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उपलब्धि/निष्पत्ति परीक्षण || Achievement Test

Written by thenotesadda.in

उपलब्धि/निष्पत्ति परीक्षण (Achievement Test)

व्यक्ति अपने जीवन में अनेक प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उपलब्धि परीक्षण से चलता है।
● उपलब्धि परीक्षण द्वारा किसी विशेष कार्य क्षेत्र में छात्रों द्वारा अर्जित किए गए ज्ञान एवं कौशल को मापा जाता है।
● विद्यालय में औपचारिक शिक्षण के लिए उपलब्धि का मापन आवश्यक है। शिक्षा प्रक्रिया को पूर्ण एवं प्रभावशाली बनाने एवं अधिगम स्रोतों के कुशल प्रयोग हेतु विशेष प्रेरणा एवं निर्देशन की आवश्यकता होती है। उपलब्धि परीक्षण यह जानने के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं कि बालक ने क्या और कितना सीखा है तथा वह कोई कार्य कितनी भली-भाँति कर सकता है। इस प्रकार बालक विद्यालय में रहकर जो कुछ सीखता है, उसे हम उपलब्धि या निष्पत्ति (Achievement) कहते हैं तथा इस उपलब्धि की जाँच हेतु जो परीक्षाएँ आयोजित की जाती हैं, उन्हें उपलब्धि/निष्पत्ति परीक्षण (Achievement Test) कहते हैं।
अत: उपलब्धि परीक्षण वह परीक्षण है, जिसकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

परिभाषाएँ
सुपर :- “एक उपलब्धि या निष्पत्ति परीक्षण यह ज्ञात करने के लिए प्रयोग किया जाता है कि बालक ने क्या तथा कितना सीख लिया है अथवा वह कोई कार्य कितनी अच्छी तरह से कर सकता है।”

गे :- “उपलब्धि परीक्षण द्वारा ज्ञान या कौशल के किसी विशेष क्षेत्र में व्यक्ति की अर्जित निपुणता की वर्तमान स्थिति की माप होती है।”

फ्रीमैन :– “शैक्षिक उपलब्धि परीक्षण ऐसा परीक्षण है, जिसके द्वारा कोई विशिष्ट विषय या विषयों के समूह में अर्जित किए गए ज्ञान, बोध या कौशल की माप होती है।”

गैरीसन :– “उपलब्धि परीक्षण बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती है।”

एबिल :– “उपलब्धि परीक्षण वह परीक्षण है, जिसका निर्माण छात्रों के किसी ज्ञान को समझने अथवा किसी विशेष कौशल की दक्षता का मापन करने के लिए किया जाता है।”

लिंडक्विस्ट एवं मन :– “एक सामान्य निष्पत्ति परीक्षण वह है, जो एक ही फलांक द्वारा निष्पत्ति के किसी दिए हुए क्षेत्र में बालक के सापेक्षित ज्ञान का बोध करवाए।”

हेनरी चोनसी :– “प्रत्येक निष्पत्ति परीक्षण में छात्रों को किसी न किसी रूप में अपने द्वारा प्राप्त ज्ञान का इस प्रकार प्रदर्शन करना पड़ता है, जिससे कि उसका अवलोकन तथा मूल्यांकन किया जा सके।”

सैक्स :– “मानवीकृत शैक्षिक उपलब्धि परीक्षण द्वारा पाठ्यचर्या क्षेत्र, जो अधिकतर स्कूल में सामान्य है, में छात्रों के शिक्षण की मात्रा को मापा जाता है।”

प्रेसी, रॉबिन्स व हॉरक्स :– “उपलब्धि-परीक्षणों का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है।”

थॉर्नडाइक व हेगन :– “जब हम उपलब्धि-परीक्षण का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत व्यक्ति ने क्या सीखा है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से उपलब्धि परीक्षण के स्वरूप के बारे में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त होते हैं-
● उपलब्धि परीक्षण दिए गए ज्ञान तथा कौशल का मापन करता है।
● निष्पत्ति परीक्षण से वर्तमान प्रगति का पता चलता है।
● उपलब्धि परीक्षण से छात्रों द्वारा किसी विशेष क्षेत्र में अर्जित निपुणता तथा ज्ञान को मापा जाता है।
● प्राय: उपलब्धि परीक्षण एक मानकीकृत विधि पर आधारित होता है। फलस्वरूप इससे प्राप्त परिणामों द्वारा छात्रों के एक समूह की उपलब्धि की तुलना छात्रों के दूसरे समूह की उपलब्धि से की जा सकती है।

उपलब्धि परीक्षण के उद्देश्य
1. इस परीक्षण द्वारा छात्रों द्वारा अर्जित निपुणता को मापा जाता है।
2. बालकों की उपलब्धि के सामान्य स्तर को निर्धारित करना।
3. पाठ्यक्रम के लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर बालकों की प्रगति की जानकारी करना।
4. बालकों की विभिन्न विषयों और क्रियाओं में वास्तविक स्थिति का पता लगाना।
5. ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिए गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करना।
6. शिक्षण विधियों की उपयुक्तता की जाँच करना।
7. प्रचलित पाठ्यक्रम में आवश्यक परिवर्तन करना।
8. बालकों की प्रगति का तुलनात्मक अध्ययन करना।
9. यह पता लगाना कि शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हुई या नहीं।
10. बालकों की अधिगम कठिनाइयों का पता लगाना।
11. बालकों में विभिन्न कौशलों का विकास करना।

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उपलब्धि परीक्षणों के प्रकार
डगलस एण्ड हॉलैण्ड के अनुसार, उपलब्धि परीक्षण के निम्नलिखित प्रकार हैं-

1. मानकीकृत परीक्षण (Standard Test)
मानकीकृत परीक्षण में सब छात्र समान निर्देंशों और समय की समान सीमाओं के अंतर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

मानकीकृत परीक्षण की विशेषताएँ :-
● इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
● इनका निर्माण, परीक्षण निर्माण के निश्चित नियमों और सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है।
● जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसकी कक्षा के सैकड़ों-हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्विवाद बनाया जाता है अथवा प्रमापित किया जाता है।
● इनमें दिए गए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अंदर करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।

2. अमानकीकृत/शिक्षक निर्मित परीक्षण (Teachers made Tests)
शिक्षक निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षण का निर्माण किया जाता है। एक ही विषय पर दो शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अंतर हो सकता है, फलस्वरूप उनका प्रयोग करके छात्रों के ज्ञान का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है इसलिए शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है।

मानकीकृत व शिक्षक निर्मित परीक्षणों में अंतर

क्रमानकीकृत परीक्षण (Standard Test)शिक्षक निर्मित परीक्षण (Teachers made Test)
1.मानकीकृत परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।शिक्षक-निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक द्वारा अकेले और बिना किसी विशेष सहायता के किया जाता है।
2.मानकीकृत परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।शिक्षक निर्मित परीक्षण को केवल उसी के विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
3.मानकीकृत परीक्षणों में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है।शिक्षक निर्मित परीक्षणों में बहुत कम विश्वसनीयता होती है।
4.मानकीकृत परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा-सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है।शिक्षक-निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।
5.मानकीकृत परीक्षण के निर्माण के लिए बहुत समय और धन की आवश्यकता होती है।शिक्षक-निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय और धन पर्याप्त है।


उपलब्धि परीक्षण का निर्माण/चरण
उपलब्धि परीक्षण निर्माण में निम्नलिखित पदों का अनुकरण करते हैं-
1. परीक्षण की योजना बनाना। (Planning of the test)
2. परीक्षण की तैयारी। (Preparation of the test)
3. परीक्षण का प्रशासन (Administration of the test)
4. परीक्षण का अंकन या फलांकन (Scoring of the test)
5. परीक्षण का मूल्यांकन (Evaluation of the test)

उपलब्धि परीक्षण के कार्य
उपलब्धि परीक्षण के निम्नलिखित कार्य हैं-
1. श्रेणी-विभाजन या वर्गीकरण
2. शैक्षिक निर्देशन व परामर्श
3. व्यक्तिगत शिक्षण
4. अधिगम हेतु प्रेरित एवं निर्देशित करना।
5. निर्देशकों या अध्यापकों को लक्ष्य
6. शैक्षिक स्तर बनाए रखना।
7. शिक्षण विधि के चयन में सहायता देना।
8. अध्यापक एवं विभागों का मूल्यांकन करना।

उपलब्धि परीक्षण एवं निदानात्मक परीक्षण में अंतर

क्रउपलब्धि परीक्षण
(Achievement Test)
निदानात्मक परीक्षण
(Diagnostic Test)
1.इन परीक्षणों के माध्यम से छात्र की विषय विशेष की योग्यता का मापन किया जाता है। (छात्र कितना जानता है?)इन परीक्षणों का उद्देश्य ऐसे कारकों तथा त्रुटियों की खोज करना है, जो छात्र की विषय विशेष की प्रगति में बाधक है। (छात्र कितना नहीं जानता है?)
2.उपलब्धि परीक्षणों के मानक राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किए जाते हैं।इसमें यह संभव प्रतीत नहीं है।
3.इन परीक्षणों के परिणामों के आधार पर परीक्षक अथवा अध्यापक छात्र की भविष्य की चयन प्रक्रिया, नियोजन, कक्षोन्नति अथवा वर्गीकरण प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।इन परीक्षणों की कठिनाइयों के निवारण हेतु उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करता है।
4.उपलब्धि परीक्षणों के मानक राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किए जाते हैं।इन परीक्षणों का विषय क्षेत्र सामान्यत: कुछ ही कौशलों की प्राप्ति तक सीमित रहता है।
5.ये परीक्षण कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी पर प्रशासित किए जा सकते हैं।ये परीक्षाएँ केवल उन्हीं विद्यार्थियों को दी जाती हैं, जो कक्षा में अपेक्षित प्रगति करने में कठिनाई का अनुभव कर रहे होते हैं।
6.इन परीक्षणों के शताशीय मानक तथा ग्रेड तुल्य मानक आसानी से तैयार किए जा सकते हैं।इन परीक्षणों के लिए ये दोनों ही प्रकार के मानक स्थापित करना संभव नहीं है।
7.इन परीक्षणों का अंकन, प्रशासन एवं व्याख्या सरल है।इन परीक्षणों का अंकन, प्रशासन एवं व्याख्या अपेक्षाकृत अधिक कठिन है।
8.इन परीक्षणों में समय एवं शक्ति कम मात्रा में व्यय होती है।इन परीक्षणों में समय एवं शक्ति अधिक मात्रा में व्यय होती है।
9.इसमें समय सीमा होती है।इसमें समय सीमा नहीं होती है।
10.इस परीक्षण में अंक प्रदान किए जाते हैं।छात्रों को कोई अंक प्रदान नहीं किए जाते हैं।


निदानात्मक परीक्षण (Diagnostic Test)

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● शैक्षिक मापन तभी पूर्ण व सार्थक समझा जाता है, जब उपलब्धि परीक्षा के बाद कमजोर छात्रों को निदानात्मक परीक्षा भी दी जाए जिससे उनकी अधिगम कठिनाइयों के कारणों की जानकारी हो सके।
● नैदानिक परीक्षा वह परीक्षा होती है। जो इस बात का निदान करती है कि विद्यार्थियों ने किन परिस्थितियों में गलतियाँ करते हैं, इनकी त्रुटि किस प्रकार की है, त्रुटियों करने के क्या कारण है? आदि।
● नैदानिक परीक्षाएँ भी एक प्रकार से उपलब्धि परीक्षाएँ ही होती हैं जबकि उनका उद्देश्य विद्यार्थियों की गलतियों का पता लगाना होता है।
● नैदानिक परीक्षाओं का मुख्य उद्देश्य छात्रों की गणित सम्बन्धी कठिनाइयों एवं कमजोरियों का पता लगाना है।
● मूलत: निदान (Diagnosis) शब्द का प्रयोग चिकित्सा विज्ञान में रोगी का इलाज करने से पूर्व उसके लक्षणों का पता लगाने के लिए किया जाता है।
● बालकों की कठिनाइयों एवं कमजोरियों का पता लगाने के लिए जिन परीक्षाओं का प्रयोग किया जाता है।
● निदानात्मक परीक्षण व्यक्ति की जाँच करने के पश्चात् किसी एक या अधिक क्षेत्रों में उसकी विशेषताओं एवं कमियों को व्यक्त करता है। इन परीक्षाओं में उपलब्धि परीक्षणों की भाँति अंक प्रदान नहीं किए जाते हैं बल्कि एक कमी या गलती के कारणों का पता लगाया जाता है। इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण विषय-वस्तु को विभिन्न भागों में बाँट लिया जाता है तथा प्रत्येक भाग से संबंधित नियमों, सूत्रों संक्रियाओं आदि को प्रश्न-पत्र में सम्मिलित किया जाता है। इसमें दिए गए प्रश्न किसी एक प्रकरण विशेष से संबंधित होते हैं।
● निदानात्मक परीक्षणों में प्रश्नों को अधिगम क्रम में व्यवस्थित किया जाता है।
● प्रत्येक अधिगम इकाई के लिए अलग से निदानात्मक परीक्षण का निर्माण किया जाता है।
● नैदानिक परीक्षण के विभिन्न क्षेत्रों में, जिनमें वह दिया गया है। व्यक्ति की निर्बलता या सबलता प्रकट करते हैं। नैदानिक परीक्षण अध्यापक को यह जानने की सहायता देते हैं कि कहाँ पर उसके द्वारा दी गई शिक्षा सफल हुई और कहाँ पर विफल?
● सामान्य उपलब्धि परीक्षण के भी बहुत से रूप होते हैं जो अध्यापक द्वारा कक्षा आदि में दिए जाते हैं परन्तु यह अप्रत्यक्ष रूप से नैदानिक भी हो जाते है, क्योंकि किसी विषय में ज्ञानोपार्जन की कमी यह स्पष्ट कर देती है कि शिक्षक की सफलता उस समय में कम है।

परिभाषा –
● मर्सेल के अनुसार – जिस शिक्षण में बालकों की विशिष्ट त्रुटियों का निदान करने का विशेष प्रयास किया जाता है उनको बहुधा निदानात्मक परीक्षण कहते हैं।

● योकम व सिम्पसन – निदान किसी कठिनाई का उसके चिह्नों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला का कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।

● गुड के अनुसार – अधिगम संबंधी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण करना।

● गुड व ब्राफी – “निदानात्मक परीक्षण अधिगम में छात्रों की कठिनाइयों के विशिष्ट स्वरूप का निदान करने के लिए, उनके उत्तरों की सावधानी से जाँच करने की प्रक्रिया का उल्लेख करता है।”

● स्किनर – आधार रूप में निदान एवं उपचार साथ-साथ चलते हैं।

● योकम व सिम्पसन – “साधारणत: निदानात्मक शिक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण एक-दूसरे में इस प्रकार गुँथे हुए हैं कि विश्लेषण एवं विवेचन के कार्यों के अतिरिक्त उनको पृथक करना असम्भव है।” 

नैदानिक परीक्षण के उद्देश्य (Aims of Diagnostic Test)
निदानात्मक परीक्षण के उद्देश्य निम्नलिखित है–
1. अधिगम-अनुभव तथा अधिगम-प्रक्रिया के अवरोधक तत्त्वों को ढूँढ़ना एवं उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करना।
2. पिछड़े बालकों की पहचान करना।
3. पाठ्यक्रम परिवर्तन लाना एवं उसे बालकेन्द्रित बनाना।
4. अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में सुधार करना।
5. विषय संबंधी विशिष्टताओं एवं कमजोरियों का पता लगाना।
6. विद्यार्थियों की कमियों एवं अच्छाइयों के आधार पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देना।
7. मूल्यांकन प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने हेतु मूल्यांकन पद्धतियों में परिवर्तन करना।
8. उपलब्धि परीक्षण हेतु परीक्षण पदों के प्रकार निर्धारित करने में सहायता देना।

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निदानात्मक परीक्ष के स्तर (Levels of Diagnosis)–
शैक्षिक निदान के मुख्य रूप से 5 स्तर माने जाते हैं–
1. सर्वप्रथम विभिन्न परीक्षणों के माध्यम यह प्रयास किया जाता है कि कौन-से छात्र कठिनाई का सामना कर रहे हैं अर्थात् समस्याग्रस्त बालक की पहचान की जाती है।
2. उसके बाद उस क्षेत्र को पहचाना जाता है, जहाँ बालक गलती कर रहे हैं।
3. उसके बाद त्रुटियों के कारणों का पता लगाया जाता है। यह प्रक्रिया जटिल है। ज्यादातर इसमें शिक्षक का तर्क कार्य करता है।
4. कारण पता हो जाने के बाद उपचार क्या किया जाए इस पर विचार किया जाता है। यह समस्या की प्रकृति पर ही निर्भर करता है।
5. उपचार देने के बाद ही प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती है। बल्कि इनके परिणामों को ध्यान में रखकर यह भी विचार किया जाता है कि ऐसा क्या किया जाए कि वे समस्याएँ उत्पन्न ही न हो।

निदानात्मक परीक्षणों की आवश्यकता एवं महत्त्व –
1. शैक्षिक निदान की आवश्यकता केवल समस्या-ग्रस्त बालकों को नहीं अपितु सामान्य बालकों को भी होती है।
2. निदानात्मक परीक्षाओं की आवश्यकता बालकों की विषयगत व विशेष इकाई में कठिनाई स्तर जानने में पड़ती है।
3. कठिनाई उत्पन्न करने वाले प्रश्नों की विषय-वस्तु का विश्लेषण करने हेतु इसकी आवश्यकता पड़ती है।
4. विषय-वस्तु के विश्लेषण के अलावा मानसिक प्रक्रिया के विश्लेषण में भी शैक्षिक निदान की आवश्यकता होती है।
5. शैक्षिक निदान इस तथ्य का भी पता लगाता है कि छात्र किन-किन मानसिक प्रक्रियाओं को सफलतापूर्वक सम्पादित नहीं कर पा रहा है।
6. शैक्षिक निदान की आवश्यकता अध्यापक को पठन-पाठन की स्थितियों को प्रभावशाली बनाने हेतु होती है।
7. शैक्षिक निदान द्वारा बालक की वांछनीय एवं वास्तविक उपलब्धियों की दूरी को समाप्त किया जा सकता है।
8. विद्यालय में अपव्यय व अवरोधन के कारणों को जानने का अच्छा साधन है। विद्यार्थी विद्यालय क्यों छोड़ते है तथा जिस उद्देश्य हेतु उन्होंने प्रवेश लिया था वह पुरा हुआ या नहीं। इनके कारणों का पता लगाना।
9. अच्छे निर्देशन परामर्श एवं शिक्षण हेतु महत्त्वपूर्ण है।
10. छात्रों की कमियों को दूर करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करने में सहायक है।
11. शैक्षिक निदान मूल्यांकन प्रकिया को अत्यधिक प्रभावित करता है।
12. निदानात्मक परीक्षाओं में निश्चित समय नहीं दिया जाता है। आवश्यकतानुसार ये एक से अधिक बार भी आयोजित की जा सकती है।
13. निदानात्मक परीक्षा में बालकों को अंक प्रदान नहीं किए जाते है इसमें यह ज्ञात किया जाता है कि कौन-कौन से प्रश्न त्रुटिपूर्ण है अथवा बालकों ने हल ही नहीं किए हैं।
14. किसी विशेष क्षेत्र में बालकों की कठिनाई और कमजोरी दूर करने का प्रयास किया जाता है।
अत: सार रूप में यह कह सकते हैं कि शिक्षण प्रक्रिया में निदानात्मक परीक्षण का बहुत महत्त्व है।
यह प्रक्रिया अध्यापक और विद्यार्थी दोनों के ही परिश्रम और समय को व्यर्थ होने से बचाती है तथा उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता प्रदान करती है।

निदानात्मक परीक्षण का निर्माण (Construction of Diagnostic Test)–
निदानात्मक परीक्षण की रचना में निम्न पदों का अनुसरण किया जाता है–

निदान की विधियाँ (Methods of Diagnosis)
परीक्षण विधि में निम्न विधियाँ सम्मिलित है–
1. शैक्षिक परीक्षण विधि
2. मनोवैज्ञानिक परीक्षण विधि
3. उपचारात्मक शिक्षण विधि

निदानात्मक परीक्षण के परिणाम –
1. निदानात्मक परीक्षण छात्रों की अध्ययन संबंधी अनुचित आदतों पर अंकुश लगाता है।
2. निदानात्मक परीक्षण छात्रों में विद्यालय-कार्य के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास करता है।
3. निदानात्मक परीक्षण छात्रों की विशिष्ट समस्याओं की संख्या का अधिक से अधिक कम करता है।
4. निदानात्मक परीक्षण छात्रों की अध्ययन सम्बन्धी अनुचित प्रवृत्तियों को वैज्ञानिक विधि से उनके समक्ष उपस्थित करता है।
5. निदानात्मक शिक्षण – छात्रों को उनकी त्रुटियों का ज्ञान प्रदान करता है।

उपचारात्मक शिक्षण

● उपचारात्मक शिक्षण, वास्तव में नवीन नहीं है क्योंकि प्राचीन काल से आज तक योग्य शिक्षक अपने छात्रों के अधिगम-संबंधी दोषों को दूर करके, उनकी गति के पथ को प्रशस्त करने का प्रयास करते चले जा रहे हैं।

परिभाषा –
● योकम व सिम्पसन – “उपचारात्मक शिक्षण उस विधि को खोजने का प्रयत्न करता है, जो छात्र को अपनी कुशलता या विचार की त्रुटियों को दूर करने में सफलता प्रदान करें।”

● ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन – “उपचारात्मक शिक्षण, वास्तव में उत्तम शिक्षण है, जो छात्र को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान प्रदान करता है और जो सुप्रेरित क्रियाओं द्वारा उसको अपनी कमजोरियों के क्षेत्रों में अधिक योग्यता की दिशा में अग्रसर करता है।”

उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य –
1. विद्यार्थियों की ज्ञान-संबंधी त्रुटियों का अन्त करना।
2. विद्यार्थियों के अधिगम-संबंधी दोषों को दूर करके, उनको भविष्य में उन दोषों से मुक्त रखना।
3. विद्यार्थियों की दोषपूर्ण आदतों, कुशलताओं एवं मनोवृत्तियों को समाप्त करके, उनको उत्तम रूप प्रदान करना।
4. विद्यार्थियों को उन आवश्यक आदतों, कुशलताओं एवं मनोवृत्तियों को सिखाना, जो उनके द्वारा सीखी नहीं गई है।
5. छात्रों की अवांछनीय रुचियों, आदतों एवं दृष्टिकोणों को वांछनीय रुचियों, आदर्शों एवं दृष्टिकोणों में परिवर्तित करना।
6. योकम व सिम्पसन के अनुसार उपचारात्मक शिक्षण का उद्देश्य-सब प्रकार की अधिगम संबंधी त्रु    टियों को शुद्ध करने के लिए प्रभावशाली विधियों का विकास करना।
● उपचारात्मक शिक्षण का विषय क्षेत्र – वाचन, उच्चारण, लेखन, भाषा और गणितीय कौशल।
● उपचारात्मक कार्य से संबंधित अधिकांश साहित्य, विद्यालय-विषयों के अधिगम में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों के उपचार बताने का प्रयास करता है।

उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने की विधियाँ –
योकम एवं सिम्पसन के अनुसार – विद्यार्थिंयों को उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने के लिए निम्नलिखित पाँच विधियों का प्रयोग किया जा सकता है–
1. विद्यार्थियों की त्रुटियों को यदा-कदा शुद्ध करना।
2. प्रत्येक छात्र के अधिगम संबंधी दोषों का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करके उसे उनको दूर करने के उपाय बताना।
3. विद्यार्थियों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार उनको विभिन्न समूहों में विभाजित करके उनके शिक्षण की व्यवस्था करना।
4. विद्यार्थियों को छोटे-छोटे समूहों में विभाजित करके उनको, उनकी आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा प्रदान करना।
5. कक्षा के छात्रों के अधिगम संबंधी दोषों, कमजोरियों और बुरी आदतों का निदान करके उनको उनसे मुक्त करना।

Note – उपचारात्मक शिक्षण में शिक्षक निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षण उपयोगी है।

उपचारात्मक शिक्षण के परिणाम –
● उपचारात्मक शिक्षण के जिन परिणामों के फलस्वरूप छात्र यह अनुभव करता है, उनका वर्णन योकम एवं सिम्पसन ने निम्न प्रकार से किया है–
1. विद्यार्थियों में सामान्य समायोजन की क्षमता में।
2. विद्यार्थियों की अपनी विशिष्ट कठिनाइयों पर विजय।
3. विद्यार्थियों की मानसिक एवं संवेगात्मक संघर्षों से मुक्ति ।
4. विद्यार्थियों में अपने विचारों को सुनियोजित करने की योग्यता।
5. विद्यार्थियों में अधिक स्पष्ट रूप से विचार करने और अपने विचारों को व्यक्त करने की योग्यता।
6. उपचारात्मक शिक्षण के सहगामी परिणाम है – छात्रों के आत्मविश्वास में वृद्धि सफल उपलब्धि से प्राप्त होने वाला सन्तोष और भावी कठिनाइयों से बचने के लिए उत्तम अधिगम एवं अध्ययन की विधियों का उत्तम प्रयोग।

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