अक्ल बड़ी कि भैंस – शारीरिक बल से बौद्धिक बल अधिक अच्छा होता है। |
अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता – समूह के द्वारा किया जा सकनेवाला कठिन कार्य अकेला व्यक्ति नहीं कर सकता। |
अटका बनिया देय उधार – स्वार्थी और मजबूर व्यक्ति अनचाहा कार्य भी करता है। |
अध जल गगरी छलकत जाए – अल्पज्ञ व्यक्ति अपने ज्ञान के बारे में बहुत डींग हाँकता। – अल्प सामर्थ्य वाला व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के बारे में बहुत डींग हाँकता है। |
अन्धी पीसे कुत्ता खाय – मूर्ख की कमाई दूसरे ही खाते हैं। |
अन्धा क्या चाहे दो आँख – इच्छित वस्तु की प्राप्ति होना |
अन्धों में काना राजा – अज्ञानियों में अल्पज्ञ भी बुद्धिमान माना जाता है |
आँख का अन्धा गाँठ का पूरा – सम्पन्न किन्तु मूर्ख या मूर्ख किन्तु सम्पन्न |
अन्धे के हाथ बटेर लगना – बिना मेहनत के ही उपलब्धि होना |
अन्धेर नगरी चौपट राजा – कुप्रशासन और अजागरूक जनता |
अपना हाथ जगन्नाथ – स्वयं का काम स्वयं द्वारा ही सम्पन्न करना उपयुक्त है। – स्वयं द्वारा किया गया कार्य ही भरोसे मंद होता है। |
अब पछताए क्या होत है जब चिड़ियाँ चुग गई खेत – हानि हो गई, हानि से बचने का अवसर चले जाने के बाद पश्चाताप करने से कोई लाभ नहीं |
आँख बची और माल यारों का – अपने सामान से थोड़ा-सा भी ध्यान हटा कि सामान की चोरी हो सकती है। |
आगे कुआँ पीछे खाई – दोनों और संकट |
आगे नाथ न पीछे पगहा – पूर्णतः अनियंत्रित/अनियंत्रित |
आम के आम गुठलियों के दाम – दुहरा फ़ायदा |
आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास – बड़ा लक्ष्य निर्धारित कर छोटे कार्य में लग जाना |
अक्ल का अंधा – महामूर्ख होना। |
अंधे के आगे रोवे अपने भी नैन खोवे- अपात्र से मदद् माँगने का व्यर्थ परिश्रम। |
अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग- अपनी मनमानी करना और एक-दूसरे के साथ ताल-मेल न रखना। |
अपनी करनी पार उतरनी – अपना कार्य ही फलदायक होता है। |
अपना सोना खोटा तो परखैया का क्या दोष-हम में ही कमजोरी हो तो बताने वालों का क्या दोष |
आगे नाथ न पीछें पगहा- पूर्णत: अनियंत्रित |
आधी छोड़ एक को ध्यावे, आधी मिले न सारी पावे – लोभ में सहज रूप से उपलब्ध वस्तु को भी त्यागना पड़ सकता है। |
इन तिलों में तेल नहीं – किसी भी लाभ की सम्भावना न होना |
ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया – संसार में व्याप्त भिन्नता |
एक अनार सौ बीमार – वस्तु की पूर्ति की तुलना में माँग अधिक |
एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है – एक बदनाम व्यक्ति अपने साथ के सभी लोगों को बदनाम करवा देता है। |
एक म्यान में दो तलवारें नहीं आ सकतीं – एक ही स्थान पर दो समान वर्चस्व के प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह सकते |
ओखली में सिर दिया तो मूसलों से क्या डरें – कठिन काम को हाथ में ले लेने पर आनेवाली बाधाओं से विचलित न होना |
काजी जी दुबले क्यों, शहर का अन्देशा है – दूसरों के कष्ट से चिन्तित रहना |
कानी के ब्याह में कौतुक ही कौतुक – किसी दोष से युक्त होने पर कठिनाइयाँ आती ही रहती हैं। |
खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे – असफलता से लज्जित होकर क्रोध करना |
खोदा पहाड़ और निकली चुहिया – अधिक परिश्रम पर लाभ कम |
घर की मुर्गी दाल बराबर – सहज सुलभ वस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता |
घर का भेदी लंका ढाए – घर का रहस्य जाननेवाला बड़ी हानि पहुँचा सकता है |
चार दिन की चाँदनी फिर अन्धेरी रात – थोड़े समय का सुख, अधिक समय का दुःख |
चोर की दाढ़ी में तिनका – दोषी अपने व्यवहार में ही दोष करने का संकेत दे देता है। |
तबेले की बला बन्दर के सिर – किसी एक पर सबका दोष मँढ़ देना |
तुरन्त दान महा कल्याण – शुभ कार्य करते ही तुरन्त अच्छा फल प्राप्त होना |
थोड़ी पूँजी धणी को खाय – अपर्याप्त पूँजी से व्यापार में घाटा होता है |
न ऊधो का लेना न माधो का देना – किसी से कोई मतलब नहीं होना |
ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया – संसार में व्याप्त भिन्नता |
उल्टे बाँस बरेली को-जहाँ जो चीज उपलब्ध हो/पैदा होती हो, उल्टे वहीं पर वह वस्तु पहुँचाना। |
ककड़ी-चोर को फाँसी की सजा नहीं दी जा सकती – साधारण से अपराध क लिए बड़ा दण्ड उचित नहीं। |
का वर्षा जब कृषि सुखाने – हानि हो चुकने के बाद उपसार करने से कया लाभ। |
कही खेत की, सुनी खलियान की – कुछ-का-कुछ सुनना। |
खरी मजूरी चोखा काम- पारिश्रमिक सही देने पर काम भी अच्छा होता है। |
खुदा गंजे को नाखुन नहीं देता- अनधिकारी एवं दुर्भावी व्यक्ति को अधिकार नहीं मिलता। |
घर का जोगी जोगना आन गाँव का सिद्ध-परिचितों की उपेक्षा दूर के अपरिचितों को (कार्य) अधिक महत्त्व दिया जाता हैं। |
न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी – किसी कार्य को करने के लिए अव्यावहारिक शर्त लगाना |
नाच न जाने आँगन टेढ़ा – अपनी अयोग्यता के लिए साधनों को दोष देना/काम न जानना और बहाना बनाना। |
नौ दिन चले अढ़ाई कोस – बहुत सुस्ती से काम करना |
बद अच्छा बदनाम बुरा – नुकसान उठाना बेहतर है बजाय बदनामी के |
भेड़ की ऊन कोई नहीं छोड़ता – जो कमजोर है उसका हर कोई शोषण कर लेता है |
साझे की हाँड़ी चौराहे पर फूटती है – साझेदारी जब समाप्त होती है तो सबके सामने उजागर होती है। |
साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे – बिना किसी नुकसान के लक्ष्य प्राप्त करना |
हाथ कंगन को आरसी क्या – प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? |
होनहार बिरवान के होत चीकने पात – पूत के पाँव तो पलने में ही दिख जाते हैं। |
अक्ल के घोड़े दौड़ाना – केवल कल्पनाएँ करते रहना |
अगर-मगर करना – बहाना बनाना |
अपने पैरों कुल्हाड़ी मारना – अपना नुकसान स्वयं ही करना |
आँखे खुलना – सजग होना |
आँखें बिछाना – प्रेमपूर्वक स्वागत करना |
आटे-दाल का भाव मालूम होना – जीवन के कठिन यथार्थ का पता लगना |
आकाश के तारे तोड़ना – असंभव-सा कार्य कर देना |
आस्तीन का साँप – धोखेबाज साथी |
एक ही थैली के चट्टे-बट्टे – सभी समान रूप से बुरे व्यक्ति |
घर खीर तो बाहर खीर-घर में संपन्नता और सम्मान है तो बाहर के लोगों से भी यही मिल जाता हैं। |
चंदन की चुटकी भली गाड़ी भरा न काठ- उपयुक्त गुणवाली वस्तु तो थोड़ी-सी भी अच्छी है और गुणरहित वस्तु अधिक मात्रा में भी निरर्थक हैं। |
चोरन कुतिया मिल गई पहरा किसका देय-जब रक्षक ही चोरों से मिल गया तो फिर ऐसे व्यक्ति से रक्षा करवाने का कोई अर्थ नहीं। |
चोर से कहे चोरी कर शाह से कहे जागता रह- दोनों विरोधी पक्षों से संपर्क रखने की चालाकी। |
जस दूल्हा तस बनी बराता-जैसा मुखिया वैसे ही अन्य साथी |
कलेजा मुँह को आना – घबरा जाना |
कान का कच्चा होना – हर किसी के कहने पर भरोसा कर लेना |
कोल्हू का बैल होना – लगातार काम में जुटे रहना |
गड़े मुर्दे उखाड़ना – पिछले विवादास्पद मसलों को फिर से उठाना |
गागर में सागर – कम शब्दों में बहुत अर्थ |
गुड़-गोबर होना – अच्छे-भले कार्य का बरबाद हो जाना |
चिकना घड़ा होना – कुछ भी असर न होना |
चैन की बंशी बजाना – मौज करना |
चोली-दामन का साथ – अत्यन्त निकटता, घनिष्ठ, अत्यंतगहरा संधबध, सदा बना रहने वाला साथ। |
छाती पर मूँग दलना – निरन्तर निकट रहकर किसी को कष्ट देते रहना |
ज़िन्दा मक्खी निगलना – स्पष्ट, साफ दिखता हुआ अन्याय करना |
दर-दर की ठोकरें खाना – बहुत कष्ट उठाना |
दूध का दूध पानी का पानी – सही न्याय करना |
धूप में बाल सफेद न होना – अनुभवी होना |
फूँक-फूँक कर कदम रखना – बहुत ध्यान से कार्य करना |
भैंस के आगे बीन बजाना – मूर्ख व्यक्ति को उपदेश देना निरर्थक होता है |
लकीर का फ़कीर होना – पुरातनपन्थी, जैसा चला आ रहा है वैसे ही चलते रहने देनेवाला |
शेर की सवारी करना – खतरनाक कार्य करना |
समझ पर पत्थर पड़ना – विवेक खो देना |
साँच को आँच नहीं – सच बोलनेवाले को किसी का भय नहीं |
हक्का-बक्का रह जाना – अचम्भे में पड़ जाना |
हाथ खींचना – सहायता करना बन्द कर देना |
होम करते हाथ जलना – भला करते समय भला करनेवाले का बुरा होना |
आँख का अन्धा नाम नयनसुख – गुणों के विपरीत नाम |
अन्धे की लकड़ी – एक मात्र सहारा |
अन्धे के आगे रोवे अपने भी नैन खोवे – अपात्र से सहयोग माँगने का व्यर्थ परिश्रम |
जाकै पैर न फटे बिवाई वह क्या जाने पीर पराई- स्वयं दु:ख भोगे बिना दूसरे की पीड़ा का आभास नहीं हो सकता। |
जो गुड़ खाए सोकान छिदाय- लाभ पाने वाले को ही कष्ट उठाना पड़ता है। |
ढाक के तीन पात – सदैव एक-सी स्थिति। |
तीन में न तेरह में – जिसका कुछ भी महत्त्व न हो। |
तेते पाँव पसारिए लेती लम्बी सौर- अपनी सामर्थ्य के अनुसार व्यय करना। |
दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते- मुफ्त में मिली वस्तु के बारे में क्या पसंद और क्या ना पसंद। |
दाख पके तक काग के होय कंठ में रोग- किसी वस्तु का उपयोग करने की स्थिति आने पर उसका उपयोग कर सकने में असमर्थ हो जाना। |
अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग – अपनी मनमानी करना और एक-दूसरे के साथ तालमेल न रखना |
अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है – अपने क्षेत्र में तो सब जोर बताते है |
अरहर की टट्टी और गुजराती ताला – अनमेल प्रबन्ध व्यवस्था |
आटे के साथ घुन भी पिसता है – दोषी की संगति से निर्दोष भी दण्डित हो जाता है |
आधा तीतर आधा बटेर – अनमेल योग |
आग लगती झोंपड़ा जो निकले सो लाभ – व्यापक विनाश में जो कुछ बचाया जा सकता है वह लाभ ही है |
आसमान से गिरा खजूर में अटका – एक आपत्ति के बाद दूसरी आपत्ति का आ जाना |
इमली के पात पर दण्ड पेलना – सीमित साधनों से बड़ा कार्य करने का प्रयास करना |
ऊँट किस करवट बैठता है – ऐसी घटना की प्रतीक्षा जिसका अनुमान लगाना असंभव है |
ऊँट की चोरी और झूके-झुके – गुप्त न रह सकनेवाले कार्य को गुप्त ढंग से करने का प्रयास करना |
एक पन्थ दो काज – एक प्रयत्न से दो काम हो जाना |
एक तो करेला (गिलोय) और दूसरा नीम चढ़ा – एक साथ दो-दो दोष-प्रतिकूलताएँ |
कर ले सो काम और भजले सो राम – समय पर जो कर लिया जाए वही अपना है। |
कागहि कहा कपूर चुगाए, स्वान न्हवाए गंग – दुर्जन की प्रकृति खूब प्रयत्न करने पर भी नहीं बदलती |
काबुल में क्या गधे नहीं होते – अपवाद तो सभी जगह होते हैं |
कोऊ नृप होइ हमें का हानी – किसी भी परिवर्तन के प्रति उदासीनता |
कौआ चले हंस की चाल – किसी बुरे व्यक्ति द्वारा अच्छे व्यवहार का दिखावा करना |
खग जाने खग ही की भाषा – सब अपने-अपने संपर्क के लोगों का हाल समझते हैं |
खरबूज़े को देखकर खरबूज़ा रंग बदलता है – एक को देखकर दूसरे में परिवर्तन आता है। |
गंगा का आना हुआ और भागीरथ को यश – काम तो होना ही था, यश किसी को मिल गया |
गुड़ खाए मर जाए तो ज़हर देने की क्या ज़रूरत – यदि शान्तिपूर्वक कार्य हो जाए तो कठोर व्यवहार की आवश्यकता नहीं। |
घर आया नाग न पूजिए, बाम्बी पूजन जाय – स्वतः आए सुअवसर का लाभ न उठाकर फिर उसको प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना |
चलती का नाम गाड़ी – जब तक सफलता मिलती रहे तब तक ही यश और प्रभाव रहता है। |
चन्द्रमा को भी ग्रहण लगता है – भले लोगों के भी बुरे दिन आ सकते हैं |
चुपड़ी और दो-दो – अच्छी चीज़ और वह भी बहुतायत में |
चोरी का माल मोरी में – गलत ढंग से कमाया धन यों ही बर्बाद होता है |
छछूंदर के सर में चमेली का तेल – अयोग्य व्यक्ति द्वारा स्तरीय वस्तु का उपयोग |
जिसकी लाठी उसकी भैंस – शक्तिशाली की ही सम्पत्ति है |
ठोकर लगी पहाड़ की, तोड़े घर की सिल – बाहर अपने से बलवान से अपमानित होकर घर के लोगों पर गुस्सा निकालना |
तिनके की ओट में पहाड़ – छोटी चीज़ के पीछे बड़े रहस्य का छिपा होना |
दबी बिल्ली चूहों से भी कान कटवाती है – किसी से दबा हुआ आदमी अपने से कमज़ोर लोगों के भी वश में रहता है |
दाल-भात में मूसलचन्द – अवांछित एवं अनुचित हस्तक्षेप करना |
दीवारों के भी कान होते हैं – गोपनीय बातचीत बहुत सावधानी से करनी चाहिए क्योंकि उसके औरों के ज्ञात हो जाने की संभावना बनी रहती है। |
न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी – किसी समस्या के मूल कारण को ही नष्ट कर देना। |
नौ नक़द न तेरह उधार – यदि लाभ शीघ्र मिल रहा हो तो वह बाद में मिलनेवाले अधिक लाभ की तुलना में अच्छा है। |
फरा सो झरा, बरा सो बुतना – सभी लोग अपने अन्त को प्राप्त हाते हैं / जो फला है सो झड़ेगा जो जला जहै सो बुझेगा। |
बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? – जिसका कष्ट पाना तय है वह अन्ततः विपत्ति में पड़ेगा ही |
बन्दर क्या जाने अदरक का स्वाद – मूर्ख किसी अच्छी वस्तु की कद्र नहीं कर सकता |
मन के लड्डुओं से पेट नहीं भरता – केवल कल्पना कर लेने से तृप्ति नहीं होती |
मेंढ़की को जुकाम – मामूली आदमी द्वारा अपनी क्षमता का काम करने में भी नखरे करना |
सावन हरे न भादों सूखा – हमेशा एक जैसा रहना |
सब धान बाईस पंसरी – अज्ञानी के लिए अच्छी बुरी सब चीज़े एक समान |
हाथी के दाँत दिखाने के और, खाने के और होते है – कथनी और करनी में अन्तर |
Leave a Comment
You must be logged in to post a comment.