शिक्षण (Teaching)
● शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाया जाता है।
● शिक्षण वह प्रक्रिया है जिसमें क्रियाओं की संरचना व निष्पादन विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन के लिए किया जाता है।
परिभाषा :-
B.O. स्मिथ :- शिक्षण क्रियाओं की एक विधि है जो सीखने की उत्सुकता जाग्रत करती है।
स्कीनर :- शिक्षण पुनर्बलन की आकस्मिकताओं का क्रम है।
गेज :- शिक्षण का उद्देश्य दूसरों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना है। इसमें पारस्परिक प्रभाव शक्ति होती है जिसमें दूसरों के व्यावहारिक क्षमता के विकास का लक्ष्य होता है।
क्लार्क :- शिक्षण के प्रारूप तथा संचालन की व्यवस्था इसलिए की जाती है कि बालक के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाया जा सके।
मॉरीसन :– शिक्षण में एक परिपक्व व्यक्ति कम परिपक्व व्यक्ति को शिक्षा प्रदान करता है।
रायन्स :– दूसरों को सिखाने के लिए दिशा-निर्देश देने व अन्य प्रकार से उन्हें निर्देशित करने की प्रक्रिया शिक्षण है।
रायबर्न :– शिक्षण छात्रों को उनकी शक्तियों के विकास में योगदान देता है।
बर्टन :– शिक्षण अधिगम हेतु उद्दीपन मार्ग प्रदर्शन व दिशा बोध है।
वर्ल्ड बुक इन साइक्लोपीडिया :- शिक्षण में एक व्यक्ति दूसरे को ज्ञानकौशल व अभिरुचि सीखने में सहायता करता है।
जेम्स एम थाईन :– शिक्षण का अर्थ है सीखने में वृद्धि करना।
बैन ने शिक्षण को प्रशिक्षण कहा है।
एन.एल. गेज :- शिक्षण प्रक्रिया में पारस्परिक प्रभावों को शामिल किया जाता है जिसमें दूसरों की व्यावहारिक क्षमताओं के विकास का लक्ष्य होता है।
एडमण्ड एमिडन :– शिक्षण अन्त:प्रक्रिया के रूप में जो शिक्षक व छात्र के मध्य प्रचालित होता है।
रॉबर्ट गेने :– शिक्षण का अर्थ अधिगम की दशा को व्यवस्थित करना जो कि अधिगमकर्ता की बाह्यता से संबंधित है।
शिक्षण की प्रकृति
1. शिक्षण एक अन्त:प्रक्रिया है।
2. शिक्षण एक सामाजिक तथा व्यावसायिक प्रक्रिया है।
3. शिक्षण एक सोद्देश्य प्रक्रिया है।
4. शिक्षण एक विकासात्मक प्रक्रिया है।
5. शिक्षण कला तथा विज्ञान दोनों ही है।
6. शिक्षण में भाषा सम्प्रेषण का कार्य करती है।
7. शिक्षण एक आमने-सामने होने वाली प्रक्रिया है।
8. शिक्षण एक उपचार विधि है।
9. शिक्षण एक तार्किक क्रिया है।
10. शिक्षण का मापन किया जाता है।
11. शिक्षण में सुधार तथा विकास किया जाता है।
12. शिक्षण प्रशिक्षण से लेकर अनुदेशन तक अंत: प्रक्रिया है।
13. शिक्षण एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया है।
अधिकांश शिक्षा-शास्त्रियों ने शिक्षण को द्विध्रुवीय प्रक्रिया कहा है। ब्लूम के अनुसार, शिक्षण के तीन पक्ष हैं-
(i) शिक्षण उद्देश्य
(ii) सीखने का अनुभव
(iii) व्यवहार परिवर्तन
एडम्स महोदय ने शिक्षण प्रक्रिया को द्विमुखी माना – शिक्षक व शिक्षार्थी
जॉन डीवी ने शिक्षण प्रक्रिया को त्रिमुखी प्रक्रिया माना- शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम।
14. शिक्षण एक निर्देशन की प्रक्रिया है।
15. शिक्षण एक औपचारिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है।
शिक्षण के चर
1. स्वतंत्र चर – शिक्षक
2. आश्रित चर – विद्यार्थी
3. मध्यस्थ चर/हस्तक्षेप – शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम, व्यूहरचनाएँ
शिक्षण की अवस्थाएँ
P.W. जैक्सन ने तीन अवस्थाएँ बताई-
1. पूर्व क्रिया चरण :- पाठ योजना बनाना
2. अन्त:क्रिया चरण :- कक्षा-कक्ष क्रिया
3. उत्तर क्रिया चरण :- मूल्यांकन संबंधी क्रियाएँ
शिक्षण के स्तर
1. स्मृति स्तर – हरबर्ट
2. अवबोध स्तर – मॉरीसन
3. चिंतन स्तर – हण्ट
स्तर के आधार पर शिक्षण के प्रतिमान
1. स्मृति स्तर :- हरबर्ट की पंच पदीय प्रणाली
(i) प्रस्तावना व तैयारी तथा उद्देश्य कथन।
(ii) प्रस्तुतीकरण
(iii) तुलना व संबंध
(iv) निष्कर्ष एवं सामान्यीकरण
(v) प्रयोग व अभ्यास
2. बोध स्तर :- मॉरीसन
(i) अन्वेषण
(ii) प्रस्तुतीकरण
(iii) आत्मीकरण
(iv) व्यवस्था
(v) अभिव्यक्तिकरण
3. चिंतन स्तर :- हण्ट
(i) छात्रों के सामने समस्या – परिस्थिति उत्पन्न करना।
(ii) छात्रों द्वारा उपकल्पना का निर्माण करना।
(iii) उपकल्पना पुष्टि के लिए सूझ, चिंतन, मनन का प्रयोग करना।
(iv) उपकल्पना का परीक्षण तथा समस्या समाधान।
Note :- शिक्षण स्तर का क्रम
स्मृति स्तर → बोध स्तर → चिंतन स्तर
शिक्षण के सूत्र
1. ज्ञात से अज्ञात की ओर :- प्रस्तावना, प्रस्तुतीकरण में
2. सरल से जटिल की ओर
3. अनिश्चित से निश्चित की ओर
4. अनुभूत से युक्ति की ओर
5. मूर्त से अमूर्त की ओर
6. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर
7. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर
8. विशिष्ट से सामान्य की ओर
9. मनोवैज्ञानिक से तार्किक या तर्कात्मक क्रम की ओर
10. आगमन से निगमन की ओर :- नियम स्थापना में
11. पूर्ण से अंश की ओर :- गेस्टाल्टवाद में
शिक्षण व शिक्षा में अंतर
शिक्षण (Teaching) | शिक्षा (Education) | ||
1. | शिक्षण एक विधि है जिसके द्वारा शिक्षा को प्रभावशाली बनाया जाता है। | 1. | शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास का एक साधन है। |
2. | शिक्षण, शिक्षा के अंतर्गत एक संकुचित प्रकरण है। | 2. | शिक्षा का स्वरूप व्यापक है। |
3. | शिक्षण का सामान्यत: क्षेत्र स्कूल तक सीमित रहता है। | 3. | यह जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। |
4. | शिक्षण के उद्देश्य, शिक्षा के लक्ष्यों के अनुसार होते हैं। | 4. | शिक्षा के लक्ष्य राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक तथा दार्शनिक पक्षों पर आधारित होते हैं। |
5. | शिक्षण औपचारिक प्रक्रिया है। | 5. | शिक्षा, औपचारिक या अनौपचारिक दोनों प्रकार की होती है। |
6. | शिक्षण पाठ्यक्रम पर आधारित रहता है। | 6. | इसमें लक्ष्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण पद्धतियाँ आदि सभी पर ध्यान दिया जाता है। |
शिक्षण व अनुदेश में अंतर
शिक्षण (Teaching) | अनुदेशन (Instruction) | ||
1. | अंत:क्रिया युक्त | 1. | अंत:क्रिया आवश्यक नहीं |
2. | शिक्षक होना आवश्यक है। | 2. | शिक्षक होना आवश्यक नहीं (मशीन द्वारा दिया जा सकता है।) |
3. | अनुदेशन शिक्षण का ही भाग है। | 3. | अनुदेशन में शिक्षण नहीं होता। |
4. | शिक्षण ज्ञानात्मक व क्रियात्मक पक्ष का विकास करता है। | 4. | केवल ज्ञानात्मक पक्ष का प्रयोग |
उत्तम शिक्षण की विशेषताएँ
1. नियोजित होना चाहिए – योजना युक्त
2. क्रियाशीलता के अवसर उपलब्ध करवाएं – शिक्षक व छात्र दोनों प्रश्न-उत्तर करें।
3. लोकतांत्रिक हो – बालक की रुचि आधारित
4. निदानात्मक उपचारात्मक होना चाहिए।
5. पूर्व ज्ञान पर आधारित – प्रस्तावना प्रश्न
6. अभिप्रेरणा से युक्त होना चाहिए।
7. बालक की रुचि, योग्यता पर आधारित हो।
8. वांछनीय सूचना प्रदान करता हो।
9. संवाद मूलक व अन्त:क्रिया युक्त हो।
10. छात्र शिक्षक संबंध मधुर हो।
11. निर्देशात्मक हो न कि आदेशात्मक।
12. प्रगतिशील हो।
13. संवेगात्मक स्थिरता प्रदान करता हो।
14. वर्तमान व भावी तैयारी प्रदान करें।
15. सहयोग पर आधारित व वातावरण के अनुकूलन में सहायता प्रदान करे।
16. शिक्षक दार्शनिक, मित्र व निर्देशक के रूप में है।
शिक्षण के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत
● अभिप्रेरणा का सिद्धांत
● आवृत्ति व अभ्यास का सिद्धांत
● तत्परता का सिद्धांत
● प्रतिपुष्टि/पुनर्बलन का सिद्धांत
● परिवर्तन, विश्राम व मनोरंजन का सिद्धांत
● ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण सिद्धांत
● स्व-अधिगम सिद्धांत
● समूह गति शास्त्र का सिद्धांत
● सृजनात्मकता का सिद्धांत
● सहानुभूति एवं सहयोग का सिद्धांत
शिक्षण की प्रक्रिया (Process of Teaching)
शिक्षण को त्रिपक्षी प्रक्रिया कहते हैं। शिक्षण की प्रक्रिया द्वारा क्रमबद्ध विकास किया जाता है। शिक्षण की विशेषता यह है कि इसमें शिक्षण-क्रियाएँ की जाती हैं। इन शिक्षण-क्रियाओं की तीन पक्षों में व्याख्या की जाती है-
1. शिक्षण में संकेत एवं चिह्न :- पाठ्य वस्तु के प्रस्तुतीकरण में संकेत एवं चिह्न शिक्षण को प्रभावशाली एवं समय की दृष्टि से मितव्ययी बनाते हैं। संकेत एवं चिह्न मूल्यांकन को भी सुगम बनाते हैं।
2. शिक्षण भाषा–विज्ञान की प्रक्रिया के रूप में :- शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक चिह्न तथा संकेतों की सहायता से अनुदेशन भी करता है। भाषा के उपयोग से शिक्षक निर्देशन देता है, व्याख्या करता है, घटनाओं का वर्णन करता है, कथनों की व्याख्या करता है। बिना भाषा के छात्र एवं शिक्षक में अन्त:क्रिया नहीं हो सकती है। शिक्षण के स्वरूप में भाषा का प्रमुख स्थान है।
3. शिक्षण का तर्क :- शिक्षक के लिए तर्क अधिक उपयोगी है। पाठ्य-वस्तु के अवयवों को किस क्रम में प्रस्तुत किया जाए, इसको शिक्षक तर्कपूर्ण ढंग से निर्धारित करता है।
(i) शिक्षण लक्ष्यों को सूत्रबद्ध करना।
(ii) वर्तमान ज्ञान को पहले के ज्ञान से जोड़ना।
(iii) शिक्षण सामग्री का प्रस्तुतीकरण।
(iv) मूल्यांकन
(v) पुनर्शिक्षण
शिक्षण की गुणवत्ता :- किसी भी स्तर पर शिक्षण की गुणवत्ता छात्रों के द्वारा पूछे गए प्रश्नों की गुणवत्ता प्रदर्शित है। पठन द्वारा बोध हुआ कि नहीं, यह विद्यार्थियों द्वारा अपने विचारों को प्रकट करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
शिक्षण अधिगम के सोपान
I.K. डैविज
पुस्तक :- मैनेजमेंट ऑफ टीचिंग एण्ड लर्निंग
चार सोपान
1. नियोजन (Planning) :- इसमें पाठ्यवस्तु विश्लेषण, कार्य विश्लेषण, उद्देश्यों का निर्धारण व उनको लिखना आदि क्रियाएँ की जाती हैं।
2. व्यवस्था (Organizing) :- इसमें शिक्षण विधि का चयन, विषयवस्तु, श्रव्य-दृश्य सामग्री, सम्प्रेषण युक्तियों की सहायता से अधिगम वातावरण का निर्माण किया जाता है।
3. अग्रसरण/मार्गदर्शन (Motivation) :- अभिप्रेरित करना – शिक्षक छात्रों को प्रेरित करता है।
4. नियंत्रण (Controlling) :- शिक्षण व अधिगम की सफलता को जाँचना, पुन: योजना बनाना व मूल्यांकन करना।
महत्त्वपूर्ण तथ्य :-
● शिक्षण, अनुदेशन नहीं है।
● शिक्षा में मुख्य परिवर्तन शिक्षक केंद्रित से छात्र केंद्रित होता है।
Note :- छात्र केंद्रित शिक्षा रूसो ने दी।
● रायबर्न के अनुसार तीन संबंध :-
(i) बच्चे व विषय में संबंध
(ii) बच्चे व समाज में संबंध
(iii) विषय व बच्चे में संबंध
● शिक्षण प्रक्रम के अंग – शिक्षक, शिक्षार्थी, पाठ्यक्रम।
● कक्षा-कक्ष शिक्षण संवादमूलक होना चाहिए।
● शिक्षण व्यवहार – एकतंत्रात्मक शिक्षण, प्रजातांत्रिक, हस्तक्षेप रहित शिक्षण।
● डॉ. एल.के. ओड के अनुसार – शिक्षा मनोविज्ञान के द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी बनाया जाता है और उन्हें व्यवहार की भाषा प्रदान की जाती है।
● शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को और अधिक जीवंत, वैज्ञानिक व अनुकूल बनाने का श्रेय शिक्षा मनोविज्ञान को जाता है।
● शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के पदों (उद्देश्य, तैयारी, संचार, प्राप्ति व आत्मसात) को समझने के लिए शिक्षा मनोविज्ञान का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
● कक्षा-कक्ष की अन्त:क्रिया (फ्लैंडर की अन्त:क्रिया प्रणाली) के द्वारा कक्षा-कक्ष के शिक्षण को प्रभावी बनाकर बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा मनोविज्ञान ही उत्तरदायी है।
● शिक्षण एक कार्य परक शब्द है और अधिगम उपलब्धि सूचक। इन्हें व्यवहार प्रदान करने का कार्य शिक्षा मनोविज्ञान का है।
● ई.सी. मूअर :- शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में एक जीव द्वारा दूसरे जीव को ज्ञान अन्तरित किया जाता है।
● मूअर ने शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को 5 महत्त्वपूर्ण पदों में बताया है-
उद्देश्य, तैयारी, संचार, प्राप्ति, आत्मसात।
● शिक्षण अधिगम में कार्य विश्लेषण का प्रत्यय ‘रायल’ ने दिया।
● शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में केंद्र बिंदु – छात्र।
● शिक्षण कौशल – शिक्षक व्यवहार।
● शिक्षण व्यूह रचना (Teaching Strategies) : शिक्षक द्वारा की गई ऐसी कौशलपूर्ण व्यवस्था, जो विद्यार्थियों में उद्देश्यों के अनुसार व्यवहार परिवर्तन लाने के लिए की जाती है।
● स्ट्रेसर (Strasser) के अनुसार – “शिक्षण व्यूह रचनाएँ वे योजनाएँ होती हैं जिसमें शिक्षण के उद्देश्यों, विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन, पाठ्यक्रम, पाठ्यवस्तु, कार्यविश्लेषण, अधिगम अनुभव तथा छात्रों की पृष्ठभूमि आदि को विशेष महत्ता दी जाती है।”
● शिक्षण विधियाँ (Teaching methods) : यह शिक्षक के व्यवहार को प्रभावित करती है तथा उद्देश्यों से संबंधित होती है। यह निर्धारित करती है कि शिक्षक किसी परिस्थिति विशेष में कैसा व्यवहार करता है तथा कक्षा-कक्ष में होने वाली अन्त:प्रक्रिया इसमें आती है।
● शिक्षण युक्ति से अभिप्राय: है कि प्रयुक्त शिक्षण विधि में आप व्याख्या, दृष्टान्त आदि युक्तियों में से किस युक्ति जैसे प्रश्नोत्तर, व्याख्या, दृष्टांत आदि प्रयोग कर रहे हैं।
● उक्त तीनों में शिक्षण व्यूह रचना व्यापक होती हैं तथा शिक्षण युक्तियाँ व शिक्षण विधियाँ, व्यूह रचना में समाहित रहती है। अत: उक्त तीनों पृथक-पृथक हैं। कुछ शिक्षण विधियों को शिक्षण नीतियाँ भी कहा जाता है, लेकिन जब ऐसा किया जाता है तो उनका उद्देश्य परिवर्तित हो जाता है, जैसे व्याख्यान नीति, प्रायोजना नीति आदि।
● शिक्षण कार्य कला तथा विज्ञान दोनों हैं।
● वर्तमान में शिक्षण के लिए मुख्यत: उद्देश्यों, विषयवस्तु तथा शिक्षक-विद्यार्थी संबंधों को ध्यान में रखते हुए अनेक शिक्षण विधियाँ व सहायक सामग्री उपलब्ध है जिन्हें शिक्षक प्रशिक्षण द्वारा प्रभावी रूप से प्रयोग में लाया सकता है तथा शिक्षण-प्रक्रियाँ को प्रभावी बना सकता है।
● वर्तमान में बालकेन्द्रित शिक्षा को ध्यान में रखते हुए एक शिक्षक को किसी भी शिक्षण विधि का चयन करते समय निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए–
1. शिक्षण विधि, शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होनी चाहिए।
2. शिक्षण विधि विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उत्पन्न करने वाली तथा वैज्ञानिक विधि कार्य करने का प्रशिक्षण देने वाली हो।
3. शिक्षण विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का पालन करने वाली हो अर्थात् विद्यार्थी की योग्यता, स्तर, रुचि तथा आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली हो।
4. शिक्षण विधि सजीव वातावरण बनाने में सहायक अर्थात् प्रजातान्त्रिक विधि हो जो विद्यार्थियों को अन्त:क्रिया के अधिकाधिक अवसर देने वाली व उत्साहवर्धन वाली हो।
5. करके सीखने (Learning by doing) के सिद्धान्त अर्थात् क्रियाशीलता पर आधारित होनी चाहिए।
6. शिक्षण विधि में व्यवहारिकता होनी चाहिए अर्थात् उसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सके।
7. शिक्षण विधि को गतिशील होना चाहिए न कि स्थिर
8. शिक्षण विधि विद्यार्थियों में मानसिक गुणों के साथ शारीरिक, सामाजिक व संवेगात्मक गुणों का विकास करने वाली अर्थात् सर्वांगीण विकास का अवसर देने वाली हो।
9. शिक्षण विधि कम समय खर्च करने वाली तथा प्रभावी हो।
10. शिक्षण सहायक सामग्री के माध्यम से सरल व स्पष्टता लाने वाली हो जिससे शिक्षक व विद्यार्थी दोनों ईमानदारी व आत्मविश्वास से शिक्षण प्रक्रिया में भाग ले तथा यह विद्यार्थियों को रटने से दूर करने वाली हो।
शिक्षण विधियों का वर्गीकरण
● शिक्षण विधियों का सर्वाधिक प्रचलित वर्गीकरण शिक्षक केन्द्रित तथा बालकेन्द्रित शिक्षण विधियाँ है।
शिक्षण व्यूह रचना विधियाँ

A. शिक्षक केन्द्रित विधियाँ (परम्परागत)
● इसमें शिक्षक मुख्य होता है तथा विद्यार्थी गौण।
● इसमें विद्यार्थी केवल निष्क्रिय श्रोता होते हैं तथा शिक्षक सक्रिय रहता है।
● यह वर्णनात्मक प्रकार की होती है। इनमें केवल मौखिक सम्प्रेषण होता है।
● इसके द्वारा शिक्षण में औपचारिकता की मात्रा अधिक होती है।
● इसमें विद्यार्थी के विचार, सृजनात्मकता आदि के लिए कोई स्थान नहीं होता है।
● इसके द्वारा केवल स्मृति स्थल व पुन: स्मरण पर ध्यान देते हुए विद्यार्थियों को ज्ञानात्मक स्तर का ज्ञान दिया जाता है।
1. व्याख्यान विधि – उच्च कक्षाओं में प्रयुक्त की जाने वाली विधि जिसमें शिक्षक विषय विशेष पर व्याख्यान देता है तथा बालक निष्क्रिय होकर सुनता है।
लाभ – बड़े समूह के शिक्षण में उपयोगी
– कम समय में अधिक सूचना देने में उपयोगी
– शिक्षक सदैव सक्रिय रहता है व विषय का तार्किक क्रम बना रहता है।
दोष – छात्र निष्क्रिय रहते हैं।
– अमनोवैज्ञानिक विधि है।
– छोटी कक्षाओं में उपयोगी नहीं
– इससे प्राप्त ज्ञान अस्थायी होता है।
– अरुचिकर विधि तथा प्रयोगात्मक पक्ष की अवहेलना होती है।
2. व्याख्यान व प्रदर्शन विधि – इसमें शिक्षक व छात्र क्रियाशील रहते हैं। शिक्षक सैद्धान्तिक भाग का विवेचन करने के साथ उसका सत्यापन करता है।
लाभ – यह छोटी कक्षाओं में उपयोगी है।
– इसमें बालक देखकर सीखता है जिससे उसमें निरीक्षण, तर्क व विचार शक्ति का विकास होता है।
दोष – इसमें छात्र को स्वयं प्रयोग करने का अवसर नहीं मिलता है।
3. पाठ्यपुस्तक विधि – इसे सुग्गा पद्धति भी कहते हैं।
– शिक्षा में यह सबसे अधिक प्रचलित विधि है।
– लिखने एवं बोलने की अपेक्षा पढ़ने की क्षमता प्रदान करना अधिक सुगम है। इस कारण डॉ. वेस्ट ने इसे सुग्गा पद्धति कहा है।
– इस विधि के प्रयोग से हिन्दी की पाठ्यवस्तु, विभिन्न विधाओं, इतिहास तथा शब्दावली आदि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
– यदि कोई अध्याय कक्षा में पढ़ाया हुआ समझ में नहीं आता है तो विद्यार्थी पाठ्यपुस्तक की सहायता से उसे समझ सकते हैं।
4. कहानी विधि – इसमें कहानी का निर्वाचन करके कहानी को इस प्रकार बालकों के सम्मुख उपस्थित करना चाहिए जिससे अधिक से अधिक बात ग्रहण कर सके। अधिक ग्रहण मौखिक कहानी-कथन द्वारा ही सम्भव है क्योंकि पढ़कर सुनाने से कहानी में नीरसता आ जाती है।
अत: पुस्तक की कहानी को शब्दाश: ग्रहण कर अपने शब्दों में कहना अधिक प्रभावोत्पादन होता है।
B. बालकेन्द्रित विधियाँ –
● इसमें बालक को शिक्षण का केन्द्र माना जाता है।
● इसमें बालक की आवश्यकता, रुचि, स्तर, सृजनात्मकता आदि को ध्यान में रखा जाता है।
● इसमें बालक को सक्रिय रखा जाता है तथा उसे स्वतंत्रतापूर्वक सीखने का अवसर दिया जाता है।
● इसमें शिक्षक की भूमिका अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने वाले तथा मार्गदर्शक की होती है।
● ये समस्त विधियाँ करके सीखने के सिद्धान्त पर आधारित है।
1. डैक्राली प्रणाली – इस विधि के प्रवर्तक डैक्राली थे। इस विधि में पुस्तकों के कम से कम प्रयोग के लिए कहा गया है। यह विधि मानसिक रूप से विकृत बालकों के लिए प्रयोग में ली जाती है। अत: इसमें अभिव्यक्ति के अवसर बहुत ही कम मिलते हैं। इस पद्धति में प्रात:काल के समय भाषा तथा सायंकाल के समय संगीत की शिक्षा एवं खेल आदि करवाए जाते हैं।
2. मॉण्टेसरी प्रणाली – इसकी प्रवर्तक डॉ. मारिया मॉण्टेसरी हैं। इस विधि में इंद्रिय प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है। यह प्राकृतिक वातावरण में शिक्षा के विकास पर बल देती है। मॉण्टेसरी ने बालकों के स्वतंत्र शिक्षण, व्यक्तिगत शिक्षण व ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर बल दिया है। इस विधि में खेल-खेल में बालकों को कर्मेन्द्रियों की शिक्षा दी जाती है।
3. डॉल्टन योजना – इस विधि की प्रवर्तक कुमारी हेलेन पार्कहर्स्ट है। इस विधि को डॉल्टन विधि इसलिए कहा जाता है क्योंकि पार्कहर्स्ट ने अमेरिका के डॉल्टन नामक नगर में सर्वप्रथम इसका प्रयोग किया था। इस विधि को ठेका प्रणाली भी कहा जाता है। इस विधि के अंतर्गत विद्यार्थी स्वतंत्र रूप से विभिन्न विषयों की प्रयोगशालओं में जाकर कार्य करते हैं। प्रत्येक प्रयोगशाला में समय-सारणी बनी हुई होती है तथा सम्पूर्ण पार्ट कई इकाइयों में बँटा होता है। सप्ताह के कार्य को असाइनमेंट या दत्त कार्य कहते हैं। इस विधि में मौखिक भाषा का विकास नहीं हो पाता। छात्र स्वतंत्र रूप से स्वयं शिक्षा ग्रहण करता है। अध्यापक का कार्य केवल मार्गदर्शन देना होता है।
4. विनेटिका योजना – इसके प्रवर्तक कार्लटन वाशबर्न माने जाते हैं। इस विधि में व्यक्तिगत विभन्नता पर बल दिया जाता है तथा सामाजिक विकास भी करवाया जाता है। इस विधि में उच्चारण नहीं करवाया जाता। इस विधि में बालक शिक्षक से अत्यधिक प्रभावित होता है।
5. किण्डर गार्टन पद्धति – इस विधि को फ्रोबेल नामक शिक्षाविद् ने विकसित किया। फ्रोबेल बालकों को पौधे के समान मानते थे। उन्होंने प्रभावी शिक्षण के लिए 20 प्रकार के उपहारों का प्रयोग किया। इस विधि के अन्तर्गत बालकों को स्व-अभिव्यक्ति अथवा आत्मप्रकाशन के अधिकाधिक अवसर प्राप्त होते हैं। जिसके लिए बालकों को खेल द्वारा शिक्षण करवाया जाता है। जिसमें गीत एवं अभिनय आदि का प्रयोग किया जाता है। यह विधि छोटे बालकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है।
6. बेसिक शिक्षा – इस विधि में महात्मा गाँधी के द्वारा बताया गया। इस विधि के अन्तर्गत उन्होंने मातृभाषा को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया तथा बालकों को किसी भी कार्य से परिचित करवाने के लिए उस क्षेत्र से संबंधित शब्दावली का अधिक से अधिक प्रयोग अपने सामान्य बोलचाल की भाषा में किया। जिससे बालक उस विशिष्ट कार्य की शब्दावली से परिचित हो जाता है।