भारत में लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ –
1. जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता
जातिवाद – जाति एक सामाजिक संरचना है जो अति प्राचीन काल से ही भारत में प्रचलित है।
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका – भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जयप्रकाश नारायण के अनुसार “जाति भारत में एक अत्यधिक महत्वपूर्ण दल है।” के.एन. मेनन के अनुसार “स्वतंत्रता के बाद भारत के राजनीतिक क्षेत्र में जाति प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ाहै।” भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका को निम्न रूपों में देख सकते हैं –
1. निर्णय प्रक्रिया में जाति की भूमिका– भारत में जाति आधारित संगठित संगठन शासन के निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। अपनी मांगों को मनवाने जाति हेतु वे विभिन्न प्रकार से शासन को प्रभावित करने का प्रयत्न करती है। जातीय संगठन अपने हितों के अनुसार निर्णय करने तथा अपने हितों के प्रतिकूल होने वाले निर्णयों को रोकने हेतु निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित का प्रयत्न करते हैं।
2. राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर प्रत्याशियों का निर्णय – राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों के चयन करते समय जातिगत समीकरण को ध्यान में रखकर निर्णय करता है। राजनीतिक दल अपने आन्तरिक संगठनात्मक चुनावों एवं नियुक्तियों में भी जातीय समीकरण का ध्यान रखती है। सभी राजनीतिक दलों में आन्तरिक रूप से भी जातीय आधार पर कई गुट पाये जाते हैं जो शक्ति प्रतिस्पर्धा में लगे रहते हैं।
3. जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार – भारत में मतदान व्यवहार में जातिगत भावना प्रबल रूप से कार्य करती है तथा सभी राजनीतिक दल अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए जातिवाद को भड़काने का प्रयास करते हैं। भारत में पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में जातिवाद
सर्वाधिक प्रभावशाली रूप से हावी रहता है।
4. मंत्रिमंडलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व – सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरणों को अपने पक्ष में बनाये रखने हेतु बहुमत प्राप्त होने पर सरकार निर्माण के लिए मंत्रिमंडल निर्माण करते समय भी जातीय संतुलन का विशेष ध्यान रखता है। कई बार केन्द्र एवं प्रांत विशेष के मंत्रिमंडल में जाति विशेष के प्रतिनिधित्व के कम होने की आलोचना होती रहती है।
5. जातिगत दबाव समूह – आरक्षण से वंचित जातियों के संगठन आरक्षण बनाये रखने हेतु निरन्तर सरकार पर दबाव डालते रहते हैं। मेयर के अनुसार “जातीय संगठन राजनीतिक महत्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त हुए है।
6. जाति एवं प्रशासन – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा अन्य पिछड़े वर्गों को भी 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है। भारत में स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारी निर्णय करते समय क्षेत्र की प्रधान एवं संगठित जातियों के नेताओं से प्रभावित हो जाते है।
7. राज्य की राजनीति में जाति – अखिल भारतीय राजनीति के बजाय राज्य की राजनीति में जाति की ज्यादा सक्रिय भूमिका रहती है।
8. चुनाव प्रचार में जाति का सहारा – राजनीतिक दल एवं उम्मीदवार चुनाव प्रचार में जाति का खुलकर प्रयोग करते है।
9. जाति के आधार पर राजनीतिक अभिजनों का उदय -जो लोक जातीय संगठनों में उच्च पदों पर पहुँच गये वे ही राजनीति में भी अच्छे स्थान प्राप्त करने में सफल हुए।
जातिगत राजनीति की विशेषताएं
- जातीय संघों अथवा संगठनों ने जातिगत राजनीति महत्वकांक्षा को बढ़ाया है। जातीय नेतृत्व जातीय हितों के मुद्दों को उठाकर जाति में अपना समर्थन बढ़ाकर राजनीतिक लाभ उठाते हैं।
- शिक्षा, शहरीकरण, औद्योगिकरण, आधुनिकीकरण तथा लोकतंत्रीय व्यवस्था के बावजूद जातिवाद की
भावना एवं एकीकरण को बल मिला है।
3. क्षेत्र विशेष में कोई जाति विशेष राजनीतिक रूप से ज्यादा प्रभावशाली एवं शक्तिशाली होती है।
4. जाति एवं राजनीति के संबंध गतिशील होते है। सदा एक जैसे नहीं रहते।
5. जाति के राजनीतिकरण के साथ-साथ स्थानीय स्तर पर राजनीति का जातीयकरण भी हो रहा है।
1.5 सकारात्मक प्रभाव जातिवाद ने राजनीति में सकारात्मक प्रभाव भी डाले हैं।
1. जाति एवं राजनीति के संबंध ने लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम किया है। दूर-दूर रहने वाले जाति के लोग जातीय पंचायतों में एक दूसरे के सम्पर्क में आते है। एक दूसरे की समस्याओं में सहायता करते हैं। इससे लोगों में सामाजिकता एवं एकता की भावना का विकास होता है।
2. जाति की राजनीति ने अधिक लोगों में राजनीतिक सक्रियता पैदा की है। सामाजिक सेवा का कार्य भी करने लगे। जातीय संगठनों में सक्रिय लोग राजनीति में भी सक्रिय हो जाते हैं।
3. जातीय सक्रियता के कारण समाज में उन जातियों का महत्व भी बढ़ा जो पहले राजनीति सामाजिक एवं आर्थिक रूप से शक्ति विहीन परि सम प्रमातंत्र में अपनी संख्या बल का फायदा मिलने लगा। शासन में उनकी सहभागिता बढ़ी है।
4. जातिवाद के कारण सामाजिक संरचना में परिवर्तन आया। समाज की सभी जातियों के खान-पान, वेशभूषा, रहन सहन, आचार-विचार में निम्न जातियां उच्च जातियों का अनुसरण करती है।
5. रूडोल्फ तथा रूडोल्फ के अनुसार जाति की राजनीति ने जातियों के मध्य मतभेदों को कम किया है और विभिन्न जातियों के सदस्यों में समानता आयी है।
1.6 नकारात्मक प्रभाव
डी. आर. गाडगिल के अनुसार जाति का प्रभाव प्रजातंत्र के विकास में सहायक नहीं है। डॉ. आशीर्वादम के अनुसार भूतकाल में जाति के चाहे जो भी लाभ हो, आज प्रगति में बाधक है जातिवाद से समाज में तनाव, संघर्ष पैदा होता है। राष्ट्रीय हित का नुकसान होता है, रूढ़ीवादिता को बढ़ावा मिलता है, सरकार दबाव में कार्य करती है। जातिवाद लोकतंत्र के विरुद्ध है।
1. बंधुत्व एवं एकता की भावना को हानि पहुँचती है। अपने अपने जातीय हितों के संघर्ष के कारण वैमनस्यता पैदा होती है। समाज में तनाव एवं संघर्ष का वातावरण पैदा होता है। सामाजिक समरसता पर चोट पहुँचती है।
2. समाज के वातावरण में अमन, चैन एवं शांति की जगह संघर्ष एवं अशांति पैदा होती है।
3. जाति के आधार पर चुनाव लड़ना एवं जातिगत आग्रह के आधार पर मतदान करना जातिवाद का ही परिणाम है। जाति के आधार पर मतदान करने से योग्य व्यक्ति चुनाव हार जाते हैं। जीतने वाला व्यक्ति भी पूरे समाज के प्रति दायित्व बोध न समझकर जातीय वफादारी पर ध्यान देता है। देश का शासन अयोग्य लोगों के हाथ में चला जाता है, जो देश का भला नहीं कर सकते।
4. जातिवाद की भावना के कारण नागरिकों की श्रद्धा एवं भक्ति बंट जाती है। देश के प्रति भक्ति कम होजाती है। ये प्रवृत्तियां देश की एकता, भाईचारे तथा विकास में बाधा पैदा करती है।
5. जातिवाद के कारण से राजनीतिक दलों का निर्माण भी जाति के आधार पर होने लगता है। स्वस्थ लोकतंत्र जाती है। ये प्रवृत्तियां देश की एकता, भाईचारे तथा विकास में बाधा पैदा करती है।
6. जातिवादी सोच रूढ़ीवादिता को बढ़ावा देती है। जिसमें वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील दृष्टिकोण का विकास नहीं हो पाता। आधुनिक दृष्टिकोण का विकास अवरूद्ध हो जाता है। जातिवाद परम्परावाद को बढ़ावा देती है।
7. अल्पसंख्यक जाति या समुदाय के लोगों में असुरक्षा की भावना का विकास होता है।
8. सरकारें बड़ी एवं शक्तिशाली जातीय संगठनों के दवाब में कार्य करती है। अत: स्वतंत्र एवं निष्पक्ष सम्पूर्ण समाज हित में निर्णय लेने से बचने का प्रयास करती है।
9. कभी-कभी जातीय संगठनों के आंदोलन या संघर्ष हिंसक रूप ले लेते हैं।
10. जातिवाद लोकतंत्रीय भावना के विरूद्ध होता है। स्वतंत्रता समानता व बन्धुत्व जैसे लोकतंत्रीय मूल्यों को नुकसान पहुँचाता है। समाज में फूट, विखण्डन एवं संकीर्ण हितों को प्रोत्साहित करती है।
11. वोट बैंक की राजनीति का बढ़ावा-राजनीतिक दल एवं नेता किसी जाति को अपना वोट बैंक बनाने हेतु उसकी उचित अनुचित बातों एवं मांगों का समर्थन करते रहते हैं। राष्ट्रीय हितों के बजाय जातीय हितों को अधिक महत्व दिया जाता है।
निष्कर्ष
आधुनिक भारतीय समाज में जातिगत भेद-भाव केंसर एवं एड्स जैसे भयंकर रोगों की तरह सर्वत्र फैल गया है, जिसका निदान असंभव है। आज राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा जातिगत हितों को विशेष महत्व दिया जा रहाहै, जिसके कारण हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर हो रही है। समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास का मत है कि “परम्परावादी जाति व्यवस्था ने प्रगतिशील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया है कि ये राजनीतिक संस्थाएं अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं रही है।”
डी.आर. गाडगिल के शब्दों में “क्षेत्रीय दबावों से कहीं ज्यादा खतरनाक बात यह है कि वर्तमान काल में जाति व्यक्तियों को एकता सूत्र में बांधने में बाधक सिद्ध हुई है।”
साम्प्रदायिकता
1.7 अर्थ एवं परिभाषा
जब एक धार्मिक सांस्कृतिक एवं भाषाई समूह या समुदाय. समझ बूझकर अपने को अलग वर्ग मानकर धार्मिक सांस्कृतिक भेदों के आधार पर राजनीतिक मांगें रखता है अपनी मांगों को राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितों से अधिक प्राथमिकता देता है उसे साम्प्रदायिकता कहा जा सकता है। साम्प्रदायिकता के अंतर्गत वे सभी भावनाएं व क्रियाकलाप आ जाते हैं, जिनमें किसी धर्म एवं भाषा के आधार पर किसी समूह विशेष के हितों पर बल दिया जाये, उन हितों को राष्ट्रीय हितों से भी अधिक प्राथमिकता दी जाये तथा उस समूह में पृथकता की भावना उत्पन्न की जाये या उसको प्रोत्साहित किया जाए।
विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार- “एक साम्प्रदायिक व्यक्ति या समूह वह है जो कि प्रत्येक धार्मिक एवं भाषाई समूह को एक ऐसी पृथक, सामाजिक तथा राजनीति इकाई मानता है, जिसके हित अन्य समूह से पृथक होते हैं और उनके विरोधी भी हो सकते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों या व्यक्ति समूह की विचारधारा को साम्प्रदायवाद या साम्प्रदायिक कहा जायेगा।”
1.8 साम्प्रदायिक संगठनों का उद्देश्य
शासकों के ऊपर दबाव डाकर अपने सदस्यों के लिए अधिक सत्ता, प्रतिष्ठा तथा राजनीतिक अधिकार प्राप्तकरना होता है। ऐसे समूह राष्ट्रीय एवं सामाजिक हितों के ऊपर अपने समूह के हितों को अधिक प्राथमिकता देते हैं, जिससे समाज में फूट पैदा होती है।
1.9 सांप्रदायिकता का उदय
भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या ब्रिटिश शासन की समकालीन है। ब्रिटिश सरकार ने “फूट डालो औरराज करो” की नीति अपनायी ताकि हिन्दू-मुसलमान लड़ते रहे तथा वे अपना शासन आराम से चलाते रहे।
भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के निर्माण एवं विकास में जितना हाथ अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल का हाथ रहा उतना ही हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच राजनीति संघर्षों का भी। मेहत और पटवर्द्धन “अंग्रेजी शासकों ने अपने आपको हिन्दू मुसलमानों के मध्य में खड़ा करके ऐसे साम्प्रदायिक त्रिभुज की रचना का निश्चय किया जिसके आधार बिन्दु वे स्वयं रहे। ” ब्रिटिश सरकार की नीतियों के कारण भारत में साम्प्रदायिकता बढ़ी। 1905 में लार्ड कर्जन ने साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन कर दिया। भारतीय मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति की शुरूआत कर ब्रिटिश सरकारने इस समस्या को ओर बढ़ाया। 1940 में जिन्ना ने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और अंत में 1947 में साम्प्रदायिकता के आधार पर भारत का विभाजन हुआ।
1.10 साम्प्रदायिक समस्या के कारण
1. विभाजन की कटु स्मृतियां – मुस्लिम लीग की सीधी कार्यवाही ने साम्प्रदायिक वैभवस्य को चरम पर पहुँचा दिया था। स्वतंत्रता के साथ ही देश का विभाजन हुआ देश के विभिन्न भागों में हिंसा भड़क उठी।
- राजनीतिक दलों द्वारा निहित स्वार्थों के लिए पृथक्करण की भावना पनपाना -स्वतंत्रता प्राप्ति व विभाजन के पूर्व व पश्चात भारत में कई राजनीतिक दलों व संगठनों का गठन धार्मिक आधार पर हुआ है। इनमें जमाएत-ए-इस्लाम, ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इश्रोहादल मुसलीमीन, ऑल इण्डिया मुस्लिम लीग व विद्यार्थी संगठन प्रमुख है। दुर्भाग्य इन संगठनों ने अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए धार्मिक आधार पर राजनीति करना आरंभ कर दिया, जिससे एक वर्ग विशेष में अलगाववाद की प्रवृत्ति विकसित हुई। इसके अतिरिक्त इन संगठनों ने अन्य अलगाववादी गतिविधियों में लिप्त होकर देश की एकता और अखण्डता को गंभीर चुनौती दी है। वर्तमान समय में सभी वर्गों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़े रखना अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
3. मुसलमानों का आर्थिक एवं शैक्षिणिक दृष्टि से पिछड़ापन-ब्रिटिश शासन काल से ही मुसलमान शैक्षणिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े रहे। मुस्लिम समाज का आधुनिकीकरण नहीं हो पाय इससे उनमें असंतोष बढ़ा जिसका फायदा राजनीतिक महत्वकांक्षा से युक्त लोगों ने उठाया।
4. पाकिस्तानी प्रचार और षडयंत्र– पाकिस्तानी मीडिया भी हिन्दू मुसलमान तनाव को बढ़ा चढ़ा कर करती है। अशिक्षित ही नहीं शिक्षित मुसलमान भी उनके बहकावे में आकर पाकिस्तान को अपना हितेषी मान बैठता है। पाकिस्तान कश्मीर में भारतीय सेनाओं को मुसलमानों पर – अत्याचारों के लिए प्रचारित करता है।
5. सरकार की उदासीनता – सरकार एवं प्रशासन की उदासीनता एवं लापरवाही के कारण भी कई बार साम्प्रदायिक दंगे विशाल रूप से भड़क जाते हैं। छोटी सी घटना बड़ा रूप ले लेती है।
6. दलीय, राजनीति, गुटीय राजनीति– और चुनावी राजनीति – साम्प्रदायिकता की समस्या के लिए राजनीतिक दलों की संकुचित दलीय हितों की राजनीति भी जिम्मेदार है।
7. तुष्टीकरण की राजनीति – सरकारों द्वारा वर्ग विशेष के वोटों के लिए उनकी उचित अनुचित मांगों को मान लेना, उन्हें विशेष रियायते व विशेषाधिकार देने के कारण अन्य सम्प्रदायों में ईर्ष्या की भावना पैदा होना
स्वाभाविक है।
8. वोट बैंक की राजनीति – कुछ राजनीतिक दल किसी वर्ग विशेष को अपना वोट बैंक बनाने हेतु उसके सभी सही गलत कदमों का समर्थन करते है तो प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरे राजनीतिक दल दूसरे वर्गों को समर्थन
देते हैं इस प्रकार तनाव को बढ़ावा मिलता है।
9. विदेशी धन – तेल की आय से सम्पन खाड़ी देशों से मुस्लिम संगठनों को तथा यूरोपीय देशों से ईसाई संगठनों को भारी मात्रा में धन प्राप्त होता है तथा यह धन उनके शैक्षिक, आर्थिक विकास में खर्च न होकर साम्प्रदायिकता फैलाने, धर्म परिवर्तन पर खर्च किया जाता है।
साम्प्रदायिक के दुष्परिमाण
साम्प्रदायिकता के कारण ना सिर्फ राष्ट्रीय एकता अखण्डता को खतरा पैदा हुआ है बल्कि विकास की प्रक्रिया भी अवरुद्ध हुई।
1. आपसी द्वेष – साम्प्रदायिक के कारण समाज में फूट पड़ गयी, आपसी द्वेष एवं अविश्वास पैदा हुआ। समाज में शान्ति व्यवस्था एवं भाईचारे की भावना खत्म हो जाती है एवं विविधता में एकता का भाव खत्म हो जाता है।
2. आर्थिक हानि – साम्प्रदायिकता दंगे भड़कने पर भंयकर विनाश होता है।
3. प्राण हानि – साम्प्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोग मारे जातेद है।
4. राजनीति अस्थिरता – साम्प्रदायिक समस्या के कारण ऐसी राजनीतिक समस्याएं पैदा हो जात है, जिससे सरकारों की स्थिरता प्रभावित होती है।
5. राष्ट्रीय एकता में बाधा – साम्प्रदायिकता राष्ट्रीय एकता एवं भाईचारे की भावना को नष्ट करती है। देश के नागरिकों में जितनी एकता की भावना होगी राष्ट्र उतना ही शक्तिशाली होगा। फूट राष्ट्र एवं समाज को कमजोर बनाती है।
6. राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा – भारत एक बहु सम्प्रदायी देश है इसमें अनेक सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं। देश में शान्ति एवं व्यवस्था के साथ विकास के लिए सबको मिलजुल कर रहना आवश्यकता है लेकिन उग्न साम्प्रदायिक भावनाए एकता को पनपने ही नहीं देती।
7. औद्योगिक एवं व्यवसायिक विकास में बाधा – देश की औद्योगिक एवं व्यापारिक विकास शान्ति एवं सुव्यवस्था में ही हो सकता है। अशान्ति एवं हिंसा के वातारण में कोई पूंजीपति अपना धन नहीं लगायेगा। इस प्रकार साम्प्रदायिक अशान्ति देश का औद्योगिक एवं व्यापारिक अवरूद्ध कर देती है।
1.12 साम्प्रदायिकता को दूर करने के सुझाव
देश की एकता एवं अखण्डता पर खतरा है, प्रगति एवं विकास में बाधक है। इसलिए साम्प्रदायिकता को दूर किया जाना चाहिए।
- सरकार को सदैव ही इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाये, जिससे साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिले।
2. शिक्षा में शाश्वत नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का शामिल किया जाना चाहिए। शिक्षा की जगह देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने वाली शिक्षा होनी चाहिए।
3. धर्म के आधार पर किसी धार्मिक वर्ग के लिए कोई विशेष रियायतें या सुविधाएं न दी जाए।
4. तुष्टीकरण की नीति का परित्याग कर सरकार को सबके लिए समान आचार संहिता का निर्माण करना चाहिए। अलग-अलग वर्गों एवं सम्प्रदायों के लिए अलग-अलग कानून देश में अलगाव की भावना पैदा करते हैं। जाति, धर्म, भाषा एवं सम्प्रदाय के आधार पर कानूनी भेदभाव नहीं होना चाहिए।
5. अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा का भाव पैदा हो सरकार ऐसी व्यवस्था करें, लेकिन उनका वोट बैंक बनाने हेतु विशेषाधिकार देना अन्य वर्गों में असन्तोष को जन्म देता है, जिससे सरकार एवं राजनीतिक दलों को
बचना चाहिए।
6. साम्प्रदायिकता का एक सबसे बड़ा कारण चुनावी राजनीतिहै। किसी भी दल को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से चुनाव प्रचार में धर्म का सहारा लेने से रोकने हेतु दृढ़ व सुनिश्चित नियमों का निर्माण व क्रियान्वयन अतिआवश्यक है।
7. समय-समय पर साम्प्रदायिकता के आधार पर प्रतिनिधित्व की मांगों को दृढ़ता से ठुकराना होगा। नागरिक में एक राष्ट्र की भावना पैदा करनी होगी।
8. सरकार को अपनी भाषा नीति ठीक करनी चाहिए। हिन्दी सम्पूर्ण देश की सम्पर्क भाषा बन सके इसके लिए राजनीति से ऊपर उठ कर प्रयत्न किया जाना चाहिए।
9. शिक्षा के दृष्टिकोण उदार बनता है तथा व्यक्ति का मानसिक विकास होता है। अशिक्षित व्यक्ति धर्म का संकीर्ण एवंअपने स्वार्थ में प्रयोग करने वालों के बहकावे में अधिक आ जाते है।
10. सर्वधर्म समभाव को बढ़ावा देने वाले कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए। साहित्य एवं मीडिया द्वारा
ही ऐसे कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिये।
11. धर्म के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन न हो तथा धार्मिक संगठनों को राजनीति में भाग लेने पर प्रतिबंध हो। साम्प्रदायिक संगठनों पर पूर्ण प्रतिबंध हो।
सच्चर कमेटी प्रतिवेदन, 2006 – भारतीय मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति क अध्ययन करने व उसमें सुधार लाने के लिए सुझाव देने हेतु सेवानिवृत न्यायाधीश राजेन्द्र सिंह सच्चर की अध्यक्षता में सात सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया। सच्चर कमेटी ने मुसलमानों की स्थिति का अध्ययन कर कुछ सुझाव दिये। जिसके तहत अल्पसंख्यकों के कल्याण एवं विकास के लिए 15 सूत्री कार्यक्रम, सर्व शिक्षा अभियान, मुस्लिम बालिकाओं के लिए सुविधाएं आदि। कुछ लोगों ने राजनीतिक लाभ के लिए अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की मांग की। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने पिछड़ा वर्ग कोटे में से 4.5 प्रतिशत आरक्षण अल्पसंख्यकों को देने का निर्णय किया जिसे पहले आन्ध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने फिर सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। भारतीय संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण को अस्वीकार किया गया है।
साम्प्रदायिकता के कारण – अंग्रेजों की फूट डालो की नीति, मुसलमानों का शैक्षिक, आर्थिक पिछड़ापन एवं -पृथक्कता की भावना, पाकिस्तान प्रचार, सरकारी उदासीनता, दलीय राजनीति, तुष्टिकरण की नीति, वोट बैंक की राजनीति तथा विदेशी धन।
साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम – आपसी द्वेष, आर्थिक एवं प्राण हानि के साथ राजनीतिक अस्थिरता, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता एवं सुरक्षा को खतरा पैदा होता है। आर्थिक विकास अवरूद्ध होता है।
साम्प्रदायिकता को दूर करने हेतु– तुष्टिकरण की नीति का परित्याग करने, चुनाव जीतने हेतु सम्प्रदाय कासहारा लेने वालों पर कठोर कार्यवाही करने, धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए।शिक्षा प्रसार हो तथा शिक्षा में शाश्वत नैतिक मूल्यों को पढ़ाया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता के पश्चात् देश में 17 लोकसभा एवं अनेक विधानसभाओं के चुनावों का आयोजन गतिशील जागरूक लोकतांत्रिक राष्ट्र का प्रतीक है। भारत में चुनावी राजनीति के अध्ययन के महत्वपूर्ण आयाम देश के निर्वाचनों में मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले निर्धारक तत्व, निर्वाचकीय व्यवस्था की विशेषताएं, निर्वाचकीय व्यवस्था में व्याप्त दोष, उनके निराकरण के किये गए प्रयास तथा सम्भावित सुधार मुख्य है।
प्रथम आम चुनाव, 1952
भारत में लोकतांत्रिक निर्वाचन प्रक्रिया का प्रारंभ अप्रैल 1950 में संविधान सभा (जो अब अन्तरिम संसद के रूप में कार्य करने लगी थी) द्वारा पारित निर्वाचन कानून के अंतर्गत 1951-52 में सम्पन्न होने वाले प्रथम आम चुनावों में परिलक्षित होता है। इन चुनावों में सुकुमार सेन को भारत का प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner) नियुक्त किया गया।
प्रथम लोकसभा चुनावों के प्रमुख तथ्य-
1. मताधिकार प्राप्त व्यक्तियों की संख्या | 17 करोड़ 32 लाख |
2. लोकसभा के लिए स्थानों की संख्या | 489 |
3. लोकसभा के लिए उम्मीदवारों की संख्या | 1874 |
4. समस्त राज्य विधानसभाओं के लिए कुल स्थानों की संख्या | 3283 |
5. समस्त राज्य विधानसभाओं के लिए कुल उम्मीदवारों की संख्या | 15,000 |
6. सरकार द्वारा चुनावों पर व्यय | लगभग 10 करोड़ रू. |
7. लोकसभा के लिए मतदान | लगभग 8 करोड़ 60 लाख रू. |
8. मतदान प्रतिशत | 45.67 |
9. अवैध मत | लगभग 16 लाख 35 हजार |
10. सफलता | केन्द्र में कांग्रेस सत्तारूढ़ |
स्पष्ट है कि प्रथम आम चुनाव भारतीय राजनीति एवं लोकतांत्रिक ढांचे में एक साहसिक प्रयोग था।
द्वितीय आम चुनाव, 1957
1956 में राज्यों के पुनर्गठन के कारण भारतीय राजनीति में अनिश्चतता एवं फरवरी, 1957 में द्वितीय आम चुनाव सम्पन्न हुए। जिसमें 4 राष्ट्रीय राजनीतिक दल की मान्यता प्राप्त किये हुए, 19 राज्य स्तर के राजनीतिक दलों की मान्यता प्राप्त कर चुके । इन चुनावों में परिणामस्वरूप कांग्रेस को लोकसभा के कुल 494 स्थानों में से 371 स्थानों पर (73 प्रतिशत) विजय प्राप्त हुई तथा राज्य विधानसभाओं के 65 प्रतिशत स्थानों पर सफलता प्राप्त हुई। किन्तु केरल एवं उड़ीसा में विपक्षी दल विजयी रहे। सम्पूर्ण विश्व में भारत का केरल ऐसा राज्य था जहां साम्यवादी दल लोकतंत्र एवं मतपत्र के द्वारा पहली बार सत्ता प्राप्ति में सफल रहे। दूसरी ओर इन चुनावों में क्षेत्रवाद की प्रवृतियां भी भारतीय राजनीति में परिलक्षित होती है। मद्रास में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, बिहार में झारखण्ड पार्टी, उड़ीसा में गणतंत्र परिषद एवं तत्कालीन बम्बई राज्य में महा गुजरात जनता परिषद एवं संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने अपनी शक्तियों को परिचय दिया।
तृतीय आम चुनाव, 1962
तृतीय आम चुनाव के पूर्ण निर्वाचन व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गए। प्रथम एवं द्वितीय आम चुनावों में जो बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र थे, उन्हें समायोजित कर उनके स्थान पर एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था की गयी। इन चुनावों में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय दल के भेद को समाप्त कर दिया गया। तीन प्रतिशत से अधिक मत पाने वाल राजनीतिक दलों को उन राज्यों में आरक्षित चुनाव चिन्ह दिया गया, जिन राज्यों में उन्होंने कम से कम इतने मत प्रतिशत प्राप्त किये थे। तृतीय आम चुनावों में यद्यपि कांग्रेस दल को लोकसभा के कुल 510 में से 311 स्थानों पर तथा लगभग सभी राज्यों की विधानसभाओं में बहुमत प्राप्त हुआ। किन्तु इन चुनावों में कांग्रेस को प्राप्त मतों के प्रतिशत में कटौती हुई। मतों का यह प्रतिशत 46 प्रतिशत से 45 प्रतिशत हो गया।
चतुर्थ आम चुनाव, 1967
चतुर्थ आम चुनावों से न केवल भारतीय दल व्यवस्था में परिवर्तन आया, बल्कि इसके परिणामों ने भारतीय राजनीति व्यवस्था को भी प्रभावित किया। इन चुनावों के परिणामस्वरूप भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में एक नवीन राजनीति ध्रुवीकरण का उद्भव हुआ। उन्हें नार्मन डी. पामर ने अवसाद, निराशा, अनिश्चिता एवं लगातार आन्दोलन की स्थिति की संज्ञा दी है।
इन चुनावों के उपरान्त लोकसभा में कांग्रेस दल की सदस्य संख्या 361 से घटकर 281 रह गयी तथा भारतीय संघ के लगभग आधे राज्यों में कांग्रेस दल का शासन समाप्त होकर वहां गैर कांग्रेसी दलों की संयुक्त सरकारों का गठन हुआ। भारतीय राजनीतिक दल व्यवस्था जो अब तक कांग्रेस प्रधान अथवा एक दल प्रमुख वाली व्यवस्था के रूप में जानी जाती थी, प्रतियोगी दलीय व्यवस्था में तब्दील हो गयी। जिसमें केन्द्र में कांग्रेस की सरकार किन्तु भारतीय संघ के 9 राज्यों में किसी एक विरोधी दल या दलों की संयुक्त सरकार की स्थापना हुई थी। इसी कारण इन चुनावों को द्वितीय क्रान्ति (Second Revolution) एवं प्रथम वास्तविक आम चुनाव (First Time General Election) भी कहा जाता है।
लोकसभा के मध्यावधि चुनाव, 1971
कांग्रेस विभाजन के उपरान्त मार्च, 1971 के पंचम लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए। 1969 में कांग्रेस की फूट तथा उसका सत्ता कांग्रेस एवं संगठन कांग्रेस में विभाजन से समय पूर्व भंग की गयी लोकसभा के दिसम्बर 1970 में मध्यावधि चुनावों की घोषणा की गई थी।
छठे आम चुनाव, 1977
राष्ट्रीय आपातकाल (जून, 1975-जनवरी 1977) की समाप्ति के पश्चात मार्च 1977 में सम्पन्न हुए छठी लोकसभा के चुनाव इस दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं कि इन चुनावों के पश्चात केन्द्र में पहली बार सत्ता परिवर्तन हुआ तथा कांग्रेस के स्थान पर विरोधी दलों के विलय स्वरूप नवगठित जनता पार्टी का शासन स्थापित हुआ।
– चुनावों की घोषणा के बाद 23 जनवरी, 1977 को राष्ट्रीय स्तर के चार विरोधी दलों-संगठन कांग्रेस, भारतीय जनसंघ, भारतीय लोकतंत्र तथा सोशलिस्ट पार्टी ने विलय कर जनता पार्टी नामक नया संगठन बनाया। चुनावों में 31 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने 65 प्रतिशत से अधिक मताधिकार का प्रयोग किया।
इन चुनाव परिणाम को मत पत्रों की क्रान्ति’ की संज्ञा दी जाती है। स्वतंत्रता के पश्चात भारत में केन्द्र में 30 वर्षों से सत्तारूढ़ कांग्रेस शासन के एकाधिकार का अन्त हुआ। 542 स्थानों में से जनता पार्टी एवं लोकतांत्रिक कांग्रेस को 298 (27028) स्थान प्राप्त हुए, जबकि कांग्रेस को केवल 154 स्थान प्राप्त हुए।
सातवें आम चुनाव, 1980
1977 में गठित जनता पार्टी सरकार अपने आन्तरिक विरोधाभासों एवं दलीय गुटबन्दी के कारण अधिक समय तक पदारूढ़ नहीं रह पायी और जुलाई 1979 में इस सरकार का पतन हो गया। सातवीं लोकसभा के चुनावों में 36 करोड़ 17 लाख मतदाताओं ने अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग किया। इन चुनावों में मतदान का प्रतिशत 56.92 था। इन निर्वाचनों में लोकसभा के 542 स्थानों में से 351 स्थानों में सफलता प्राप्त कर इन्दिरा कांग्रेस केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई। इंदिरा कांग्रेस को 42 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
1980 के आम चुनावों के समय मतदाताओं के मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारकों में एक ओर 1977 के जनता पार्टी के शासन के कार्यकाल में राजनीतिक अस्थायित्व, शासक दल के आपसी मतभेद, 1980 में जनता पार्टी एवं लोकदल के विभाजन के बावजूद जनता पार्टी में गुटबन्दियों से जनता असंतुष्ट थी। दूसरी और श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजनीतिक स्थायित्व एवं कार्यकुशल शासन का नारा दिया। भारतीय जनता के केन्द्र में अस्थायित्व तथा गठबंधन सरकार की विफलता को नकारा। केन्द्र की जनता पार्टी के पारस्परिक अन्तर्विरोध के कारण जनता ने पुन: एक दलीय राजनीतिक व्यवस्था को स्वीकार किया।
आठवें आम चुनाव, 1984
आठवीं लोकसभा के चुनावों का पूर्व राजनीतिक परिदृश्य पंजाब के आतंकवाद, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के उपरान्त उपजी सहानुभूति लहर से प्रभावित था। इन चुनावों में 7 राष्ट्रीय एवं 27 क्षेत्रीय दलों ने भाग लिया। कांग्रेस (इ) द्वारा ‘भारत की एकता, अखण्डता और राजनीतिक स्थायित्व’ तथा ‘इन्दिरा जी की याद में राजीव जी के साथ में’ का नारा दिया तथा चुनावों में 41.3 प्रतिशत मत प्राप्त कर 401 स्थानों पर सफलता प्राप्त की। इन्दिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न सहानुभूति एवं युवा राजीव गांधी की छवि के कारण मतदाताओं ने कांग्रेस (इ) को समर्थन दिया। 40 वर्षीय राजीव उन 17 करोड़ मतदाताओं की स्वभाविक पसंद बन गए जिनकी आयु 21 से 35 वर्ष के बीच थी। यह चुनाव राजीव गांधी की विजय से अधिक देश की इन्दिरा गांधी की शहादत को श्रद्धांजलि थी।
नवम् आम चुनाव, 1989
बोफोर्स प्रकरण, भ्रष्टाचार, अयोध्या विवाद तथा कांग्रेस (इ) की गिरती हुई राजनीतिक प्रतिष्ठा की पृष्ठभूमि में आयोजित इन चनावों में गैर कांग्रेस दलों का गठबंधन एक महत्वपूर्ण घटना थी। एन.टी. रामाराव की अध्यक्षता में तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह के संयोजकत्व में गठित राष्ट्रीय मोर्चे ने भारतीय जनता पार्टी एवं वामपंथी गठबंधन के साथ चुनावी गठबंधन किया। राष्ट्रीय मोर्चे में शामिल घटक जनता दल को 141 स्थान प्राप्त हुए। साथ ही चुनावी सहयोगी भारतीस जनता पार्टी को भी पूर्व लोकसभा में 2 के स्थान पर 86 स्थानों पर सफलता प्राप्त हुई।
इन चुनावों में मतदान व्यवहार की मुख्य प्रवृत्तियों में राष्ट्रीय मोर्चे एवं भारतीय जनता पार्टी का समर्थन, पश्चिम बंगाल के वामपंथी लोकतांत्रिक मोर्चे को छोड़कर अन्य स्थानों पर मतदाताओं द्वारा परिवर्तन के पक्ष में जनादेश, हिन्दू कार्ड के आधार भारतीय जनता पार्टी की सफलता तथा भारतीय राजनीति में इसका तीसरी शक्ति के रूप में स्थान, राष्ट्रीय मोर्चे को उत्तर भारत के राज्यों- उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, ओडिशा, हरियाणा तथा राजस्थान में सफलता प्राप्त होना, कांग्रेस (इ) को भंग लोकसभा में प्राप्त 401 स्थानों की तुलना में मात्र 193 स्थान प्राप्त होना।
दसवें आम चुनाव, 1991
“नवीं लोकसभा के चुनावों के उपरान्त वी.पी. सिंह के नेतृत्व में गठित राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का कार्यकाल केवल 11 माह रहा। नवम्बर 1990 में इस सरकार के पतन के उपरान्त कांग्रेस (इ) के बाहरी समर्थन से चन्द्रशेखर के नेतृत्व में गठित समाजवादी जनता पार्टी की अल्पमत सरंकार का भी कांग्रेस (इ) द्वारा समर्थन वापिस लेने के कारण पतन होने के बाद नवीं लोकसभा को समय पूर्व भंग कर दसवीं लोकसभा के निर्वाचन करवाये गए।
इन चुनावों में मतदाताओं की संख्या 51 करोड़ 70 लाख थी, किन्तु चुनावों में मतदान का प्रतिशत 53 प्रतिशत पूर्ववर्ती चुनावों की तुलना में कम था। इस चुनाव में स्थायित्व’, ‘देश की वामपंथी लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष शक्तियां की एकजुटता’, ‘राम मन्दिर का निर्माण’ तथा ‘सामाजिक न्याय’ जैसे मुद्दे मुख्यत: चुनावी मुद्दे रहे। लोकसभा के लिए 524 स्थानों के लिए हुए निर्वाचनों में कांग्रेस को 35 प्रतिशत, भारतीय जनता पार्टी को 23 प्रतिशत, जनता दल को 12 प्रतिशत मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी को 10 प्रतिशत तथा अन्य राजनीतिक दलों एवं निर्दलियों को 20 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
1991 के चुनावों में मतदान व्यवहार की मुख्य प्रवृत्तियां निम्न थी-किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त न होने के
कारण ‘अस्पष्ट जनादेश वाली लोकसभा’ अस्तित्व में आई। प्रथम दौरे के बाद राजीव गांधी की हत्या तथा उससे उपजी सहानुभूति लहर ने मतदान के द्वितीय एवं तृतीय चरण को प्रभावित किया। कांग्रेस (इ) को 1991 के चुनावों में 1989 की तुलना में 32 सीटें अधिक -कुल 232 सीटों के साथ 36.5 प्रतिशत मत प्राप्त हुए।
इन चुनावों के उपरान्त पिछली दो अल्पमत सरकारों के क्रम में केन्द्र में तीसरी अल्पमत सरकार कांग्रेस (इ) की सरकार का गठन हुआ।
ग्यारहवें आम चुनाव, 1996
अप्रैल-मई 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा के चुनावों का आयोजन हुआ। 545 सदस्यीय लोकसभा के कुल 537 स्थानों के लिए हुए निर्वाचनों में तीन प्रमुख दलीय गठबन्धन प्रकट हुए। कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई गठबंधन नहीं कर राज्य स्तर पर तमिलनाडु एवं केरल में चुनावी गठबंधन किये। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी दल के साथ चुनावी गठबंधन न कर राज्यों के क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी समझौते किये। तृतीय मार्क्सवादी साम्यवादी दल के नेतृत्व में भारतीय साम्यवादी दल, आर.एस.पी. तथा फारवर्ड ब्लॉक का चुनावी गठबन्धन हुआ।
कांग्रेस ने ‘स्थिरता’, भारतीय जनता पार्टी ने ‘परिवर्तन’, जनता दल ने ‘सामाजिक न्याय’ तथा वामपंथी दलों ने ‘धर्म निरेपक्षता व लोकतंत्र को सुदृढ़ करने’ का नारा दिया। चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन के नेतृत्व में चुनाव आयोग द्वारा जारी
आचार संहिता का इन चुनावों में कठोरता से पालन करवाने के । कारण चुनावों में धन एवं बल प्रयोग की भूमिका पर कुछ सीमा । तक नियंत्रण लगा। । इन चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक । दल के रूप में उभरी। 11वीं लोकसभा चुनावों के त्रिशंकु संसद । को जन्म दिया, जिससे सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय । जनता पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार का । गठन किया। किन्तु बहुमत का समर्थन न जुटा पाने के कारण 13 दिन के पश्चात् विश्वास मत प्राप्त करने से पूर्व ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को त्यागपत्र देना पड़ा।
इसके पश्चात 14 राजनीतिक दलों के गठबंधन से निर्मित संयुक्त मोर्चे की साझा सरकार का गठन एच.डी. देवगौड़ा के नेतृत्व में किया गया, जिसे कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया। ” किन्तु केवल 10 माह उपरान्त कांग्रेस द्वारा नेतृत्व परिवर्तन की मांग के कारण संयुक्त मोर्चा सरकार ने देवगौड़ा को पद से हटाकर इन्द्र कुमार गुजराल को अपना नेता चुना। गुजराल देश के 12वें प्रधानमंत्री बने, किन्तु 7 माह पश्चात कांग्रेस द्वारा समर्थन वापिस लेने के कारण संयुक्त मोर्चा सरकार का पतन हो गया।
बारहवें आम चुनाव, 1998
यूनाइटेड फ्रन्ट (संयुक्त मोर्चा) सरकार द्वारा अल्पमत में आने से त्यागपत्र देने के बाद किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत प्राप्त न होने के कारण राष्ट्रपति ने समय पूर्व 11वीं लोकसभा को भंग कर चुनाव करवाने की घोषणा की। 12वीं लोकसभा (फरवरी 1998) के निर्वाचनों में चुनाव पूर्व तीन गठबंधन सामने आये। भारतीय जनता पार्टी एवं उसके सहयोगी दल, कांग्रेस एवं उसके सहयोगी दल तथा संयुक्त मोर्चे का घटक दल।
भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभरी। चुनावों के पश्चात् भारतीय जनता पार्टी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 17 राजनीतिक दलों की साझा सरकार का गठन किया।
तेरहवें आम चुनाव, 1999
17 अप्रैल 1999 को 12वीं लोकसभा के चुनावों के उपरान्त अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में गठित मिलीजुली सरकार एक घटक दल अन्नाद्रमुक के समर्थन वापसी के कारण विश्वास मत प्राप्त करने की प्रक्रिया के दौरान एक मत से पराजित हो गयी। मात्र 412 दिन की अवधि वाली 12वीं लोकसभा (10 मार्च, 1999 से 26 अप्रैल 1999 तक) को समय पूर्व भंग कर 13वीं लोकसभा के लिए चुनाव करवाये गए।
इन चुनावों में तीन गठबन्धन थे। भारतीय जनता पार्टी ने सहयोगी राजनीतिक दलों के साथ मिलकर राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन बनाया। इस गठबंधन में भाजपा, तेलगूदेशम, बीजू जनता दल, द्रमुके, शिवसेना, तृणमूल कांग्रेस, इण्डियन नेशनल लोकदल, शिरोमणी अकाली दल, एम. द्रमुक, सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रन्ट, लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी, एम.एस.सी.पी., एम.ए.डी.एम.के. आदि दल शामिल है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दल ने राष्ट्रीय जनता दल (बिहार), अन्नाद्रमुक (तमिलनाडु), राष्ट्रीय लोकदल (उत्तर प्रदेश), केरल कांग्रेस (मणिपुर) एवं मुस्लिम लीग के साथ चुनावी समझौते किये। इसके अतिरिक्त वामपंथी दलों का गठबंधन था। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी एवं अन्य दलों में अकेले अपने बूते पर लड़ना निश्चित किया।
13वीं लोकसभा का चुनाव अभियान निषेधात्मक चुनाव अभियान था, जिसमें राजनीतिक दलों द्वारा अवसरवादी गठजोड़ के चले परस्पर आरोप-प्रत्यारोप, आधारहीन निन्दाएं अपने चरम पर था। पांच चरणों में सम्पन्न ये चुनाव अब तक की सबसे दीर्घ चुनावी प्रक्रिया थी। चुनावों से पूर्व ‘चुनाव पूर्व चुनावी सर्वेक्षण’ पर चुनाव आयोग द्वारा लगाई गयी रोक के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने निर्णय देते हुए इन्हें मतदाता के मूल अधिकार का उल्लंघन माना। अत: चुनाव आयोग ने चुनाव सर्वेक्षणों पर रोक हटा दी।
इन चुनावों में देश के 65 हजार मतदान केन्द्रों में इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से लगभग 6 करोड़ मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
इन चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए जनादेश प्राप्त हुआ था।
मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्वों में 12वीं लोकसभा भंग होने तथा 13वीं लोकसभा के आयोजन के मध्य कारगिल युद्ध में सत्तापक्ष एवं प्रतिपक्ष की भूमिका, भाजपा का क्षेत्रीय दलों में लाभप्रद गठजोड़, कांग्रेस की राजनीतिक भूलें, अटल बिहारी वाजपेयी का नेतृत्व, चुनाव पूर्व गठबंधन के रूप में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का साझा। दृष्टिकोण तथा राज्य स्तर पर सरकारों के कार्यकरण ने मतदान व्यवहार को प्रभावित किया। गठबंधन की राजनीति भाजपा और उसके गठबन्धन की सफलता का मुख्य आधार बन गई।
चौदहवें आम चुनाव, 2004
14वीं लोकसभा के 543 स्थानों के लिए पांच चरणों में क्रमश: 20, 22, 26 अप्रैल तथा 5 एवं 10 मई को चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया। एक ओर कांग्रेस एवं सहयोगी दलों का गठबंधन तथा दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी एवं सहयोगी दलों का एन.डी.ए. गठबन्धन था। 21वीं सदी के प्रथम लोकसभा चुनावों में लगभग 672 करोड़ मतदाता, 6.8 लाख मतदाता केन्द्र एवं 5435 प्रत्याशी थे। इन चुनावों में सारे देश में 10 लाख से अधिक इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ई.वी.एम.) का प्रयोग किया गया।
13 मई को हुई मतगणना तथा चुनाव परिणामों के अनुसार कांग्रेस एवं सहयोगी गठबन्धन को सर्वाधिक 218 स्थान प्राप्त
14वीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के अनुसार केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ। कांग्रेस अपनी सहयोगी दलों के साथ मिलकर संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन का गठन कर केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई। मनमोहन सिंह ने देश के नये प्रधानमंत्री की शपथ ली तथा उनके नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार सत्तारूढ़ हुई।
14वीं लोकसभा के चुनावों में मतदान व्यवहार से संबंधित एक अन्य मुख्य तथ्य है कि राजनीतिक दलों ने इन चुनावों को ‘एक नारा एक नेता’ के आधार पर राष्ट्रपति शैली में चुनाव लड़ने की कोशिश की हो, लेकिन भारतीय राजनीति की अन्तर्निहित विविधताएं भारी पड़ी।
इन चुनावों में विविध-राजनीतिक दलों के युवा प्रत्याशियों को मिली सफलता भी मतदाताओं के मानस को इंगित करती है। उच्च शिक्षित, साफ छवि वाले युवाओं की सफलता भारतीय राजनीति एवं चुनावों व्यवहार में नया संकेत देती है।
पन्द्रहवें आम चुनाव, 2009
15वीं लोकसभा के लिए अप्रैल-मई 2009 में पांच चरणों में चुनाव सम्पन्न हुए। लोकसभा की चुनाव वाली 543 सीटों में से 261 सीटों पर विजय प्राप्त करने वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (United Progessive Alliance-UPA) विजयी रहा। अन्य दावेदार गठबंधन विपक्षी राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन को 163 सीटें प्राप्त हुई। 22 मई, 2009 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यू.पी.ए. सरकार का गठन हुआ। 15वीं लोकसभा के लिए चुनाव परिणाम से संबंधितम अन्य उल्लेखनीय तथ्य थे –
– 15वीं लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारों के लिए दो शपथ पत्र की व्यवस्था थी जिसमें से एक में में उनके आपराधिक जीवन का रिकॉर्ड तथा दूसरे में उनकी सम्पत्ति और शैक्षिक योग्यता का विवरण था। इसे निर्वाचन अधिकारी द्वारा बोर्ड पर लगाने एवं मांगने पर जनता को उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गयी। इन चुनावों में कुल लोकसभा सीटें 543 थी। परिसीमन आयोग द्वारा 2008 में किए गए 499 सीटों के परिसीमन के अनुसार 412 सीटें सामान्य वर्ग के लिए तथा 87 एवं 47 सीटें क्रमश: अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षित थी। पहली लोकसभा में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें क्रमश: 79 तथा 43 थी।
– 15वें आम चुनावों में मतदान व्यवहार के संबंध में उल्लेखनीय है कि मतदाताओं ने स्थिरता के पक्ष में जनादेश दिया। 15वीं लोकसभा में 40 वर्ष से कम उम्र के सांसदों की संख्या 82, जो पिछली लोकसभा की इस संख्या की दुगुनी है और अब तक की अधिकतम। 15वीं लोकसभा में अधिक शिक्षित सांसदों एवं अधिक महिला सांसदों का चुना जाना भी भारतीय मतदाता के मतदान व्यवहार की नवीन प्रवृत्ति का द्योतक रहा।
सोलहवें आम चुनाव, 2014
16वीं लोकसभा के लिए अप्रैल-मई 2014 के दौरान नौ चरणों में चुनावों में भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन ने सफलता प्राप्त की। 26 मई, 2014 को श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने देश के 15वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण की।
16वीं लोकसभा के चुनावों में कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमान स्थापित हुए। इन चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए) को 336 सीटों पर विजय प्राप्त हुई, जिसमें अकेले भारतीय जनता पार्टी ने 282 सीटों पर विजय प्राप्त कर स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। मुख्य प्रतिद्वन्द्वी 10 वर्षों से सत्तारूढ़ रहे कांग्रेस वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन को 58 सीटें प्राप्त हुयी। जिसमें कांग्रेस को 44 सीटें ही प्राप्त हुयी। राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त राजनीतिक दलों में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी को 9 तथा भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी को 1, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी को 6 सीटें जबकि बहुजन समाजवादी पार्टी को एक भी सीट 16वीं लोकसभा के चुनावों में प्राप्त हो सकी।
उल्लेखनीय है कि तीन दशक के अन्तराल के पश्चात् किसी राजनीतिक दल ने अकेले ही स्पष्ट बहुमत लोकसभा में प्राप्त किया है। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय जनता पार्टी लोकसभा में पहली बार स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने वाली गैर कांग्रेसी पार्टी बनी है।
भारत में आम चुनाव, 2019
सत्रहवीं लोकसभा के लिए वर्ष 2019 में हुए साधारण चुनाव
सत्रहवीं लोक सभा के गठन के लिए भारत आम चुनाव, देशभर में 11 अप्रैल से 19 मई 2019 के बीच 7 चरणों में आयोजित कराये गये। चुनाव के परिणाम 23 मई को घोषित किये, जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने 303 सीटों पर जीत हासिल की, और अपने पूर्ण बहुमत बनाये रखा और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 353 सीटें जीती। भाजपा ने 37.36% वोट हासिल किए, जबकि एनडीए का संयुक्त वोट शेयर 60.37 करोड़ वोटों का 45% था। कांग्रेस पार्टी ने 52 सीटें जीती और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 92 सीटें जीती। अन्य दलों और उनके गठबंधन ने भारतीय संसद में 97 सीटें जीती।
लोक सभा चुनाव एवं मतदान व्यवहार के प्रभावक मुद्दे
प्रथम (1951-52), द्वितीय एवं तृतीय लोकसभा चुनाव- स्वतंत्रता के बाद प्रथम तीन लोकसभा चुनावों में मतदाताओं के व्यवहार को प्रभावित करने वाले मुख्य तत्व रहे हैं
– राष्ट्रीय आन्दोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सशक्त भूमिका, भारत के सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए सक्षमता तथा पं. जवाहर लाल नेहरू का लोकप्रिय, सशक्त करिश्मावादी नेतृत्व आदि। कांग्रेस को इन चुनावों में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। कुछ स्थानीय मुद्दे उठाने वाले प्रादेशिक दलों का उदय भी हुआ, जैसे – केरल में मुस्लिम लीग, पंजाब में अकाली दल, मद्रास में द्रविड़ मुनेत्र कडगम, बम्बई राज्य में महागुजरात जनता परिषद तथा महाराष्ट्र में संयुक्त महाराष्ट्र समिति आदि।
चतुर्थ लोकसभा चुनाव (फरवरी 1967)
– मतदाताओं की बदलाव की मनोस्थिति तथा गैर कांग्रेसवाद को अवसर देने की इच्छा, कांग्रेस में पं. नेहरू जैसे करिश्मावादी नेतृत्व का अभाव, 1962 में चीन के आक्रमण के कब्जे में लिये गये क्षेत्र को 1967 तक मुक्त न कर पाना, 1967 चुनाव पूर्व की संकटग्रस्त आर्थिक स्थिति से बढ़ती मंहगाई एवं खाद्यान्न का अभाव, कुछ राज्यों में विरोधी दलों द्वारा संचालित आन्दोलन जैसे जनसंघ द्वारा संचालित गौवध विरोधी आन्दोलन, युवा वर्ग में कांग्रेसी शासन के प्रति असंतोष, अल्पसंख्यक एवं दलित वर्ग द्वारा परम्परागत रूप से कांग्रेस को मत देने के स्थान पर अन्य दलों के प्रति झकाव तथा चुनावपूर्ण कांग्रेस में आन्तरिक गुटबन्दी आदि तत्व प्रभावक थे।
1971 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव-चुनाव पूर्व 1969 में हुई कांग्रेस विभाजन से एक ओर संगठन कांग्रेस तथा दूसरी ओर श्रीमती गांधी के नेतृत्व में सत्ता कांग्रेस की प्रभावशीलता, उनके गरीबी हटाओ एवं आर्थिक समृद्धि का आश्वासन पर विश्वास, विपक्षी दलों द्वारा निर्मित चार दलीय मोर्चे (संगठन कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र दल एवं संयुक्त समाजवादी दल) का कमजोर गठबंधन आदि मतदान व्यवहार के मुख्य मुद्दे थे।
छठी लोकसभा चुनाव (1977)
– भारतीय मतदाता की भारत के लोकतंत्र की प्रतिष्ठा एवं संवैधानिक शासन संस्थाओं को कायम रखने की आकांक्षा, जून 1975 में घोषित आपातकाल के उपरान्त सत्तारूढ़ दल की गयी ज्यादतियां (प्रेस की सेंसरशिप), विपक्षी राजनेताओं की आवश्यक गिरफ्तारी, अनुचित कार्यक्रम एवं अन्य निरंकुश निर्णय) जयप्रकाश नारायण के सहयोग एवं प्रेरणा से चार प्रमुख विपक्षी दलों के गठजोड़ से गठित जनता दल, बढ़ती मंहगाई एवं अतिवादी निर्णयों से आम जनमानस में फैला असंतोष तथा शीर्ष नेतृत्व के प्रति अविश्वास आदि कारकों से प्रभावित होकर मतदान किया गया। यह जनादेश आपातकाल के दौरान सत्तारूढ़ कांग्रेस आई की निरंकुश निर्णयों के विरुद्ध ‘शान्तिपूर्ण विद्रोह’ का प्रतीक था।
सातवीं लोकसभा (जनवरी 1980)
– राजनीतिक स्थायित्व एवं कार्यकुशल शासन की आकांक्षा, लोकसभा पूर्व राजनीतिक दलों द्वारा घोषित प्रधानमंत्री पद के तीन प्रत्याशियों चौधरी चरण सिंह, जगजीवनराम एवं श्रीमती इंदिरा गांधी में से श्रीमती इन्दिरा गांधी का प्रभावशाली व्यक्तित्व 1977 के उत्तरार्द्ध में सत्तारूढ़ जनता पार्टी और बाद में जनता दल (एस), लोकदल की मिली-जुली सरकार में आन्तरिक कलह तत्त्व अव्यवस्था, अस्थिरता चुनाव पूर्व छह माह में बढ़ती मंहगाई, चुनाव के समय जनता पार्टी में घटकवाद एवं अनावश्यक विवाद तथा श्रीमती इन्दिरा गांधी के व्यापक चुनाव अभियान आदि महत्वपूर्ण थे। श्रीमती इन्दिरा गांधी की विजय आपातकाल या अधिनायकवाद का समर्थन नहीं, शिखर पर होने वाली उग्र विवादों की राजनीति के प्रति विरोधी मत था।
आठवीं लोकसभा (दिसम्बर 1984)
– चुनाव पूर्व श्रीमती गांधी की (13 अक्टूबर 1984) हत्या एवं उससे उपजी सहानुभूति लहर, राजीव गांधी के युवा नेतृत्व एवं स्वच्छ छवि का आकर्षण, देश की एकता, अखण्डता एवं राजनीतिक स्थायित्व के पक्ष में नारा, एकजुट विपक्ष का अभाव, आतंकवाद के विरूद्ध सशक्त कार्यवाही आदि प्रभावक तत्व थे।
नवीं लोकसभा के चुनाव (नवम्बर, 1989)
– सत्तारूढ़ दल पर भ्रष्टाचार के आरोपो, बोफोर्स काण्ड, केन्द्र स्तर पर शीर्ष नेतृत्व की धूमिल छवि, केन्द्र एवं राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की प्रशासनिक विफलताओं एवं भ्रष्टाचार का विरोध, राम जन्मभूमि एवं कांग्रेस के विकल्प के रूप में विपक्षी दलों की विद्यमानता, हिन्दी क्षेत्र के मतदाताओं के नेतृत्व के रूप में राजीव गांधी और वी.पी. सिंह के बीच का चुनाव, बदलाव के लिए मतदान आदि प्रभावी तत्व थे।
दसवीं लोकसभा (मई-जून 1991) – स्थानीय मुद्दों की महत्वपूर्ण भूमिका से राज्यों में मतदान व्यवहार की भिन्नता, राजीव गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर, मंडल रिपोर्ट धर्म, जाति के तत्वों का प्रभाव, अक्षम सरकारों का विरोध आदि चुनाव पश्चात् अस्पष्ट जनादेश वाली लोकसभा का गठन हुआ।
ग्यारहवीं लोकसभा (अप्रैल-मई 1996)
– क्षेत्रीय प्रवृत्तियां, क्षेत्रीय मुद्दे एवं क्षेत्रीय दलों का प्रभाव, अखिल भारतीय दल अथवा अखिल भारतीय नेतृत्व का अभाव, स्थानीय प्रश्नों की विद्यमानता, चुनाव पश्चात् विखण्डित जनादेश आदि महत्वपूर्ण तत्व थे।
बारहवीं लोकसभा चुनाव (फरवरी 1998)
– स्थानीय सरकार और योग्य प्रधानमंत्री के साथ-साथ राज्यों के स्तर पर सत्तारूढ़ दलों के कामकाज का मूल्यांकन कर मतदान का प्रयोग किया। 10 राज्यों में सत्तारूढ़ दल अथवा मोर्चे के कामों से असंतोष के कारण उनके विरूद्ध मतदान किया।
तेहरवीं लोकसभा (सितम्बर-अक्टूबर, 1999)
– राष्ट्रीय स्तर पर दो व्यक्तित्वों प्रधानमंत्री के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी अथवा सोनिया गांधी के बीच चयन का मुद्दा, पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार द्वारा कारगिल घुसपैठियों के विरूद्ध की गयी सशक्त सैन्य कार्यवाही, 17 अप्रैल 1999 को विपक्ष द्वारा केवल एक मत से असमय वाजपेयी सरकार को गिराने पर मतदाताओं का आक्रोश, कुशल शासन देने वाले गठजोड़ को समर्थन आदि घटनाएं मुख्य मुद्दे थे।
चौदहवीं लोकसभा (2004)
– भूमण्डलीकरण, उदारीकरण एवं निजीकरण की नीतियों का अप्रत्यक्ष प्रभाव, राज्य सरकारों की उपलब्धियों के गठबंधन का स्वरूप, प्रकृति एवं स्थानीय मुद्दे आदि थे। जनता ने विदेशी मूल के मुद्दे, ‘भारत उदय’, ‘फील गुड’ के नारों को नकारा।
पन्द्रहवीं लोकसभा (2009)
– स्थिरता, केन्द्रीय सत्तारूढ़ शासन के सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों को उचित मानना तथा सत्तारूढ़ शासन विरोधी लहर का – अभाव, राज्यों में सत्तारूढ़ सरकार के कामकाज एवं स्थानीय नेतृत्व के आधार पर मतदान तथा मुद्दों पर आधारित जनादेश के स्थान पर राज्यों के कामकाज के आधार पर मतदान आदि।
सोलहवीं लोकसभा ( 2014)
– कांग्रेस मुक्त भारत, केन्द्र में राजनीतिक स्थिरता, सुशासन नेतृत्व सत्तारूढ़ सरकार विरोधी लहर, गठबंधन के स्थान पर स्थिर शासन तथा सबके विकास एवं सुशासन के लिए बदलाव आदि मतदान व्यवहार के प्रभावक मुद्दे थे। आम चुनावों का मुख्य विषय था नेतृत्व का मुद्दा । बीजेपी के चुनाव प्रचार का जोर यह था कि सत्ताधारी नेतृत्व कमजोर और दुलमुलं है। जिसमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है। नरेन्द्र मोदी ने खुद को एक दृढ़ और निर्णय लेने वाले नेता के तौर पर पेश किया। इन चुनावों पर नेतृत्व का भारी और निर्णायक प्रभाव पड़ा। बीजेपी विजयी रही क्योंकि उसने उम्मीद और सुनहरा भविष्य देने वाला नेतृत्व पेश किया। उम्मीद और दृढ़ नेतृत्व का यह संदेश नकारात्मक संदेश पर भारी पड़ा।
भारत में मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्व
1. जातिवाद – यद्यपि भारत के सभी राज्यों में सामान्यत: जातिवाद का कारक प्रभावी है, लेकिन कुछ राज्यों जैसे उत्तर भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश, अधिक परिलक्षित होता है।
2. नेतृत्व – मतदान व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख तत्व नेतृत्व है। चुनावों में कांग्रेस को सफलता मिलने का एक प्रमुख कारण पं. नेहरू का चमत्कारिक नेतृत्व था।
1977 में श्रीमती गांधी की अलोकतांत्रिक निर्णयों एवं धूमिल छवि के कारण मतदाताओं ने कांग्रेस का समर्थन नहीं किया। दिसम्बर 1984 के लोकसभा चुनावों में राजीव गांधी के युवा एवं सद्भावनापूर्ण व्यक्तित्व के कारण जनता का मतदान कांग्रेस के पक्ष में रहा। किन्तु 1989 के लोकसभा में बोफोर्स प्रकरण को लेकर राजीव गांधी की धूमिल छवि ने मतदान व्यवहार को प्रभावित किया। 1998 एवं 1999 के लोकसभा चुनावों में अटलबिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के करिश्में से भाजपा एवं चुनाव पूर्व भाजपानीत अन्य दलों के गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सफलता प्राप्त हुई। 2014 के 16वीं लोकसभा के चुनावों पर नेतृत्व का भारी एवं निर्णायक प्रभाव पड़ा।
3. स्थिर एवं सुदृढ़ सरकार
भारतीय मतदाता राजनीतिक स्थिरता एवं सुदृढ़ सरकार का आकांक्षी रहा है। 1977 के चुनावों के पूर्व कांग्रेस के पक्ष में मतदान 1977 में गैर-कांग्रेसी दलों की एकजुटता से कांग्रेस का शक्तिशाली विकल्प के रूप में सामने आना, जनता पार्टी की फूट के कारण 1980 में कांग्रेस की पुनः वापसी, 1989 में गठित राष्ट्रीय मोर्चा सरकार की विफलता के पश्चात राजनीतिक ‘स्थिरता के नार पर 1991 में कांग्रेस का समर्थन आदि इसी तथ्य के परिचायक है कि मतदाता ने राजनीतिक स्थायित्व एवं राष्ट्रीय स्तर पर सुदृढ़ टिकाऊ सरकारों का समर्थन किया है।
4. आर्थिक कारक
मतदान व्यवहार का एक मुख्य कारक आर्थिक कारक है। भूख और भूखमरी का मुकाबला करने के लिए राजनीतिक संकल्प और इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में उपयोगी कृषि नीति, अकालग्रस्त स्थिति में आपातकालीन राहत के उपाय, प्याज की कीमतें, भूमि सुधार कानून, सरकार की अनीति से किसानों की आत्महत्या, आर्थिक सुधारों की तेज रफ्तार, मंहगाई, आदि आर्थिक मुद्दों से राजनीति का प्रभावित होना अथवा गरीबी हटाओं जैसे नारे इस तथ्य के परिचायक है कि आर्थिक कारक मतदान व्यवहार को प्रभावित करते
5. दलीय विचारधारा एवं नीति
डा. इकबाल नारायण का यह निष्कर्ष उचित प्रतीत होता है कि “भारतीय मतदाताओं का सामान्य वर्ग कम तथा प्रबुद्ध वर्ग राजनीतिक दलों की विचारधारा तथा नीति से अधिक प्रभावित होता है। भारतीय मतदाता राजनीतिक दलों द्वारा घोषित विचारधारा से सीमित रूप से प्रभावित होते है। उसमें भी सकारात्मक विचारधारा एवं नीतियों के प्रति उनका रूझान अधिक होता है, जैसे-1971 के चुनावों में प्रचलित कांग्रेस द्वारा प्रसारित ‘गरीबी हटाओ’ कार्यक्रम।
6. क्षेत्रवाद- भारत में क्षेत्रवाद की प्रवृति ने भी मतदान व्यवहार को प्रभावित किया है। असम में असम गण परिषद, झारखण्ड में झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, आन्ध्रप्रदेश में तेलगूदेशम एवं तेलंगाना में तेलंगाना विकास परिषद, तमिलनाडू में डी.एम.के. अन्नाद्रमुक, टी.एम.सी., पंजाब में अकाली दल, कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस, केरल, त्रिपुरा एवं पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों एवं तृणमूल कांग्रेस, महाराष्ट्र में शिवसेना एवं महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे), तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्रीवादी दल तथा नागालैण्ड एवं मेघालय के क्षेत्रीय दलों ने क्षेत्रवाद की प्रवृति के आधार पर चुनावों में सफलता प्राप्त की है। अत: क्षेत्रीय राजनीतिक दल क्षेत्रीय हितों के पैरोकार के रूप में मतदान का ध्रुवीकरण करते हैं।
7. धर्म एवं साम्प्रदायिकता – भारत में मतदाताओं का मतदान व्यवहार धर्म एवं साम्प्रदायवाद से भी प्रभावित रहा है। प्रत्येक चुनाव से पूर्व धर्म एवं साम्प्रदायिकता के नाम पर लामबंदी एवं ध्रुवीकरण से राजनीतिक दलों में विविध धर्मों के प्रति अनावश्यक तनाव को भी जन्म दिया है।
8. भाषाई लगाव – भारत में भाषा का तत्व मतदान व्यवहार को प्रभावित करता है। दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों द्वारा हिन्दी विरोध को सफलतापूर्वक चुनावी मुद्दा बनाया गया।
9. राजनीतिक दल अथवा प्रत्याशी की जीत की सम्भावना – भारतीय मतदाता अपने मत के प्रयोग में प्रायः अत्यधिक सतर्क है। मतदाता चुनावी लहर से प्रभावित होता है।
10. वंशवाद एवं सामन्तशाही का प्रभाव – राष्ट्रीय स्तर पर नेहरू-गांधी परिवार राज्यों के स्तर पर मुलायम सिंह यादव परिवार, ठाकरे परिवार, बादल परिवार, शेख अब्दुल्ला परिवार आदि की मौजूदगी से चुनावी हिस्सेदारी प्रभावित हुई है।
11. शहरी मतदाता का उभार – मतदान व्यवहार का एक नवीनतम निर्णायक पहलू राजनीतिक-जनसांख्यिक बदलाव का हैं।
12. प्रचार युद्ध एवं सोशल मीडिया – चुनाव के प्रचार में सोशल मीडिया पर हमलों के तहत ट्विटर, फेसबुक व यू ट्यूब पर नकली फोटो, अपमानजनक टिप्पणियां आदि का प्रयोग किया जाता है। फरवरी 2015 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भी सीधे लोगों से संवाद करने की नीति को अपनाया और सकारात्मक चुनाव प्रचार से सफलता प्राप्त की।
डॉ. एस.पी. वर्मा एवं प्रो. इकबाल नारायण, अपनी कृति ‘वोटिंग बिहेवियर इन चेन्जिंग सोसाइटी’ में स्पष्ट करते हैं कि – “सर्वप्रथम मतदान में भाग लेने वाले लोगों का अनुपात जनसंख्यात्मक लक्षणों और सामाजिक-आर्थिक पद के अनुसार बदलता रहता हैं मतदान में भाग न लेने की प्रवृति उनमें भी अधिक होती है। जिन्हें कम राजनीतिक सूचना प्राप्त है अथवा जिस पर संचार के साधनों व अन्य दबावों का प्रभाव कम है।
भारत में निर्वाचन व्यवस्था की विशेषताएं
1. चुनाव श्रम साध्य कार्य-भारत में चुनाव एक भीमकाय कार्यवाही है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में केवल संख्या की दृष्टि से ही चुनाव कराना यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया में एक चुनाव कराने जैसा है। भारत में 80 करोड़ से अधिक मतदाता है। समूचे देश में मतदाता केन्द्रों की संख्या लगभग 9 लाख तथा लगभग 60 से 80 लाख के बीच चुनाव कर्मियों की व्यवस्था करनी होती है। मतदान में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए 30 लाख सुरक्षाकर्मियों की जरूरत होती है।
2. मतदाता की वृद्धि राजनीतिक प्रबुद्धता- भारत में निर्वाचन प्रणाली की एक अन्य विशेषता स्वतंत्रता के बाद हुए चुनावों में निरन्तर बढ़ती मतदाता की राजनीतिक प्रबुद्धता है।
3. एक निर्वाचक क्षेत्र से एक प्रतिनिधि – सम्पूर्ण देश को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त किया गया हैं। किसी चुनाव क्षेत्र में सबसे अधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार विजयी घोषित किया जाता है। निर्वाचन प्राप्त मान्य मतों की बहुलता के आधार पर या प्रथम सीमान्तर स्तम्भ पद्धति के अनुसार होता है। इसे फर्स्ट-पास्ट -द पोस्ट (एफपीटीपी) सिस्टम भी कहा जाता है।
4. उम्मीदवार के निर्धारण की स्वतंत्र प्रक्रिया – राजनीतिक दलों अथवा समूहों के लिए अपने उम्मीदवारों को चुनने की कोई निर्दिष्ट प्रक्रिया नहीं है।
5. एक व्यक्ति एक वोट तथा सार्वभौम वयस्क मताधिकार – सार्वभौम वयस्क मताधिकार अर्थात प्रत्येक नागरिक बिना किसी भेदभाव के 18 वर्ष की आयु होने पर मतदाता के रूप में पंजीकृत होने तथा अपनी पसंद के उम्मीदवार को चुनने का हकदार है।
6. निर्वाचन संचालन हेतु प्रतिरोधात्मक उपबंध
7. ऐच्छिक मतदान – ऐच्छिक मतदान अर्थात भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो मतदाता को वोट देने के लिए बाध्य करता हो। उल्लेखनीय है कि स्थानीय निकाय चुनावों में अनिवार्य मतदान को लागू करने के लिए कानून बनाने वाला गुजरात देश का पहला राज्य था। 2014 में गुजरात लोकल ऑथोरिटीज (अमेन्डमेन्ट) एक्ट 2009 निर्मित कानून को लागू करने के लिए बनायी गयी नियमावली में बिना किसी वैध कारण के मतदान न करने पर जुर्माने का प्रावधान किया गया था। किन्तु इस कानून की वैधता को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा 21 अगस्त 2015 को रोक लगात हुए कहा है कि मतदान का अधिकार’ अपने आप में मतदान से अलग रहने का भी अधिकार देता है, ऐसे में इसे ‘मतदान का कर्तव्य’ के रूप में नहीं बदला जा सकता। इस नियमावली का कार्यान्वयन उच्च न्यायालय की रोक हटने पर निर्भर करेगा।
8. निर्वाचित प्रतिनिधित्व का स्वतंत्र प्रतिनिधित्व का अधिकार – निर्वाचित प्रतिनिधि को अपने मतदाताओं को किए गए वादों को पूर्ण करने के लिए कोई बाध्यता नहीं है।
9. मतदाता सूचियां एवं पहचान पत्र – मतदान हेतु मतदाता के लिए यह आवश्यक है कि उसका नाम मतदाता सूची में मौजूद है। प्रत्येक संसदीय एवं विधानसभा चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में नाम एवं पहचान पत्र होने अनिवार्य है।