संविधान की प्रस्तावना (उद्देशिका) 

संविधान की प्रस्तावना

–  अमेरिकी संविधान के समान, भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी संविधान के प्रारम्भ में प्रस्तावना को शामिल किया है, जिसकी भाषा शैली ऑस्ट्रेलिया के संविधान से प्रभावित है।

–  प्रस्तावना संविधान का दर्शन है, इसमें संविधान के उद्देश्यों और प्रयोजनों को स्पष्ट किया गया है।

–  प्रस्तावना संविधान निर्माताओं के विचारों, सपनों तथा आदर्शों की अभिव्यक्ति है।

–  भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा बनाए गए और 13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा में पेश किए गए उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा ने स्वीकार किया।

–  26 नवंबर, 1949 में प्रस्तावना संविधान को आत्मार्पित की गई।

–  प्रस्तावना में अभी तक केवल एक बार संशोधन किया गया है।

–  42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, पंथ निरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए गए।

–  ठाकुर दास भार्गव के अनुसार, ‘प्रस्तावना संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। वह विधान की आत्मा है। वह विधान की कुंजी है।’

–  एनपालकीवाला ने प्रस्तावना को संविधान का परिचय पत्र कहा है।

–  के.एममुंशी ने प्रस्तावना को संविधान की राजनीतिक कुण्डली कहा है।

–  सर अर्नेस्ट बार्कर के अनुसार प्रस्तावना संविधान का कुंजी नोट है।’

–  न्यायमूर्ति हिदायतुल्लाह ने प्रस्तावना को संविधान की मूल आत्मा की संज्ञा दी।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में चार मूल तत्त्व हैं-

1. संविधान के अधिकार का स्त्रोत

2. भारत की प्रकृति

3. संविधान के उद्देश्य

4. संविधान लागू होने की तिथि

प्रस्तावना

“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण

प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी,

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पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक

गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके

समस्त नागरिकों को

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,

विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म

और उपासना की स्वतन्त्रता।

प्रतिष्ठा और अवसर की समता,

प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में

व्यक्ति की गरिमा और

राष्ट्र की एकता और अखण्डता

सुनिश्चित करने वाली

बन्धुता बढ़ाने के लिए

दृढ़ संकल्प होकर  अपनी इस संविधान

सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949

(मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो

हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस

संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और

आत्मार्पित करते हैं।”

संविधान की प्रस्तावना एवं इसमें समाहित शब्दों के अर्थ

– “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा इसके समस्त नागरिकों को:

–  सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिये दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”

–  प्रस्तावना संविधान के परिचय अथवा भूमिका को कहते हैं भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित नेहरू द्वारा पेश किये गए उद्देश्य प्रस्ताव’ पर आधारित है।

–  42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा इसमें समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों को सम्मिलित किया गया।

प्रस्तावना में उल्लिखित मुख्य शब्दों के अर्थः

हम भारत के लोग-

इसका तात्पर्य यह है कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है तथा भारत के लोग ही सर्वोच्च संप्रभु है, अत: भारतीय जनता को जो अधिकार मिले हैं वही संविधान का आधार है अर्थात् दूसरे शब्दों में भारतीय संविधान भारतीय जनता को समर्पित है।

संप्रभुता

इस शब्द का आशय है कि, भारत ना तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और ना ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है। इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने आंतरिक और बाहरी मामलों का निस्तारण करने के लिए स्वतंत्र हैं।

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समाजवादी

समाजवादी शब्द का आशय यह है कि ऐसी संरचना जिसमें उत्पादन के मुख्य साधनों, पूँजी, जमीन, संपत्ति आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य हो।

पंथनिरपेक्ष

‘पंथनिरपेक्ष राज्य’ शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि, संविधान के निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करने चाहते थे। इसलिए संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 (धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) जोड़े गए। भारतीय संविधान में पंथ निरपेक्षता की सभी अवधारणाएँ विद्यमान हैं अर्थात् हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है।

लोकतांत्रिक

संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल वृहद् रूप से किया है, जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है। वयस्क मताधिकार, सामाजिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, भेदभाव का अभाव भारतीय राजव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं।

गणतंत्र

– प्रस्तावना में ‘गणराज्य’ शब्द का उपयोग इस विषय पर प्रकाश डालता है कि दो प्रकार की लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं ‘वंशागत लोकतंत्र’ तथा ‘लोकतंत्रीय गणतंत्र में से भारतीय संविधान के अंतर्गत लोकतंत्रीय गणतंत्र को अपनाया गया है।

– गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिये चुनकर आता है। गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं।

–  पहली यह कि राजनीतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने के बजाय लोगों के हाथ में होती हैं।

–  दूसरी यह कि किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति । इसलिये हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिये खुला होगा।

स्वतंत्रता

यहाँ स्वतंत्रता का तात्पर्य नागरिक स्वतंत्रता से है। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है। यह व्यक्ति के विकास के लिये अवसर प्रदान करता है।

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न्याय

न्याय का भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेख है, जिसे तीन भिन्न रूपों में देखा जा सकता है-

1. सामाजिक न्याय

2. राजनीतिक न्याय

3. आर्थिक न्याय।

–  सामाजिक न्याय से अभिप्राय है कि मानव-मानव के बीच जाति, वर्ण के आधार पर भेदभाव न माना जाए और प्रत्येक नागरिक को उन्नति के समुचित अवसर सुलभ हो।

– आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन एवं वितरण के साधनों का न्यायोचित वितरण हो और धन संपदा का केवल कुछ ही हाथों में केंद्रीकृत ना हो जाए।

– राजनीतिक न्याय का अभिप्राय है कि राज्य के अंतर्गत समस्त नागरिकों को समान रूप से नागरिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त हो, चाहे वह राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुँचाने का अधिकार।

समता

भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की क्षमता प्रदान करती हैं जिसका अभिप्राय है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने की उपबंध।

बंधुत्व

इसका शाब्दिक अर्थ है-भाईचारे की भावना प्रस्तावना के अनुसार बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा। पहला व्यक्ति का सम्मान और दूसरा देश की एकता और अखंडता। मौलिक कर्तव्य में भी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है।

प्रस्तावना पर न्यायिक दृष्टिकोण

–  1960 के बेरुवाड़ी यूनियन वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत दिया कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है किन्तु वह संविधान निर्माताओं के विचारों को जानने की कुंजी है।

–  1973 के केशवानंद भारती मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है। यह संविधान का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है और संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित महान विचारों को ध्यान में रखकर संविधान का अध्ययन किया जाना चाहिए।

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