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राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF)-2005 || National Curriculum Framework (NCF)

Written by thenotesadda.in

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF)-2005
[National Curriculum Framework (NCF)-

● राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् की कार्यकारिणी ने 14 एवं 19 जुलाई, 2004 की बैठकों में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को संशोधित करने का निर्णय लिया।
● 1993 की ‘शिक्षा बिना बोझ के’ रपट की रोशनी में विद्यालयी शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्ययर्चा की रूपरेखा (एन.सी.एफ.एस.ई.), 2000 की समीक्षा करने की आवश्यकता व्यक्त की। इन्हीं निर्णयों के संदर्भ में प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय संचालन समिति और 21 राष्ट्रीय फोकस समूहों का गठन किया गया।
● मैसूर, अजमेर, भुवनेश्वर, भोपाल और शिलॉन्ग में स्थित परिषद् के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों में भी क्षेत्रीय संगोष्ठियों का आयोजन किया गया।
● संशोधित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज का आरंभ रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध ‘सभ्यता और प्रगति’ के एक उद्धरण से होता है जिसमें कविगुरु हमें याद दिलाते हैं कि सृजनात्मकता और उदार आनंद बचपन की कुंजी है और नासमझ वयस्क संसार द्वारा उनकी विकृति का खतरा है।
● राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एन.पी.ई.), 1986 में यह प्रस्तावित किया गया था कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को शिक्षा की राष्ट्रीय व्यवस्था विकसित करने का एक साधन होना चाहिए जो भारतीय संविधान में राष्ट्रीय निर्माण के दर्शन को अपनी आधार भूमि माने। कार्ययोजना (पी.ओ.ए.) 1992 ने प्रासंगिकता, लचीलेपन और गुणवत्ता के तत्त्वों पर जोर देते हुए इसके दायरे को थोड़ा और विस्तृत किया।
● राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 में कुल 5 अध्याय है जो निम्न प्रकार है–
1. परिप्रेक्ष्य
2. सीखना और ज्ञान
3. पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएँ और आकलन
4. विद्यालय एवं कक्षा का वातावरण
5. व्यवस्थागत सुधार

● पाठ्यचर्या निर्माण के 5 सिद्धांत :-
1. ज्ञान को स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
2. पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो यह सुनिश्चित करना।
3. पाठ्यचर्या का इस तरह संवर्धन कि वह बच्चों को (बहुँमुखी) विकास के अवसर मुहैया करवाए बजाए इसके कि पाठ्यपुस्तक-केंद्रित बन कर रह जाए।
4. परीक्षा को अपेक्षाकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना।
5. एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिसमें प्रजातांत्रिक राज्य-व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएँ समाहित हों।

● इस दस्तावेज में शिक्षा के कुछ व्यापक उद्देश्य चिह्नित किए गए हैं जो निम्न प्रकार है–
1. विचार व कर्म की स्वतंत्रता।
2. दूसरों की भलाई और भावनाओं के प्रति संवेदनशीलता।
3. नयी स्थितियों का लचीलेपन और रचनात्मक तरीके से सामना करना।
4. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी की प्रवृत्ति और आर्थिक प्रक्रियाओं तथा सामाजिक बदलाव में योगदान देने के लिए काम करने की क्षमता।
● शिक्षण का उद्देश्य बच्चे के सीखने की सहज इच्छा और युक्तियों को समृद्ध करना होना चाहिए।
● स्कूली पाठ्यचर्या के 4 सुपरिचित क्षेत्रों- भाषा, गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों का सुझाव दिया गया है।
● यह राष्ट्रीय पाठ्यचर्या दस्तावेज इस बात की सिफारिश करता है कि विषयों के बीच की दीवारें नीची कर दी जाएं ताकि बच्चों को ज्ञान का समग्र आनंद मिल सके और किसी चीज को समझने से मिलने वाली खुशी हासिल हो सके।
● भाषा में त्रिभाषा फार्मूले को लागू करने के फिर से प्रयास का सुझाव दिया गया है, जिसमें आदिवासी भाषाओं सहित बच्चों की मातृभाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति देने पर जोर है।
● पढ़ना, लिखना, बोलना और सुनना – ये क्रियाएँ पाठ्यचर्या के सभी क्षेत्रों में बच्चों की प्रगति में भूमिका निभाती है और इन्हें पाठ्यचर्या की योजना का आधार होना चाहिए। आरंभिक कक्षाओं के पूरे दौर में पढ़ने पर जोर देना जरूरी है जिससे हर बच्चे को स्कूली शिक्षा का ठोस आधार मिल सके।
● पाठ्यचर्या का यह दस्तावेज 4 पाठ्यचर्या क्षेत्रों की तरफ ध्यान आकर्षित करता है, जो इस प्रकार है: काम कला और पारंपरिक दस्तकारियाँ, स्वास्थ्य तथा शारीरिक शिक्षा एवं शांति।
● चट्‌टोपाध्याय कमीशन (1984) द्वारा सुझाए गए पेशेवर मानकों में ढीलापन लाने की हाल की प्रवृत्ति को रोकने के लिए शिक्षक-प्रशिक्षण में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है।
● पाठ्यचर्या को नवीकृत करने के लिए सबसे जरूरी व्यवस्थागत कदम होगा परीक्षाओं में सुधार जिससे खासकर दसवीं और बारहवीं कक्षा में बच्चों और उनके माता-पिता पर बढ़ते मनोवैज्ञानिक दबाव की गहराती समस्याओं का कोई समाधान निकाला जा सके। इसके लिए जो विशेष कदम उठाने जरूरी हैं वे हैं प्रश्न पत्र के स्वरूप का पूरा परिवर्तन, जिससे तर्कशक्ति और रचनात्मक क्षमताओं को आकलन का आधार बनाया जाए न कि रटने की क्षमता को।

राष्ट्रीय संचालन समिति/नेशनल स्टेयरिंग कमेटी के सदस्य (35+3)
1. अध्यक्ष – प्रो. यशपाल (उत्तर प्रदेश)
2. सदस्य सचिव – प्रो. एम. ए. खादर
3. राजस्थान से सदस्य – रोहित धनकड़ (जगतपुरा, जयपुर)
4. जम्मू-कश्मीर से सदस्य – डॉ. बी.ए. डाबला।
5. महिला सदस्य – 13

पाठ्यचर्या समूह (N.C.E.R.T.) के सदस्य
1. डॉ. रंजना अरोड़ा, 2. डॉ. अमरेंद्र बेहरा, 3. श्री आर. मेघनाथन

● यशपाल समिति

  • गठन – 1992
  • सदस्यों की संख्या – 1 + 7 = 8
  • अध्यक्ष – डॉ. यशपाल।
  • 15 जुलाई, 1993 को रिपोर्ट प्रस्तुत की।
  • यशपाल समिति को “राष्ट्रीय सलाहकार समिति” भी कहा जाता है।
  • ज्ञान विस्फोट की अवधारणा को “यशपाल समिति” के साथ जोड़ा जाता है।
  • यशपाल समिति का आदर्श वाक्य – शिक्षा बिना बोझ के।

नोट – यशपाल समिति ने ‘चकमच’ पत्रिका के सितम्बर, 1994 के अंक में अपना शीर्षक प्रकाशित किया।

● पश्चावलोकन :- महात्मा गाँधी ने शिक्षा को एक ऐसे माध्यम के रूप में देखा था, जो सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त अन्याय, हिंसा व असमानता के प्रति राष्ट्र की अंतरात्मा को जगा सके। ‘नई तालीम’ ने आत्मनिर्भरता व व्यक्ति व आत्म-सम्मान पर जोर दिया था जो ऐसे सामाजिक संबंधों का आधार बने जिनकी खासियत हो समाज के भीतर व बाहर अहिंसा।
● प्रो. यशपाल की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट, जिसका शीर्षक था ‘लर्निंग विदाउट बर्डन’ (शिक्षा बिना बोझ के), 1993, ने इस पहलू को स्पष्ट व सुसंगत रूप से रखा।
● पाठ्यचर्या के सिद्धांतों – ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’, ‘मूर्त से अमूर्त की ओर’ और ‘स्थानीय से वैश्विक की ओर’ को बल मिलेगा।
● गुणवत्ता के आयाम शीर्षक :- जब व्यवस्था प्रत्येक बच्चे तक पहुँचने का प्रयास करती है तो गुणवत्ता का मुद्दा नई तरह की चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। श्री जे.पी. नायक ने समानता, गुणवत्ता व परिमाण को भारतीय शिक्षा का ‘दुर्ग्राह्य त्रिकोण’ बताया था।
● सीखने के लिए सीखना, जो सीखा है उसे छोड़ने की और दुबारा सीखने की तत्परता, नई परिस्थितियों के प्रति लचीले व रचनात्मक तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त करने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया पर जोर डालने की आवश्यकता है।
● बाल-केंद्रित शिक्षा-शास्त्र का अर्थ है बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी संक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना।
● सभी बच्चों का स्वस्थ शारीरिक विकास सभी प्रकार के विकास की पहली शर्त है।
● संज्ञान का अर्थ है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना।
● ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।
● किशोरावस्था अस्मिता के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समय है।
● रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में, सीखना ज्ञान के निर्माण की एक प्रक्रिया है।
● चतुर अनुमान को एक कारगर शिक्षा शास्त्रीय साधन के रूप में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
● अंत:क्रिया का मूल्य :- सीखने की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है आसपास के वातावरण, प्रकृति, चीजों व लोगों से कार्य व भाषा दोनों के माध्यम से अंत:क्रिया करना।
● “क्रोटन का पौधा जिसकी एक भी पत्ती हरी नहीं होती, सारी ही पत्तियाँ रंगीन होती हैं, वह अपना भोजन कैसे बनाता है?” जब स्कूल के अंदर आसपास का जीवंत संसार चिंतन के लिए उपलब्ध होगा तभी शिक्षार्थी पर्यावरण के मुद्दों के प्रति सजग होंगे और उनके प्रति अपनी रुचि को पोषित कर पाएंगे। इसलिए स्थानीय चीजें एक स्वाभाविक अधिगम का स्रोत हैं, जिन्हें कक्षा में कार्य संपादन के निर्णय लेते समय प्रधानता देनी चाहिए।
● बच्चों में भाषा की जन्मजात क्षमता होती है। बहुभाषिकता, जो बच्चे की अस्मिता का निर्माण करती है और जो भारत के भाषा-परिदृश्य का विशिष्ट लक्षण है।
● गलतियाँ अधिगम का हिस्सा होती है और बच्चे जब इस लायक हो जाएं तो वे स्वयं उसमें सुधार कर लेते हैं।
● किसी विषय को सीखने का मतलब है उसकी अवधारणाओं को सीखना, उसकी शब्दावली को सीखना, उनके बारे में आलोचनात्मक ढंग से चर्चा करना और उनके बारे में लिख सकना।
● गणित की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चे की गणितीकरण की क्षमताओं का विकास करना है। अध्यापक कक्षा में प्रत्येक बच्चे के साथ इस विश्वास के आधार पर काम करे कि प्रत्येक बच्चा गणित सीख सकता है।
● अच्छी विज्ञान शिक्षा बच्चे, जीवन व विज्ञान के प्रति ईमानदार होती है। यह सरल निष्कर्ष विज्ञान पाठ्यचर्या के निम्नलिखित वैध मानकों की और इंगित करता है-
(1) संज्ञानात्मक वैधता (2) प्रक्रिया की वैधता
(3) ऐतिहासिक वैधता (4) पर्यावरण संबंधी वैधता
(5) नैतिक वैधता

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1. संज्ञानात्मक वैधता के लिए आवश्यक है कि पाठ्यचर्या की विषयवस्तुप्रक्रियाभाषा व शिक्षा-शास्त्रीय अभ्यास आयु के अनुरूप हों और बच्चे की संज्ञानात्मक पहुँच के भीतर आएँ।
संज्ञानात्मक वैधता के लिए आवश्यक है कि पाठ्यचर्या बच्चों तक महत्त्वपूर्ण व वैज्ञानिक विषयवस्तु पहुँचाए। बच्चों के संज्ञानात्मक स्तर तक पहुँचने के लिए अंतर्वस्तु को सरल तो किया जाए लेकिन उसे इतना हल्का नहीं बनाया जाए कि मूल जानकारी या तो गलत या निरर्थक हो जाए।

2. प्रक्रिया की वैधता के अंतर्गत आवश्यकता है कि पाठ्यचर्या विद्यार्थी को उन प्रणालियों व प्रक्रियाओं को अर्जित करने में व्यस्त रखे जो उसे वैज्ञानिक जानकारी के पुष्टिकरण व सृजन करने की ओर बढ़ाएँ तथा विज्ञान में बच्चे की स्वाभाविक जिज्ञासा एवं सृजनशीलता का पोषण हो सके। प्रक्रिया की वैधता एक बेहद महत्त्वपूर्ण कसौटी है क्योंकि इससे विद्यार्थी को विज्ञान किस तरह सीखा जाए‘ यह सीखने में सहायता मिलती है।

3. ऐतिहासिक वैधता में आवश्यकता है कि विज्ञान की पाठ्यचर्या एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण के साथ जानकारी दे ताकि विद्यार्थी यह समझ सकें कि समय के साथ-साथ विज्ञान की अवधारणाएँ कैसे विकसित हुईं। इससे विद्यार्थी को यह समझने में भी मदद मिलेगी कि विज्ञान एक सामाजिक उद्दाम है और सामाजिक घटक किस प्रकार विज्ञान के विकास को प्रभावित करते हैं।

4. पर्यावरण संबंधी वैधता के लिए आवश्यक है कि विज्ञान को विद्यार्थियों के स्थानीय व वैश्विक दोनों के वृहद पर्यावरण के संदर्भ में रखा जाए ताकि वह विज्ञानतकनीक व समाज के पारस्परिक संवाद के क्रम में मुद्दों को समझ सके और उन्हें कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने के लिए आवश्यक ज्ञान व कौशल दे सके।

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5. नैतिक वैधता के लिए जरूरी है कि पाठ्यचर्या ईमानदारीवस्तुपरकतासहयोगभय व पूर्वाग्रह से आजादी जैसे मूल्यों को प्रोत्साहित करे और विद्यार्थी में पर्यावरण व जीवन के संरक्षण के प्रति चेतना को विकसित करे।
● सामाजिक विज्ञान की विषयवस्तु का लक्ष्य जानी-पहचानी सामाजिक सच्चाई की समीक्षात्मक जाँच तथा उस पर प्रश्न करते हुए विद्यार्थियों में आलोचनात्मक जागरूकता का संवर्धन होना चाहिए।
● अगर अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान को उसकी विविधता और समृद्धता सहित बचाए रखना है तो औपचारिक शिक्षा में कला शिक्षा को तत्काल समेकित करना होगा।

● शांति गतिविधियों के लिए सुझाव :-
(i) स्कूल में विशेष क्लबों और रीडिंग रूम की स्थापना की जाए जो शांति संबंधी समाचारों पर और ऐसी घटनाओं पर केन्द्रित हो जो सामाजिक न्याय और समानता के विरुद्ध हो।
(ii) ऐसी फिल्मों की सूची तैयार की जाए जो न्याय और शांति के मूल्यों को बढ़ावा देती हो। उन्हें समय-समय पर स्कूल में दिखाया जाए।
(iii) शिक्षा में शांति के प्रयास में मीडिया को सहयोगी बनाया जाए। प्रमुख पत्रकारों को बच्चों को संबोधित करने के लिए बुलाया जाए। बच्चों के विचार कम से कम महीने में एक बार छपे।
(iv) स्कूल में धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के उत्सवों का आयोजन किया जाए।
(v) ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जाए जिससे महिलाओं के प्रति सम्मान और उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो।
● आकलन का प्रायोजन निश्चय ही सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं एवं सामग्री का सुधार करना है।
● सतत व समावेशी मूल्यांकन को ही एक सार्थक मूल्यांकन माना गया है।
● मूल्यांकन का यह प्रायोजन नहीं है –
(i) बच्चों को डर के दबाव में अध्ययन के लिए प्रेरित करना।
(ii) बच्चों को नाम देना जैसे ‘धीमी गति से सीखने वाला’, ‘होशियार’, ‘समस्यात्मक विद्यार्थी’। ऐसे विभाजन अधिगम की सारी जिम्मेदारी विद्यार्थी पर डाल देते हैं और शिक्षाशास्त्र की भूमिका पर से ध्यान हटा देते हैं।
(iii) उन बच्चों को पहचानना जिन्हें उपचारात्मक शिक्षण की आवश्यकता है (इसमें औपचारिक आकलन की प्रतीक्षा किए बिना शिक्षक, शिक्षण के दौरान ही शिक्षाशास्त्रीय योजना और व्यक्तिगत ध्यान देकर यह कर सकता है।)
(iv) अधिगम की कठिनाइयों और समस्या क्षेत्रों की पहचान करना- अवधारणात्मक कठिनाइयों के व्यापक सूचक मूल्यांकन और परीक्षा से पता किए जा सकते हैं। निदान के लिए परीक्षा के विशेष औजारों की और प्रशिक्षण की जरूरत होती है। यह जरूरत साक्षरता और संख्यनन के आधारभूत क्षेत्रों के लिए है न कि विषयों के लिए।
● समावेशी शिक्षा का मतलब सबको समाविष्ट करने से है।
● विकलांगता एक सामाजिक जिम्मेदारी है – इसे स्वीकार करना चाहिए।
● बच्चे फेल नहीं होते हैं, वे केवल स्कूल की असफलता दर्शाते हैं।
● माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) की रपट ने पाठ्यपुस्तकों की कमियों को दूर करने से संबंधी कई सुझाव दिए थे। उसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि “किसी विषय के अध्ययन के लिए केवल एक पाठ्यपुस्तक का प्रावधान नहीं होना चाहिए, बल्कि दिए गए मानकों के अनुसार कई पुस्तके प्रस्तावित होनी चाहिए, और विकल्प चुनने की छूट स्कूल को मिलनी चाहिए।”
● अनुशासन और सहभागी प्रबंधन :- कक्षा में चुप्पी बनाए रखने से संबंधित जो नियम होते हैं जैसे- एक बार में एक ही बच्चा बोले या तभी बोलो जब सही उत्तर पता हो, इस तरह के नियम समानता और बराबर अवसर देने के मूल्यों को कमजोर बनाते हैं और उन्हें क्षति पहुँचाते हैं। ऐसे नियम उन प्रक्रियाओं को भी हतोत्साहित करते हैं जो बच्चों की सीखने की प्रक्रिया में अंतर्निहित होती है और सहपाठियों में समुदाय की भावना को विकसित होने से भी रोकते हैं। हालाँकि इन नियमों से शिक्षकों के लिए कक्षा व्यवहार की नजर से आसान हो जाती है।

● पूरकता का सिद्धांत :- पूरकता पंचायती राज का आधार है। पूरकता के सिद्धांत के अनुसार, “जो काम जिस स्तर पर संभव है उसे उसी स्तर पर किया जाना चाहिए न कि उससे उच्च स्तर पर।”

● भारत बाल अधिकारों के समझौते का हस्ताक्षरकर्ता है। इस समझौते के तीन प्रमुख सिद्धान्त है–
(i) भागीदारी का अधिकार
(ii) सम्मेलन या संगठन का अधिकार
(iii) सूचना का अधिकार

● किसी भी परिस्थिति में बोर्ड या राज्य स्तरीय परीक्षाएँ अन्य स्तरों पर आयोजित नहीं की जानी चाहिए, जैसे कक्षा पाँच आठ या ग्यारहवीं के स्तर पर। वास्तव में बोर्ड को दूरगामी कदम के तौर पर इस दिशा में सोचना चाहिए कि कक्षा दस की परीक्षा को वैकल्पिक बना दिया जाए।
● कक्षा-आकार एक महत्त्वपूर्ण कारक है जो शिक्षक के पाठ्यचर्या संपादन की प्रक्रिया में विधियों और अभ्यासों के चुनाव को प्रभावित करता है।
राष्ट्रीय तथा अंतराष्ट्रीय अनुभवों ने दर्शाया है कि 1 : 30 से अधिक का अनुपात विद्यालीय शिक्षा की किसी भी अवस्था के लिए वांछित नहीं है।
1966 में कोठारी कमीशन की रपट में चेतावनी दी गई थी कि बड़ी कक्षाएँ ‘शिक्षण स्तर में गिरावट के लिए उत्तरदायी है।‘ भीड़-भाड़ वाली कक्षाओं में सृजनशील अध्यापन की बात करना निरर्थक है।

● काम केंद्रित शिक्षा का निहितार्थ है कि बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक-संसाधनों तथा जीविका से संबंधित ज्ञान-आधारों, सामाजिक अंतर्दृष्टियों तथा कौशलों को विद्यालयी व्यवस्था में उनकी गरिमा और मजबूती के स्रोतों में बदला जा सकता है।

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