग प्रशस्ति” में बप्पा रावल की दंतकथा मिलती है तथा “रणकपुर प्रशस्ति” में बप्पा रावल और काल भोज को अलग-अलग बताया गया है परंतु दोनों एक ही है।
– सी वी वैद्य ने बप्पा को “चार्ल्स मार्टेल“ कहा है ।
– इसके स्वर्ण सिक्कों पर शिव, नंदी, त्रिशूल, दंडवत करता मनुष्य, कामधेनु आदि के चित्र बने हैं। यह सिक्का 115 ग्रेन का माना जाता है।
– पुत्र – खुम्माण प्रथम
भर्तृभट II :-
इसे तीनों लोको का तिलक कहा गया है।
– “प्रतापगढ़ अभिलेख“ में इसे महाराजाधिराज कहा गया है।
– इसने राष्ट्रकूट राजकुमारी महालक्ष्मी से विवाह किया।
अल्लट ( 951 – 953 ई):-
इसे ख्यातों में “आलू रावल“ कहा गया है।
– “आहड़“ को राजधानी बनाया और यहां “वराह मंदिर“ बनवाया।
– इसे राजस्थान में “नौकरशाही का संस्थापक” माना गया।
– इसने “हूणों” को पराजित कर हूण राजकुमारी “हरिया देवी“ से विवाह किया।
शक्ति कुमार (977 ई. से 993 ई):-
इसके समय मालवा के परमार शासक “मुंज” ने आक्रमण किया और आहड़ को नष्ट किया अतः इसने “नागदा को पुनः राजधानी” बनाया।
– परमार शासक “भोज” ने चित्तौड़ में “त्रिभुवन नारायण मंदिर”का निर्माण करवाया ।
अंबा प्रसाद :- जयानक द्वारा लिखित “पृथ्वीराज विजय” के अनुसार चौहान राजा वाकपति राज द्वितीय ने इसे पराजित कर मार डाला था ।
कर्ण सिंह/रण सिंह:- 12 वीं शताब्दी में गुहिल शासक हुआ। इसने आहोर के पर्वत पर किला बनवाया। इसके 2 पुत्र थे क्षेम कर्ण और राहप/माहप
- क्षेमकरण ने “रावल शाखा” और राहप ने “राणा शाखा” को आरम्भ किया।
- क्षेमकरण के दो पुत्र हुए कुमार सिंह और सामंत सिंह I सामंत सिंह को जालौर के कीर्तिपाल चौहान ने पराजित कर मेवाड़ पर अधिकार किया।
- अतः सामंत सिंह ने “वागड़ क्षेत्र“ में गुहिल वंश की स्थापना की। इसने तराईन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान की सहायता की ।
- कुमार सिंह के बाद जैत्र सिंह शासक बना।
जैत्र सिंह ( 1213-1250 ई.) :-
इसके काल में चार मुस्लिम आक्रमण हुए। इल्तुतमिश, नसीरुद्दीन कुबाचा, नसीरुद्दीन महमूद और जलालुद्दीन मंगबरनी। तीनों को पराजित किया।
- इल्तुतमिश को “भुताला के युद्ध“(1227 ई.) में पराजित किया, जिसका उल्लेख जयसिंह सूरी के ग्रंथ “हम्मीर मदमर्दन” में मिलता है।
- जैत्र सिंह के सेनापति “बालक व मदन” थे।
- जी एच ओझा ने इसे “रण रसिक” कहा तथा डॉ दशरथ शर्मा ने इसे “मेवाड़ की नव शक्ति का संचारक” कहा ।
- “तारीख ए फरिश्ता” में इल्तुतमिश के चित्तौड़ पर आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
तेज सिंह( 1250 ई. – 1273 ई.):-
इसके समय 1260 ई. में कमल चंद्र द्वारा “श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी“ नामक मेवाड़ के प्रथम चित्र ग्रंथ की रचना की गई।
- इसी के काल में “बलबन” का मेवाड़ पर असफल आक्रमण हुआ।
- रानी जयतलदेवी ने चित्तौड़ में “श्याम पार्श्व मंदिर” का निर्माण करवाया।
- इसकी उपाधियां” ‘उमापतिवार लब्ध प्रौढ़ प्रताप’ ‘परमभट्ठारक’ ‘महाराजाधिराज’ ‘परमेश्वर’।
समर सिंह (1273 ई.-1301 ई.) :-
इसने जीव हिंसा पर रोक लगाई ।
- “चीरवा अभिलेख” में शत्रु संहार मे इसे सिंह के समान माना गया है।
- “कुंभलगढ़ प्रशस्ति” में इसे शत्रुओं की शक्ति का अपहरणकर्ता बताया गया है।
- इसके एक पुत्र कुंभकरण ने” नेपाल में गुहिल वंश की स्थापना” की।
- इसका उत्तराधिकारी इसका पुत्र रतन सिंह था।
रतन सिंह(1301 ई. – 1303 ई.):-
यह रावल शाखा का अंतिम शासक था।
- इसने सिहल द्वीप(श्रीलंका) के राजा गंधर्व सेन और रानी चंपावती की पुत्री पद्मिनी से विवाह किया।
- “हिरामण” नामक तोते के द्वारा रतन सिंह को पद्मिनी के सौंदर्य की जानकारी दी गई थी।
- इसके बारे में जानकारी का स्रोत मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित “पद्मावत“ है, जो अवधी भाषा में शेरशाह सूरी के समय 1540 ईस्वी में लिखी गई, इसमें रतन सिंह पर अलाउद्दीन के आक्रमण का मुख्य कारण पद्मिनी को प्राप्त करना बताया गया है। आधुनिक इतिहासकार “दशरथ शर्मा” ने भी इसका समर्थन किया है परंतु अमीर खुसरो द्वारा लिखित “खजाइन उल फुतुह“ में चित्तौड़ पर अलाउद्दीन के आक्रमण का मुख्य कारण अलाउद्दीन खिलजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बताया गया है जो सर्वमान्य कारण माना जाता है।
- 28 जनवरी 1303 ई. को अलाउद्दीन दिल्ली से चित्तौड़ के लिए ससैन्य रवाना हुआ तथा 26 अगस्त 1303 ई. को चित्तौड़ पर अधिकार किया इस समय “चित्तौड़ का प्रथम और राजस्थान का दूसरा साका” हुआ। जिसमें केसरिया का नेतृत्व रावल रतन सिंह ने और जोहर का नेतृत्व पद्मिनी ने किया।
- चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद अलाउद्दीन ने अपने पुत्र “खिज्र खां” को चित्तौड़ का प्रशासक नियुक्त किया तथा चित्तौड़ का नाम बदलकर “खिज्राबाद“कर दिया था ।
- इस संघर्ष में दो मेवाड़ी सरदार “गोरा और बादल” वीरगति को प्राप्त हुए । गोरा और बादल क्रमशः पद्मिनी के काका व भाई थे।
- तांत्रिक “राघव चेतन“ ने अलाउद्दीन को पद्मिनी के सौंदर्य की जानकारी दी थी।
- अलाउद्दीन की 1316 ई. में मृत्यु के बाद 1316 ई. से 1326 ई. तक जालौर के “मालदेव सोनगरा“ को चित्तौड़ का प्रशासक बनाया गया।
- चैत्र कृष्ण एकादशी को प्रतिवर्ष चित्तौड़गढ़ में” जौहर मेले” का आयोजन किया जाता है ।
- अलाउद्दीन द्वारा चित्तौड़ पर विजय प्राप्त करने के बाद 30,000 से अधिक आम नागरिकों का कत्लेआम किया गया जिसका उल्लेख अमीर खुसरो ने किया है।
- युद्ध में विजय के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़गढ़ की तलहटी में एक मकबरा बनवाया जिसमें 1310 ई. का फारसी शिलालेख लगा है इसमें खिलजी को “उ स समय का सूर्य, ईश्वर की छाया और संसार का रक्षक” कहा गया है।
राणा हम्मीर ( 1326 ई. से 1364 ई.):-
- यह सिसोदा गांव का निवासी था अतः सिसोदिया भी कहलाया।
- यह राणा शाखा अथवा सिसोदिया शाखा का प्रथम शासक था। पिता- अरि सिंह और दादा- लक्ष्मण सिंह थे।
- इसने दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक को” सिंगोली के युद्ध” में पराजित किया।
- इसे “मेवाड़ का उद्धारक“भी कहा जाता है ।
- महाराणा कुंभा ने अपने ग्रंथ रसिकप्रिया में इसे “विषम घाटी पंचानन और वीर राजा ” कहा है।
महाराणा खेता (1364 ई. – 1382 ई.):-
खेता के समय मालवा के शासक दिलावर खान गौरी को पराजित किया गया इसी के काल से “मेवाड़ – मालवा संघर्ष “का आरंभ माना जाता है।
- खेता ने अजमेर, जहाजपुर, मांडल तथा छप्पन के क्षेत्रों को अपने राज्य मे मिला लिया था।
- खेता की उप पत्नी के पुत्र- “चाचा व मेरा” थे।
महाराणा लाखा/लक्ष्य सिंह(1382 ई. – 1421ई.) :-
- यह हम्मीर का पोत्र व खेता का पुत्र था।
- इसने बूंदी के राव बरसिंह हाडा को मेवाड़ का प्रभुत्व मांगने हेतु विवश किया ।
- इसी के समय “जावर“ में जस्ते व चांदी की खानों का पता लगाया गया।
- इसके काल में पिच्छु नामक चिड़ीमार बंजारे द्वारा “पिछोला झील“(उदयपुर) का निर्माण करवाया गया।
- इसने मारवाड़ के राव चूड़ा राठौड़ के पुत्री “हंसा बाई से विवाह” किया, जिससे “मोकल“ नामक पुत्र की प्राप्ति हुई ।
- इसके जेष्ठ पुत्र कुंवर चुंडा को “मेवाड़ का भीष्म पितामह“ कहा जाता है।
- दरबारी विद्वान :- झोटिंग भट्ट, धनेश्वर भट्ट।
महाराणा मोकल (1421 ई. – 1433 ई.):-
यह 12 वर्ष की आयु में महाराणा बना। मोकल ने “समधीश्वर मंदिर तथा विष्णु मंदिर ” का निर्माण करवाया(चित्तौड) । समधीश्वर मंदिर को मोकल मंदिर भी कहा जाता है।
- मोकल ने “एकलिंग जी के परकोटे” का निर्माण करवाया ।
- 1428 ई के “रामपुरा के युद्ध “में नागौर के फिरोज खान को पराजित किया।
- 1433 ई में “जिलवाड़ा के युद्ध” में गुजरात के शासक अहमद शाह को पराजित किया।
- दरबारी विद्वान:- योगेश्वर, विष्णु भट्ट।
- प्रमुख शिल्पी :-मना, फना ।
- जिलवाड़ा में ही इसकी हत्या “चाचा व मेरा“ नामक मेवाड़ी सरदारों द्वारा की गई थी।
महाराणा कुम्भा/कुम्भकर्ण (1433 ई. – 1468 ई.):-
माता -परमार रानी सौभाग्यवती ,पिता- मोकल, जन्म – 1403 ईस्वी।
- कुम्भा की उपाधियों का उल्लेख “कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति” में किया गया है। प्रमुख उपाधियां – छाप गुरु (छापामार युद्ध पद्धति के कारण), हाल गुरु (पहाड़ी दुर्गों का शासक होने के कारण), राणो रासो( साहित्यकारों को आश्रय देने के कारण), अभिनव भरता चार्य (संगीत का ज्ञान होने के कारण), टोडरमल (संगीत की 3 विधाओं में पारंगत होने के कारण), नाटकराज कर्ता (4 नाटक लिखने के कारण) चाप गुरु (शस्त्र विद्या में पारंगत होने के कारण),हिंदू सुरताण (हिंदुओं का प्रमुख शासक होने के कारण), अन्य उपाधियां – राणा राय, राजगुरु, दान गुरू, शैल गुरु, नरपति, अश्वपति, गजपति आदि।
- प्रमुख निर्माण कार्य :- श्यामल दास द्वारा लिखित “वीर विनोद” के अनुसार कुंभा ने मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्गों का निर्माण करवाया ।
- प्रमुख दुर्ग – कुंभलगढ़ ,बसंती दुर्ग, भोमट दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ़ दुर्ग इत्यादि।
- कुंभलगढ़ दुर्ग का शिल्पी “मंडन” था। इस दुर्ग में लघु दुर्ग कटार गढ़ को “मेवाड़ की आंख” कहा जाता है जो कुंभा का निवास भी था। अबुल फजल के अनुसार इस दुर्ग को देखने से सिर की पगड़ी गिर जाती है यह इतनी बुलंदी पर बना है। इसकी दीवार 36 किलोमीटर लंबी है तथा 22 फीट चौड़ी है जिस पर चार घोड़े चल सकते हैं ।
कुंभा ने निम्नलिखित मंदिरों का निर्माण करवाया :-
1. कुंभ श्याम मंदिर :- यह मंदिर चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़ और अचलगढ़ तीनों दुर्गों मे है ।
2. शृंगार समरी का मंदिर (चित्तौडगढ़)
3. विष्णु मंदिर (एकलिंग जी मे)
4. कुशाल माता मंदिर( बदनोर )
5. कुंभा के समय 1439 ई. में मथाई नदी के किनारे , रणकपुर मे धरणक शाह द्वारा जैन मंदिर का निर्माण किया गया, जिसमें 1444 स्तंभ है इसे “स्तंभों का वन” भी कहते हैं। यह “चौमुखा मंदिर” भी कहलाता है। फर्ग्युसन के अनुसार – “ऐसा मंदिर अन्यत्र कहीं नहीं देखा है”।
- कुंभा ने 1437 में सारंगपुर युद्ध में महमूद खिलजी प्रथम को पराजित किया तथा इस उपलक्ष में चित्तौड़गढ़ दुर्ग में विजय स्तंभ का निर्माण करवाया जिसे विष्णु स्तंभ भी कहते हैं यह 9 मंजिला भवन है जो 30 फीट चौड़ा और 122 फीट ऊंचा है इसमें कुल 157 सीढ़ियां हैं ।इसके चारों और भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों की मूर्तियां बनी है। सीपी वैद्य ने इसे “विष्णु स्तंभ” कहा है, उपेंद्र नाथ डे ने इसे “विष्णु ध्वज” कहा है, गोपीनाथ शर्मा ने “इसे लोक जीवन का रंगमंच” कहा है, आर पी व्यास ने इसे “हिंदू प्रतिमा शास्त्र की अनुपम निधि” कहा है। महाराणा स्वरूप सिंह के समय इसका जीर्णोद्धार करवाया गया । 15 अगस्त 1949 ई. को इस पर डाक टिकट जारी किया गया। राजस्थान पुलिस तथा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के मानक चिन्ह में इसे दर्शाया गया है । फर्ग्यूसन ने इसकी तुलना “टार्जन टावर”(इंग्लैंड)से की है। इसे बनाने की प्रेरणा बयाना के विष्णु स्तंभ से मिली। इसकी तीसरी मंजिल पर 9 बार अल्लाह शब्द लिखा है। इसके निर्माण में कुल नब्बे लाख रूपए खर्च हुए।
- “कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति” की रचना कवि “अत्रि” तथा बाद में “महेश” द्वारा की गई ।
- “कुंभलगढ़ प्रशस्ति” की रचना महेश भट्ट द्वारा की गई यह कुंभलगढ़ के मामा देव मंदिर की दीवार पर लगी है।
दरबारी विद्वान :-
1. मंडन :- प्रमुख रचनाएं – देव मूर्ति प्रकरण, प्रसाद मंडन, राजवल्लभ, रूप मंडन, वास्तु मंडन, वास्तु शास्त्र, कोदंड मंडन(धनुर्विद्या से संबंधित)।
2. नाथा :- यह मंडन का भाई था। इसने “वास्तु मंजरी” की रचना की।
3. गोविंद :- मंडन का पुत्र था। इसकी प्रमुख रचनाएँ- उद्धार धोरिणी, द्वार दीपिका ,कलानिधि।
- अन्य विद्वान :- मुनि सुंदर सूरी, टिल्ला भट्ट, जय शेखर, भुवन कीर्ति, सोम सुंदर, जयचंद्र सूरी, सोमदेव।
- कुम्भा की प्रमुख रचनाएँ:- संगीत राज(5भाग),संगीत मीमांसा, संगीत रत्नाकर की टीका, चंडी शतक की टीका, गीत गोविंद की टीका, रसिकप्रिया, नृत्य रत्न कोष, कामराज रतिसार, सुधा प्रबंध इत्यादि।
कुंभा कालीन प्रमुख राजनीतिक घटनाएं:-
1. 1437 ई में “सारंगपुर के युद्ध” में मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम को पराजित किया।
2. 1453 ई में जोधा व कुंभा के बीच आवल बावल की संधि हुई , जिसमें सोजत को मेवाड़ और मारवाड़ के मध्य की सीमा मान लिया गया। यह संधि करवाने में हन्साबाई की प्रमुख भूमिका थी। इस संधि के द्वारा दोनों राज्यों में वैवाहिक संबंध भी स्थापित हुए ।
3. कुंभा ने नागौर के शासक शम्स खान को पराजित कर नागौर पर अधिकार किया ।
4. 1456ई में मालवा व गुजरात के शासकों ने मिलकर “चंपानेर की संधि” की। इस समय मालवा का शासक महमूद खिलजी प्रथम और गुजरात का शासक कुतुबुद्दीन था। इस संधि के अनुसार दोनों राज्य मिलकर मेवाड़ पर अधिकार करेंगे और उसे आधा-आधा बांट लेंगे परंतु दोनों राज्यों की पराजय हुई कुंभा की विजय हुई।
5. कुंभा ने सिरोही के शासक सहस मल के समय सिरोही पर आक्रमण कर आबू पर अधिकार किया।
- कुंभा अपने अंतिम समय में उन्माद रोग से ग्रसित हो गया था।
- कुम्भा के पुत्र उदयकरण (उदा) ने ही मामादेव कुंड(कटारगढ़) के पास पीठ में छुरा भोंक कर कुम्भा की हत्या की।
महाराणा रायमल (1473 ई. से 1509 ई):-
- राणा रायमल का विवाह मारवाड़ के राव जोधा की पुत्री शृंगार देवी से हुआ।
- इनके बड़े 3 पुत्र :- पृथ्वीराज, जयमल और सांगा थे।
- इनकी बेटी आनंदा बाई का विवाह सिरोही के जगमाल के साथ हुआ।
- इनके पुत्र पृथ्वीराज का विवाह टोडा के राव सुरताण की पुत्री “तारा“ के साथ हुआ। पृथ्वीराज ने तारा के नाम पर अजमेर के किले का नाम तारागढ़ रखा। इस पृथ्वीराज को “उड़ना राजकुमार” के नाम से भी जाना जाता है। इसकी हत्या इसके बहनोई जगमाल ने विष के माध्यम से की।
- रायमल के पुत्र जयमल के दुर्व्यवहार के कारण राव सुरताण ने उसकी हत्या की।
- उत्तराधिकार के संघर्ष में पराजित होकर सांगा ने अजमेर के “करमचंद पंवार“ के पास शरण ली थी।
- रायमल ने खेती को प्रोत्साहित करने के लिए “राम, शंकर” नामक तालाबों का निर्माण करवाया।
महाराणा संग्राम सिंह /सांगा (1509 ई. से 1528 ई.)-
सांगा को “हिंदूपत” भी कहा जाता है।
- इनके शरीर पर 80 घाव होने के कारण कर्नल जेम्स टॉड ने सांगा को “सैनिक भग्नावशेष ” की संज्ञा दी।
- सांगा को उसके” युद्धों के कारण” जाना जाता है।
सांगा के समकालीन दिल्ली के मुस्लिम शासक :-
1.सिकंदर लोदी (1489 ई. से 1517 ई.)
2.इब्राहिम लोदी (1517 ई. से 1526 ई.)
3.बाबर (1526 ई. से 1530 ई.)
समकालीन मालवा के शासक:-
1.नासिर उद्दीन खिलजी
2. महमूद खिलजी द्वितीय
समकालीन गुजरात के शासक:-
1. महमूद बेगड़ा
2. मुजफ्फर शाह द्वितीय
प्रमुख युद्ध:-
1. खातोली का युद्ध (1517 ई. कोटा):- इस युद्ध में सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया ।इस युद्ध में इब्राहिम लोदी ने खुद भाग लिया था।
2. बांडी या बाड़ी का युद्ध (1518 ई. धौलपुर):- इस युद्ध में पुनः सांगा ने इब्राहिम लोदी को पराजित किया। इब्राहिम लोदी की सेना का नेतृत्व मियां हुसैन और मियां माखन ने किया था।
3. गागरोन का युद्ध (1519 ई. झालावाड़):- सांगा ने महमूद खिलजी ll मालवा को पराजित किया।
4. बयाना का युद्ध (16 फरवरी 1527 भरतपुर):- सांगा ने बाबर की सेना को पराजित किया।
5. खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527):- इस युद्ध में सांगा को बाबर ने पराजित किया। खानवा, भरतपुर की रूपवास तहसील में स्थित है।
इस युद्ध से पूर्व घटित प्रमुख घटनाएं:-
1.काबुल के ज्योतिषी मोहम्मद शरीफ ने बाबर के पराजय की भविष्यवाणी की थी ।
2.बाबर ने सेना के सामने जोशीला भाषण दिया था।
3. बाबर ने इस युद्ध को जिहाद (धर्म युद्ध) घोषित किया था।
4. बाबर ने मुस्लिम व्यापारियों पर लगने वाला “तमगा “चुंगी कर हटाया था।
बाबर के तोपखाना अध्यक्ष:- मुस्तफा कमाल और उस्ताद अली थे।
- इस युद्ध में बाबर ने “तुलुगमा युद्ध पद्धति और तोपखाने” का प्रयोग किया था। यही इसकी विजय के प्रमुख कारण थे।
- इस युद्ध से पूर्व सांगा ने “पाती परवण ” प्रथा को पुनर्जीवित किया। यह एक प्राचीन पद्धति थी इसके अंतर्गत हिंदू शासकों को युद्ध में आमंत्रित किया जाता था।
आमंत्रित किए गए तथा भाग लेने वाले प्रमुख हिंदू शासक:-
1 . बीकानेर राजा जैतसी ने पुत्र कल्याणमल को भेजा
2. मारवाड़ राव गाँगा ने पुत्र मालदेव को भेजा।
3. ईडर – भारमल
4. मेड़ता – वीरमदेव
5. चंदेरी(mp.)- मेदिनी राय
6. जगनेर – अशोक परमार
7. आमेर – पृथ्वीसिंह कछवाहा
8. वागड़ – उदय सिंह
9. गोगुंदा – झाला सज्जा
10. सादड़ी – झाला अज्जा
11. बूंदी – नारायण राव
- सांगा के पक्ष में भाग लेने वाले मुस्लिम सेनानायक :- हसन खां मेवाती (मेवात का शासक), महमूद लोदी (इब्राहिम लोदी का छोटा भाई)
- बाबर की सेना का नेतृत्व “हुमायूं और मेहंदी ख्वाजा” कर रहे थे ।
- “झाला अज्जा” ने इस युद्ध में सांगा की जान बचाई ।
- राव मालदेव घायल सांगा को “बसवा”(दौसा) नामक स्थान पर लेकर गए। यहां इनकी प्राथमिक चिकित्सा हुई।यहां से सांगा को रणथंम्भौर ले जाया गया।
चंदेरी के युद्ध (1528 ई.) में भाग लेने के लिए जब सांगा जा रहे थे तब युद्ध विरोधी मेवाड़ी सरदारों ने सांगा को कालपी(उ.प.) स्थान पर विष दिलवाया। स्वास्थ्य खराब होने पर सांगा को बसवा दौसा ले जाया गया यहीं पर सांगा की मृत्यु हुई । बसवा में ही “सांगा का स्मारक/चबूतरा” बना है। इनका अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया गया। जहां सांगा की “8 खंभों की छतरी” का निर्माण अशोक परमार द्वारा करवाया गया ।
- सांगा ने अपने बड़े पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के ठाकुर राव दूदा की पुत्री मीराबाई से किया। भोजराज की मृत्यु सांगा के जीवन काल में ही हो गई थी।
- सांगा के अन्य जीवित पुत्र:- रतन सिंह II, विक्रमादित्य, उदय सिंह थे।
महाराणा रतन सिंह (1528 ई. से 1531 ई.):- यह महाराणा सांगा की अन्य रानी धनबाई का पुत्र था। बूंदी के सूरजमल हाडा के साथ “अहेरिया उत्सव” के दौरान युद्ध करते हुए मारा गया।
महाराणा विक्रमादित्य (1528 ई. से 1536 ई.):-
- यह महाराणा सांगा की हाड़ी रानी कर्णावती का पुत्र था। इसकी संरक्षिका कर्णावती थी।
- विक्रमादित्य के समय मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासक” बहादुर शाह प्रथम” ने चित्तौड़ पर 2 बार आक्रमण किया (1533 ई. तथा 1534 ई.)
- 1534 ई. के दूसरे आक्रमण से पूर्व कर्णावती ने हुमायूं को सहायता प्राप्त करने हेतु राखी भेजी थी, परंतु हुमायूं ने समय पर सहायता नहीं की, अतः लंबे घेरे के बाद 1535 ई. में चित्तौड़ का पतन हुआ। इस समय चित्तौड़गढ़ का “दूसरा साका” हुआ जिसमें जौहर का नेतृत्व कर्णावती ने तथा केसरिया का नेतृत्व “रावत बाघसिंह” ने किया।
- विक्रमादित्य ने मीराबाई को दो बार मारने का असफल प्रयास किया। मीरा वृंदावन चली गई जहां “रविदास” को अपना गुरु बनाया।
- विक्रमादित्य की हत्या दासी पुत्र बनवीर ने की थी। यह कुंवर पृथ्वीराज की दासी” पुतल दे” का पुत्र था।
- बनवीर ने उदय सिंह को भी मारने का प्रयास किया परंतु पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन की बलि देकर उदय सिंह की रक्षा की। कीरत बारी(पत्तल उठाने वाला) की सहायता से उदय सिंह को कुंभलगढ़ दुर्ग में पहुंचाया। इस समय कुंभलगढ़ दुर्ग का किलेदार “आशा देवपुरा” था।
बनवीर (1536 ई. से 1540 ई.):- बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या कर सिंहासन प्राप्त किया और चित्तौड़ पर अधिकार किया। इसने चित्तौड़ में “नौलखा महल और तुलजा भवानी का मंदिर” बनवाया।
राव मालदेव की सहायता से उदय सिंह ने चित्तौड़ पर अधिकार किया। बनवीर को मारकर सिंहासन प्राप्त किया।
महाराणा उदय सिंह – (1537 ई. – 1572 ई.)
- यह महाराणा सांगा व रानी कमावती के ज्येष्ठ पुत्र थे।
- पन्नाधाय ने बनवीर से सुरक्षित रखने के लिए उदयसिंह को कीरतबारी की सहायता से कुंभलगढ़ दुर्ग के आशादेवपुरा के पास पहुंचाया।
- अफगान शासक शेरशाह सुरी को चितौड़ दुर्ग की चाबियां सौपकर उसका प्रभुत्व स्वीकार किया।
- शेरशाह ने ख्वास खां को अपना राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिए चितौड़ में रखा।
- अफगानो की अधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का पहला राजा उदयसिंह था।
- 1557 ई. में रंगराय वैश्या के कारण उदयसिंह व अजमेर के हाजी खां के मध्य ‘हरमाडा का युद्ध’ हुआ।
- 1559 ई. में राणा उदयसिंह ने उदयपुर/पूर्व का वेनिस/ व्हाइट सिटी नगर बसाया व ‘उदयसागर झील का निर्माण करवाया।
- अकबर 1567 ई. में चितौड़ अभियान शुरू किया क्योकि उदयसिंह ने मालवा के वाज बहादूर व मेडता के जयमल को शरण दी थी।
चितौड आक्रमण (1567 ई.)
- फरवरी मे 1568 ई. में अकबर ने चितौड़ पर आधिकार कर लिया।
- उदयसिंह ने चितौड़ दुर्ग जयमल राठौड़ व फत्ता सिसोदिया को सोपा जो लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए व फत्ता की पत्नी रानी फुलकंवर ने जौहर किया जो चितौड का तीसरा साका था।
- कबर ने आगरा के दुर्ग कें बाहर जयमल व फत्ता की मूर्तिया लगवायी । इनकी मूर्तिया जूनागढ़ दुर्ग (बीकानेर) के बाहर भी स्थित है।
- 28 फरवरी 1572 ई. में गोगुन्दा (उदयपुर) में उदयसिंह की मृत्यु हो गयी।
- यदि सांगा व प्रताप के बीच में उदयसिंह न होता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल होते। – कर्नल टॉड
महारणा प्रताप (1572 ई. – 1597 ई.)
- राणा प्रताप का जन्म – 9 मई,1540 को (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया) बादल महल (कटारगढ़) कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ।
- राजमहल की क्रांति– मेवाड़ के सामन्तों ने उदयसिंह द्वारा नियुक्त उत्तराधिकारी जगमाल को हटाकर राणा प्रताप को शासक बनाया यह घटना राजमहल की क्रांति कहलाती है।
- राज्याभिषेक – अखैराज सोनगरा ने जगमाल को गद्दी से हटाकर प्रताप को शासक बनाया। राज्याभिषेक महादेव बावड़ी (गोगुन्दा)- कृष्णदास ने राणा प्रताप की कमर में तलवार बांधी।
- विधिवत राज्याभिषेक कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ जिसमें मारवाड़ का राव चन्द्रसेन भी सम्मलित हुआ।
- अकबर द्वारा महाराणा प्रताप से संधि करने हेतु निम्न 4 संधि प्रस्तावक/शिष्ट मण्डल भेजे-
जलाल खां कोची – नवम्बर, 1572
मिर्जा राजा मानसिंह – जून, 1573
भगवन्त दास – सितम्बर, 1573
टोडरमल – दिसम्बर, 1573
- सदाशिव कृत ‘राजरत्नाकर’ एवं रणछोड़ भट्ट कृत ‘अमरकाव्यम् वंशावली’ में मानसिंह का स्वागत व सत्कार उदयसागर झील के किनारे किया गया।
- चौथे शिष्टमण्डल टोडरमल की मुलाकात प्रताप से नहीं हुई।
- अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध में व्यूह रचना मैग्जीन दुर्ग में रची थी।
- महाराणा प्रताप को कर्नल टॉड ने ‘मेवाड़ केसरी’ कहा है।
हल्दीघाटी का युद्ध – (18 जून,1576)
- अकबर की सेना का नेतृत्व आमेर के राजा मानसिंह ने किया।
- मानसिंह ने मुगल सेना का नेतृत्व करते हुए मोलेला गाँव राजसमन्द में पडाव डाला।
- राणा प्रताप ने युद्ध की योजना ‘कुम्भलगढ़ दुर्ग में बनाई तो सेना का पड़ाव लोहसिंग गाँव’ (राजसमन्द) में डाला।
- हल्दीघाटी युद्ध के समय प्रताप ने अपना मुख्य नियंत्रण केन्द्र केलवाडा राजसमन्द को बनाया।
- राणा प्रताप की हरावल सेना का नेतृत्व एकमात्र मुस्लिम सेनापति हकीम खां सूरी ने किया तो चंदावल सेना का नेतृत्व राणा पूजा ने किया था।
- हकीम खां सुरी का मकबरा- खमनौर
- हल्दी घाटी के अन्य नाम-
मेवाड़ की थर्मोपोली – कर्नल टॉड
खमनौर का युद्ध – अबलु-फजल
गोगुन्दा का युद्ध – बदायुनी
- डॉ.ए.एल श्री वास्तव ने हल्दीघाटी को ‘बादशाह बाग’ नाम दिया।
- राजसमन्द में प्रत्येक वर्ष ‘हल्दीघाटी महोत्सव’ मनाया जाता है।
- राणा प्रताप के घायल होने पर झालावीदा या झाला मन्ना ने राजचिन्ह धारण किया।
- राणा प्रताप का घोड़ा चेतक घायलावस्था में युद्ध भूमि से बाहर निकाला। बलीचा गाँव में चेतक की मृत्यु हो गयी वही उसकी समाधि बनी है।
- डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार- हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णायक रहा।
- राजविलास व राजप्रशस्ति के अनुसार हल्दीघाटी युद्ध में राणा प्रताप विजयी हुआ।
- अकबर ने हल्दीघाटी युद्ध के बाद उदयपुर व चितौड़ पर अधिकार कर उदयपुर का नाम ‘मुहम्मदाबाद’ रखा।
- पाली के भामाशाह ने स्वर्ण मुद्राएं देकर आर्थिक सहायता दी।
- कर्नल टॉड ने भामाशाह को ‘मेवाड़ का कर्ण’ कहा है।
कुंभलगढ़ का युद्ध (1578 ई.)
- अकबर ने अपने सेनापाति शाहबाज खां के नेतृत्व में कुंभलगढ़ पर आक्रमण किया।
- पहली बार कुंभलगढ़ दुर्ग की को किसी मुस्लिम ने जीता था।
- राणा प्रताप कुंभलगढ़ दुर्ग राव भाण सोनगरा को सौंपकर स्वयं छाछन की पहाडियों (उदयपुर) में चले गये।
दिवेर का युद्ध (1582 ई.)
- दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप की विजयों का श्री गणेश कहते है।
- दिवेरे युद्ध में प्रताप ने ‘गुरिल्ला युद्ध पद्धति’ का प्रयोग किया।
- कर्नल जेम्स टॉड ने ‘दिवेर के युद्ध’ को मेवाड़ का मैराथन कहा है।
- अकबर ने प्रताप के विरूद्ध अंतिम पांचवी बार जगन्नाथा कच्छवाह को भेजा।
- जगन्नाथ कच्छवाह की ’32 खम्भो की छतरी’ माण्डलगढ़ भीलवाड़ा में बनी हुई है।
- 1585 ई. में लूण चावण्डीया को पराजित कर प्रताप ने चावण्ड को जीता व अपनी राजधानी बनाया।
- चावण्ड में चामुण्डा देवी का मंदिर का निर्माण करवाया।
- चावण्ड शैली का विकास प्रताप के समय हुआ।
- 19 जनवरी 1597 ई. को 57 वर्ष की आयु में चावण्ड में मृत्यु हो गयी प्रताप की छतरी- 8 खम्भों की छतरी बांडोली (उदयपुर) में केजड़ बांध की पाल पर बना है।
- फतेहसागर झील के किनारे राणा प्रताप का स्मारक (मोती मगरी- उदयपुर) स्थित है।
राणा अमरसिंह – प्रथम (1597 ई. – 1620 ई.)
- राणा प्रताप व अजब दे पंवार का पुत्र था।
- अकबर ने 1599 ई. में जहांगीर के नेतृत्व में सेना भेजी, जिसे मेवाड़ की सेना ने उटाला नामक स्थान पर पराजित किया।
- 5 फरवरी, 1615 में मेवाड़ के अमरसिंह प्रथम व मुगल शासक जहांगीर के बीच मुगल-मेवाड़ संधि हुई।
- इस संधि पर मुगलों की तरफ से खुर्रम व मेवाड़ की ओर से अमरसिंह प्रथम ने हस्ताक्षर किये।
- मेवाड़ स्कुल की चावण्ड चित्रकला शैली का स्वर्णकाल अमरसिंह प्रथम का काल था।
- 1 जून,1620 में अमरसिंह की मृत्यु हो गयी।
- आहड़ (उदयपुर) की महासत्तियों में सबसे पहली छतरी अमरसिंह प्रथम का है।
- आहड़ को मेवाड़ के महाराणाओं का शमशान भी कहते है।
राणा कर्णसिंह – (1620 ई. – 28 ई.)
- कर्णसिंह ने पिछोला झील में जगमंदिर का निर्माण करवाया जहाँ 1622 ई. में शाहजहाँ को शरण दी।
- शाहजहाँ ने यहां ‘गफुर बाबा की मजार’ बनवायी।
- कर्णसिंह ने उदयपुर में दिलखुश महल व कर्ण विलास का निर्माण करवाया।
- जगमंदिर तीन राजाओं राणा कर्णसिंह, राणा जगतसिंह प्रथम व जगतसिंह द्वितीय द्वारा बनवाया गया।
जगतसिंह प्रथम (1628 ई. – 1652 ई.)
- शाहजहां ने जगतसिंह प्रथम के समय मेवाड़ रियासत के हिस्से की प्रतापगढ़ व शाहपुरा रियासत को मेवाड़ से पृथक कर दिया।
- इसनें जगमंदिर का निर्माण पूर्ण करवाया। जिसको भाणा व उसके पुत्र मुकुंद की देखरेख में बनवाया।
- इसी मंदिर में कृष्णभट्ट द्वारा रचित जगन्नाथ राय
- जगत सिंह प्रथम ने मोहन मंदिर व रूप सागर तालाब बनवाया। इनकी धाय माँ नौजूबाई ने उदयपुर में ‘धाय मंदिर’ बनावाया।
- मेवाड़ चित्रकला शैली का ‘स्वर्णकाल’ जगतसिंह प्रथम का काल था।
- जगतसिंह ने ‘तस्वीरा रो कारखानो’ व ‘चितेरो की ओवरी’ बनवायी।
महाराणा राजसिंह – (1652 ई.-1680 ई.)
- राजसिंह ने ‘विजय कटकातु’ की उपा धि धारण की।
- गौतमी नदी के पानी को रोककर राजसिंह ने राजसमुद्र/राजसमन्द झील का निर्माण करवाया।
- राजसमन्द झील की नींव घेवर माता द्वारा रखवाई।
- राजसिंह ने उदयपुर में अम्बामाता मंदिर बनवाया व ब्राह्मणों को ‘रत्नों का तुलादान’ दिया।
- इनकी पत्नी रामरस दे ने उदयपुर मे जया या त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया।
- औरंगजेब ने राजसिंह को 6000 का मनसब व डुंगरपुर-बांसवाड़ा परगने उपहार में दिये।
- किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमति को लेकर राजसिंह व औरंगजेब के मध्य ‘देसुरी की नाल’(राजसमन्द) में युद्ध हुआ। इस युद्ध में राजसिंह की तरफ से सलुम्बर के रतनसिंह चुड़ावत ने विजय प्राप्त की।
- राजसिंह ने मारवाड़ के अजीतसिंह व दुर्गादास की सहायता की तथा उन्हें ‘केलवा की जागीर’ प्रदान की।
- राजसिंह ने नाथद्वारा मंदिर व द्वारिकाधीश कांकरोली के मंदिरों का निर्माण करवाया।
- मृत्यु – 1680 ई. कुंभलगढ़ दुर्ग में।
महराणा जयिसंह (1680 ई. – 1698 ई.)
- जयसिंह ने गोमती नदी के पानी को रोककर जयसमन्द झील/ढ़ेबर झील (उदयपुर) का निर्माण करवाया।
- यह राजस्थान की सबसे बड़ी मीठे पानी की कृत्रिम झील है।
महाराणा अमरसिंह द्वितीय (1698 ई. – 1710 ई.)
- अमर सिंह द्वितीय के शासन काल में मेवाड़-मारवाड़ -आमेर के मध्य दैबारी समझौता हुआ।
- अमरसिंह- द्वितीय ने अपनी पुत्री इन्द्रकुंवरी का विवाह सवाई जयसिंह से करवाया।
महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710 ई. – 1734 ई.)
- इन्होंने फतेहसागर झील के किनारे सहेलियों की बाड़ी बनवाई।
- सीसारमा गाँव में वैद्यनाथ का मंदिर व वैद्यनाथ प्रशस्ति का निर्माण करवाया।
- मेवाड़ में स्थित जगदीश मंदिर का पुन:निर्माण करवाया।
महाराणा जगतसिंह – द्वितीय (1734 ई. – 1751 ई.)
- इसने पिछोला झील में जगनिवास महलों का निर्माण करवाया इनके दरबारी कवि नेकराम ने जगत विलास ग्रंथ लिखा।
- 17 जूलाई, 1734 को हुरडा सम्मलेन की अध्यक्षता की
- इनके समय अफगान शासक नादिरशाह ने 1739 ई. में दिल्ली पर आक्रमण किया।
राणा भीमसिंह(1778 ई. – 1828 ई.)
- 1818 ई. में भीमसिंह ने मराठा भय से अंग्रेजों से संधि कर ली।
- इस संधि पर मेवाड़ की ओर से ठाकुर अजीत सिंह (आसींद भीलवाड़ा) तथा अंग्रेजो की ओर चार्ल्स मैटकॉफ ने हस्ताक्षर किये।
- कृष्णा कुमारी का विवाह के लिए 1807 ई. में गिंगोली, परबतसर नागौर का युद्ध हुआ। यह भीमसिंह की पुत्री थी।
- अमीर खां पिण्डारी व अजीत सिंह चुण्डावत के दबाव में कृष्णा कुमारी को जहर दे दिया।
महाराणा सरदार सिंह (1838 ई. – 1842 ई.)
- 1841 ई. में मेवाड़ भील कोर का गठन किया जिसे 1950 ई. में राजस्थान पुलिस विभाग में विलय कर दिया।
स्वरूप सिंह (1842 ई. – 1861ई.)
- 1857 की क्रांति में अंग्रेजों का साथ देने वाला राजस्थान का पहला राजा स्वरूप सिंह था।
- इसने स्वरूपशाही सिक्के चलाये जिन पर चित्रकूट उदयपुर व दूसरी ओर दोस्ती लंदन अंकित था।
- विजय स्तम्भ का जीर्णोद्वार भी इसने करवाया।
राणा शम्भु सिंह (1861 ई. – 1874 ई.)
- शम्भु सिंह के काल में श्यामलदास ने वीर विनोद का लेखन प्रारम्भ किया।
- लॉर्ड रिपन ने इनको ग्राण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इंडिया की उपाधि दी।
राणा सज्जन सिंह(1874 ई. – 1884 ई.)
- इनके काल में मेवाड़ में 1881 ई. में प्रथम बार जनगणना का कार्य किया।
- राणा ने शासन प्रबन्ध एंव न्याय कार्य के लिए 1880 ई. में महेन्द्राज सभा की स्थापना की।
- 1881 ई. में उदयपुर में ‘सज्जन यंत्रालय’ छापाखाना स्थापित कर सज्जन कीर्ति सुधारक नामक साप्ताहिक का प्रकाशन किया।
- ‘सज्ज्न वाणी विलास’ पुस्तकालय की स्था पना की।
- लॉर्ड लिटेन द्वारा आयोजित दिल्ली दरबार में भाग लेने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक सज्जन सिंह था।
- दयानन्द सरस्वती मेवाड़ आये व सत्यार्थ प्रकाश का लेखन जग मंदिर में प्रारम्भ किया।
महाराणा फतेहसिंह (1883 ई. – 1930 ई.)
- उपाधि– ऑर्डर ऑफ क्राउन ऑफ इंडिया।
- 1889 में ए.जी.जी. में वाल्टर ने राजपूत हितकारिणी सभा की स्थापना की।
- 1903 ई. में फतेहसिंह, एडवर्ड सप्तम के दरबार में शामिल होने जा रहे थे तो केसरी सिंह बारहठ ने चेतावनी रा चुंगट़िया दिया नामक 13 सोरठे लिखकर दिये।
राणा भूपाल/भोपाल सिंह -(1930 ई. – 1955 ई.)
- इनके समय राजस्थान का एकीकरण हुआ
- राजस्थान एकमा/आजीवन ‘महाराज प्रमुख’ पद पर रहे।
- एकीकरण के समय एकमात्र अपाहिज शासक राणा भूपाल सिंह थे।