Indian Polity

राष्ट्रीय एकीकरण

राष्ट्रीय एकीकरण

–     राष्ट्रीय एकीकरण राष्ट्र के अस्तित्व का आधार है। राष्ट्रीय एकीकारण क्या है, इसे समझने के लिए राष्ट्र क्या है, यह समझना आवश्यक है। राष्ट्र, राज्य का पर्यायवाची नहीं है। राष्ट्र एक निश्चित जाति भी नहीं है। मौटे तौर पर राष्ट्र किसी निश्चित भू-भाग में निवास करने वाले, भौगोलिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इकाई के निवासियों की अनुभूतियों से युक्त सामूहिक चेतना का नाम है। इस रूप में राष्ट्र एक भावात्मक इकाई है और राष्ट्रीय एकीकरण उसके अस्तित्व की महत्वपूर्ण शर्त (स्थिति) है।

राष्ट्रीय एकीकरण क्या है?

–     राष्ट्रीय एकीकरण का अभिप्राय है राष्ट्र में रहने वाले निवासियों के बीच जाति, पंथ, क्षेत्र और भाषा का भेदभाव किए बिना उनमें परस्पर समान अनुभूतियों और सुख-दुख की एकता की भावना का होना। राष्ट्रीय एकीकरण मूलतः राष्ट्र में भावात्मक एकीकरण है। राष्ट्र के निवासियों के मन में व्याप्त एकता की भावना राष्ट्रीय एकीकरण का आधार है। राष्ट्रीय एकीकरण नागरिकों के विचार, व्यवहार और संकल्प से उत्पन्न होता है। एक नागरिक के नाते प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह उन शक्तियों और विचारों का विरोध करे और उसका सामना करे जो राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को कमजोर करती हैं तथा ऐसे कार्य करे जिससे राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीय एकीकरण मजबूत होता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

–     प्राचीन भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या कभी नहीं रही। समय-समय पर कुछ लोग और जातीय समुदाय बाहर से अवश्य भारत आते रहे हैं तथा अधिकांश लोगों ने वापस न जाकर भारत को ही अपना घर बना लिया, वे भारतीय संस्कृति और समाज के अंग बन गए हैं। वे यहाँ घुल-मिल गए। उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज, उपासना पद्धति और जीवन शैली भारतीय समाज में धीमे-धीमे समा गई। इस प्रक्रिया से यहाँ का समाज और संस्कृति और भी समृद्ध हुई। जब हम भारतीय संस्कृति की बात करते हैं तब उसका अर्थ किसी एक पंथ अथवा किसी समुदाय विशेष की संस्कृति नहीं अपितु समूचे भारत वर्ष की संस्कृति से है।

प्राचीन समय में राष्ट्रीय एकीकरण को मजबूत करने की दृष्टि से अनेक कार्य सहज ही किए जाते रहे। इनमें सबसे बड़ा कार्य था भारतीयों में भ्रमण करने की प्रवृत्ति को विकसित करना। प्राचीन समय से ही देश के एक स्थान से लोग दूसरे स्थानों पर श्रद्धा, भक्ति से आते जाते रहे हैं। इसमें चारों धामों बद्रीविशाल, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम् और द्वारिका की यात्रा का काफी योगदान है। इसी प्रकार प्रति तीसरे वर्ष क्रमशः चार अलग-अलग स्थानों में लगने वाले महाकुंभ में आम जनता का पहुँचना भी राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक रहा है। इन व्यवस्थाओं ने सभी भारतीयों के मन में एकता की भावना को विकसित किया।

राष्ट्रीय एकीकरण का स्वरूप

–     राष्ट्रीय एकीकरण का स्वरूप दो प्रकार का होता है। एक स्वरूप वह है जो एकरूपता पर आधारित है। अर्थात् भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, पंथ उपासना पद्धति। राष्ट्रीय एकीकरण का दूसरा स्वरूप है, ऊपरी तौर से दिखने वाली बहुरूपता के बावजूद आन्तरिक रूप से एकता का होना। अर्थात् राष्ट्र में रहने वाले लोगों की भाषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, पंथ आदि अलग-अलग हो सकते हैं, तथापि सभी का राष्ट्रीय हितों के सम्बन्ध में समान दृष्टिकोण और सोच है। राष्ट्रीय मुद्दों पर जैसे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, संप्रुभता के संबंध में सभी की अनुभूति और सोच समान है।

–     भारत के संदर्भ में यदि राष्ट्रीय एकीकरण की बात करें तो यहाँ दूसरे प्रकार का राष्ट्रीय एकीकरण देखने को मिलता है। भारत एक विशाल देश है, जो आकार में रूस को छोड़कर लगभग यूरोप के बराबर है। जनसंख्या की दृष्टि से इसका विश्व में दूसरा स्थान है। यहाँ 250 से अधिक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। 22 भाषाओं को संविधान में राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में अधिसूचित किया गया है। पंथ और उपासना पद्धति की दृष्टि से भारत में विश्व के लगभग सभी पंथ और उपासना पद्धतियाँ पाई जाती हैं। यहाँ हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिक्ख और कई धर्म के मानने वाले रहते हैं। स्वाभाविक है कि उनमें वेशभूषा, खान-पान रहने के तौर-तरीके और उपासना पद्धतियों का अन्तर है, पर इसके बावजूद सभी में राष्ट्रीय हितों को लेकर एकता है। इसी को “अनेकता में एकता” कहा गया है। राष्ट्रीयता की भावना हमारी एकता को शक्ति प्रदान करती है। इसीलिए भारतवासी कहते हैं

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श्रीनगर हो या गुवाहाटी,

अपना देश, अपनी माटी।

राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक तत्व

–     भारत की एकता एवं अखण्डता को अक्षुण्य बनाए रखने के लिए समय-समय पर अनेक प्रयास हमारे राष्ट्र नायकों ने किए हैं। भारतीय संविधान में ऐसे आदर्शो और सिद्धांतों का समावेश किया जिनसे भारत की एकता शक्तिशाली होती हैं। ये सिद्धांत भारत की एकता और अखंडता के लिए आवश्यक हैं, ये हैं- लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्त्तव्य, एकीकृत न्याय व्यवस्था, पंथ निरपेक्षता, समान राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न और राष्ट्रीय पर्व आदि।

–     भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं। यहाँ जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि सरकार का गठन करते हैं। ये प्रतिनिधि जनता की इच्छा अनुसार कार्य करते हैं, क्योंकि जनता ही इन्हें चुनावों में चुनकर भेजती है।

1. समान मौलिक अधिकार – भारतीय संविधान में 6 मौलिक अधिकारों का प्रावधान है। ये मूल अधिकार भारतीय नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से प्राप्त हैं। नागरिकों के कल्याण एवं सर्वांगीण विकास हेतु मूल अधिकार महत्वपूर्ण हैं । नागरिकों को विकास के अवसर प्रदान करने लिए मौलिक अधिकारों में समानता, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय आदि का प्रावधान है। इन संवैधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत समाज के कमजोर वर्गों अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों को संरक्षण प्राप्त है। प्रत्येक समुदाय को अपने धर्म एवं भाषा आदि की स्वतंत्रता प्राप्त है। नीति निर्देशक सिद्धांत भी निर्धनों, शोषितों और समाज के कमजोर वर्गों के हितों की पूर्ति के उपाय करने के लिए सरकार का मार्ग-निर्देशन करते हैं।

2. समान मौलिक कर्तव्य – मौलिक कर्त्तव्यों का भी भारतीय संविधान में उल्लेख है। भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह संविधान और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। सभी नागरिकों को भारत की एकता और अखण्डता हेतु राष्ट्र की सेवा को सदैव तत्पर रहना चाहिए तथा बंधुत्व की भावना का निर्माण और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करें। भारत में लोकतंत्र और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का है। भारत में संघ अथवा केन्द्र और राज्यों के कानूनों को लागू करने के लिए इकहरी न्याय व्यवस्था है। भारत की न्यायपालिका का स्वरूप एकीकृत है और उसका गठन एक पिरामिड़ के रूप में होता हैं।

3. पंथनिरपेक्ष – हमारे संविधान ने भारत को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया है। प्रत्येक धर्म के अनुयायी को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है। सरकार किसी धर्म के प्रति भेदभाव नहीं करेगी।

4. समान प्रतीक चिह्न – भारत के संविधान में राष्ट्रीय प्रतीक चिह्नों को भी अपनाया गया है, जो समस्त नागरिकों को आदर्श एवं निष्ठा के लिए प्रेरित करते हैं। जैसे राष्ट्रीय ध्वज-तिरंगा, राष्ट्रगान जनगणमन, राष्ट्रीय गीत-वन्देमातरम्, राष्ट्रीय चिह्न-अशोक चिह्न आदि। राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न राष्ट्रीय भावना को बल प्रदान करते है और एकता की स्थापना करते है, जो राष्ट्रीय एकीकरण में सहायक है।

भारत में विभिन्न सम्प्रदाय, जाति और भाषा के लोग हैं, जिनके अपने रीति-रिवाज और त्यौहार हैं। किन्तु हमारे तीन राष्ट्रीय पर्व भी हैं। ये हैं-स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गाँधी जयंती। इन्हें

सभी भारतवासी उल्लासपूर्वक मनाते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता की भावना प्रबल होती है।

5. पर्यटन और राष्ट्रीय एकीकरण – प्रारम्भ से ही पर्यटन राष्ट्रीय एकीकरण का प्रमुख सहायक तत्व रहा है। इतने विशाल देश को समझने में और सभी में एकता का भाव जागृत करने में पर्यटन सहयोगी होता है। पर्यटन से हम एक-दूसरे के निकट आते हैं। एक-दूसरे की विशेषताओं और समस्याओं को समझते हैं, जिसके कारण समान भाव, विचार और दृष्टिकोण विकसित होता है। पर्यटन देश की संस्कृति को, आर्थिक और औद्योगिक विकास को तथा विकास के नए आयामों को समझने में सहायक होता है।

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हमारा देश फूलों की एक माला के समान है। इस माला में अनेक रंग और महक वाले फूल एक धागे में पिरोये गये हैं। इसका सरल अर्थ है कि हम एक सूत्र में बंधकर इस राष्ट्र में मिल-जुलकर आपसी सौहार्द्र एवं प्रेम के साथ रहते हैं। हमारी राष्ट्रीयता की भावना इसे एक समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र का स्वरूप प्रदान करती है।

राष्ट्रीय एकीकरण में बाधक तत्व

–     पहले बताया जा चुका है कि प्राचीन भारत में राष्ट्रीय एकीकरण की कोई समस्या नहीं थी, पूरा देश एकता के सूत्र में बंधा था। देश में अलगाव की प्रवृत्ति को विकसित करने की दिशा में सोचा समझा पहला कदम उन्नीसवीं सदी में उस समय उठाया गया जब यहाँ प्रजाति सिद्धान्त (रेस-थियरी) प्रचारित किया जाने लगा और उसके आधार पर भारत में रहने वालों को अलग-अलग करने के प्रयत्न किए गए। हालाँकि अब इन बातों का प्रभाव कम होने लगा है, तथापि वर्तमान समय में राष्ट्रीय एकीकरण में बाधा पहुँचाने वाले कई तत्व विद्यमान हैं। हमारे समाज में व्यक्तिगत हित के लिए कुछ लोग इन्हें बढ़ावा देते हैं। कभी-कभी लोग अपने धर्म, अपनी जाति, भाषा अथवा क्षेत्र के मामलों में अधिक भावुक हो जाते हैं। इससे समाज में तनाव अथवा संघर्ष की स्थिति बन जाती है। यह स्थिति देश की एकता को कमजोर कर अखंडता के लिए खतरा पैदा करती हैं। राष्ट्रीय एकीकरण के बाधक तत्व इस प्रकार हैं

1. साम्प्रदायिकता

–     साम्प्रदायिकता शब्द सम्प्रदाय से बना है। साम्प्रदायिकता का अर्थ है, ऐसी भावनाएं व क्रियाकलाप जो अपने सम्प्रदाय और उसकी विशेषताओं को तो श्रेष्ठ समझे तथा दूसरे के सम्प्रदाय और विश्वासों को हीन समझे। ऐसा दृष्टिकोण अपने धर्म अथवा सम्प्रदाय के आधार पर किसी समूह विशेष के हितों पर बल देता है और उन हितों को राष्ट्रीय हितों के ऊपर समझता है।

साम्प्रदायिकता हमारे देश की एकता के लिए मुख्य खतरा हैं। हम सभी जानते हैं कि संकीर्ण सांप्रदायिक विचारों के कारण 1947 में साम्प्रदायिक दंगे हुए तथा भारत दो भाग, भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया। लाखों लोग इन दंगों में मारे गए और बेघर हुए। स्वतंत्रता के इतने वर्षों के पश्चात आज भी भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों पर सामाजिक तनाव, साम्प्रदायिक दंगों में भी परिवर्तित हो जाते हैं। यह सब स्वार्थ, अज्ञानता और धार्मिक कट्टरता के कारण होता है।

अनेक पंथ होने से कोई हानि नहीं हैं, लेकिन जब पंथावलम्बी अपने हितों को राष्ट्रहित से ऊपर रखते हैं तो इससे देश की एकता एवं अखंडता को निश्चय ही हानि पहुँचती है। हमें राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानना चाहिए।

2. भाषावाद

–     भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती है। यह स्वाभाविक है कि हमें अपनी मातृभाषा और बोली से प्रेम हो। हम दैनिक क्रिया-कलापों में इनका प्रयोग करें। किसी क्षेत्र के अधिकांश व्यक्ति केवल अपनी मातृभाषा को ही समझ पाते हैं। इसलिए प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा को संबंधित राज्य की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाती है। यह लोकतंत्र की भावना के अनुकूल भी है। मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देना अधिक सरल एवं उपयोगी होता है। किसी भाषा को सरकारी कार्यों और शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयोग करने से उस भाषा का भी विकास होता है।

कई बार भिन्न भाषायी प्रश्न पर देश में सामाजिक तनाव पैदा हो जाता है। असुरक्षा की भावना से ग्रस्त होकर भी भिन्न भाषायी समूह अपने भाषायी हितों को राष्ट्रहित से अधिक प्राथमिकता देने लगते है। वे अपनी मातृभाषा से प्रेम और दूसरी भाषाओं के प्रति संकीर्णता और घृणा की भावना रखने लगते हैं। इस प्रकार की प्रवृत्ति राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती हैं। हमें मातृभाषा के साथ-साथ अन्य भाषाओं के प्रति भी सम्मान का भाव रखना चाहिये।

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3. जातिवाद

–     हमारी प्राचीन वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। जातिवाद राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है। जाति ऐसी इकाई है, जिसके सदस्य आपस में ही शादी-विवाह और खानपान के नियमों में बंधे रहते हैं। जाति के सदस्य जातीय बंधनों को तोड़ नहीं पाते, अत: वे समाज में व्यापक भूमिका नहीं निभा पाते। कालांतर में यह व्यवस्था वंशानुगत हो गई तथा जाति कर्म के स्थान पर जन्म से जोड़ दी गई। इसमें बहुत से दोष आ गए। जाति-प्रथा के प्रमुख दोष इस प्रकार हैं

–     जाति व्यवस्था समाज को उच्च व निम्न वर्ग में बाँटती है।

–     उच्च जातियाँ, छोटी जातियों का शोषण करती हैं।

–     जातिगत भेदभाव कठोर हो जाते हैं।

–     जातियों का दबाव राजनीति को प्रभावित करता है।

–     जाति प्रथा से देश की एकता और आर्थिक प्रगति में बाधा आती है।

जातीय भेदभाव के विरूद्ध समय-समय पर समाज सुधारकों द्वारा आवाज उठाई गई और सुधार के प्रयास किये गए। इनमें प्रमुख हैं –

संत रामानंद, महात्मा कबीर, श्री चैतन्य महाप्रभु, राजाराम मोहन राय, श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती,

महात्मा गांधी एवं डॉ. भीमराव अम्बेडकर आदि।

–     वर्तमान में शिक्षा के प्रसार, विज्ञान एवं औद्योगिक विकास तथा शहरीकरण से जाति व्यवस्था के बंधन शिथिल हुए हैं। भारत के संविधान में छुआछूत एवं जातिगत भेदभाव को गैर कानूनी घोषित किया गया है। राज्य द्वारा किसी जाति या धर्म के आधार पर भेद-भाव का व्यवहार नहीं किया जाता है। जातिवाद राष्ट्रीय एकता में एक प्रमुख बाधा है।

4. आतंकवाद

–     आतंकवाद विश्व के समक्ष आज एक गम्भीर चुनौती है। यह लोकतंत्र व मानवता के विरूद्ध अपराध है। यह एक क्रूरतापूर्ण नरसंहार का स्वरूप है। आतंकवादी विचारधारा के लोग भय व आतंक के द्वारा अपने विचार मनवाना चाहते हैं। धार्मिक कट्टरता से प्रेरित लोग निर्दोष व्यक्तियों की जान लेने के लिए मारने-मरने की घटनाओं में भाग लेते हैं। इन घटनाओं से वे अलगाव चाहते हैं। वांछित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिंसा का सुनियोजित प्रयोग आतंकवाद है। आतंकवादी हिंसा में विश्वास रखते हैं और विध्वंसात्मक कार्यवाहियाँ करते हैं, इससे देश की भारी क्षति होती है। आतंकवादी यह सोचते हैं कि जनता कभी न कभी उनके मत का समर्थन करेंगी। अतः ये हिंसक, अलोकतांत्रिक व अनैतिक साधनों का प्रयोग धर्म की आड़ में भी करना न्यायसंगत मानते हैं। वर्तमान में आतंकवाद हमारी राष्ट्रीय एकता को खंडित करने का निरतंर प्रयास कर रहा है।

5. पृथकतावाद

–     क्षेत्रवाद की अति आक्रामक अवस्था पृथकतावाद को जन्म देती हैं। देश से अलग होकर अपना स्वतंत्र राज्य बनाने की मांग करना पृथकतावाद है। कई जाति और भाषा के लोग यहाँ रहते हैं। कभी कभी अपनी उपेक्षा महसूस करने पर ये पृथक राज्य बनाने की मांग करने लगते हैं। प्रायः सीमावर्ती राज्यों में इस प्रकार की प्रवृत्ति पायी जाती है। जिसके दुष्परिणाम से पृथकतावाद की भावना प्रबल होने लगती है। इस भावना को देश की अस्थिरता में रूचि रखने वाली बाहरी ताकतों द्वारा भड़काया जाता हैं। देश के अंदर रहने वाले कुछ लोग भी अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस प्रकार की भावनाओं का प्रयोग करते हैं। राष्ट्र विरोधी और कट्टरपंथी लोग तो हिंसक साधनों एवं आतंकवादी तरीकों तक का प्रयोग करने लगते हैं। पृथकतावाद की प्रवृत्ति राष्ट्रीय एकता के लिए गंभीर चुनौती है। सामाजिक न्याय, विकेन्द्रीकृत एवं संतुलित विकास से पृथकतावाद की भावना को समाप्त किया जा सकता है।

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