● यह मूल्यांकन का ही भाग होता है। जिसका सामान्य अर्थ- सूचनाओं को एकत्रित करने की प्रक्रिया से है।
● सीखने-सीखाने की प्रक्रिया के दौरान ही बच्चों के सीखने में रह गई कमियों को पहचानने की प्रक्रिया है।
● सीखने-सीखाने के दौरान ही आकलन के लिए विभिन्न कार्यनीतियों का उपयोग करते हुए साक्ष्य इकट्ठे किए जाते हैं। उनका विश्लेषण करना, इसके अन्तर्गत बच्चों को आवश्यकतानुसार समय पर सहायता देने के लिए शिक्षकों द्वारा अपनी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की समीक्षा व सुधार भी शामिल है।
● हुबा व फ्रीड के अनुसार – आकलन सूचना संग्रहण तथा उस पर विचार विमर्श की प्रक्रिया है। जिसके माध्यम से यह जान सकते हैं कि बालक क्या समझता और जानता है।
● इरविन के अनुसार – आकलन छात्रों के अधिगम व विकास के व्यवस्थित आधार का मूल्यांकन है यह किसी भी वस्तु को परिभाषित कर चयन, रचना, संग्रहण, विश्लेषण, व्याख्या व सूचनाओं का उपयुक्त प्रयोग कर छात्र विकास व अधिगम को बढ़ाने की प्रक्रिया है।
● आकलन का प्रयोजन निश्चय ही सीखने-सीखाने की प्रक्रियाओं एवं सामग्री का सुधार करना है और उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो स्कूल के विभिन्न चरणों के लिए तय किए गए हैं। यह पुनर्विचार और सुधार इस आधार पर किया जा सकता है कि शिक्षार्थियों की क्षमता किस हद तक विकसित हुई। यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहाँ इस आकलन का मतलब विद्यार्थियों का नियमित परीक्षण कतई नहीं है। बल्कि दैनिक गतिविधियाँ और अभ्यास के उपयोग से अधिगम का बहुत ही अच्छा आकलन हो सकता है।
● सुनियोजित आकलन और नियमित प्रगति रपट शिक्षार्थियों को उनके काम की प्रतिपुष्टि देते हैं। और साथ ही वे मानक भी स्थापित करते हैं। जिनको पाने के लिए विद्यार्थी प्रयासरत रहते हैं।
● विश्वसनीय आकलन एक रपट देता है या अध्यापन के एक कोर्स के खत्म होने का प्रमाण पत्र देता है या जिससे दूसरे स्कूलों, शैक्षिक संस्थानो, समुदाय और भावी मालिको (रोजगार देने वालों) को अधिगम की गुणवत्ता और सीमा के बारे में जानकारी मिल जाती है।
आकलन के प्रकार –
1. रचनात्मक आकलन (Formative) – यह आकलन शिक्षण काल में होता है। यह पता लगाने के लिए होता है कि क्या विद्यार्थियों ने विशिष्ट कलाओं में पर्याप्त दक्षता प्राप्त कर ली है।
● यह आकलन विद्यार्थियों को पृष्ठपोषण देने के लिए किया जाता है।
2. योगात्मक आकलन (Summative) – इस आकलन में मापन की भूमिका सब सीखी हुई कुशलताओं में निष्पादन का एक सम्पूर्ण अवलोकन देना है।
आकलन की पद्धति –
● समसामयिक अनुसंधान आकलन के तीन मुख्य उद्धेश्यों पर प्रकाश डालता है, जो निम्न प्रकार है–
(A) अधिगम के लिए आकलन (Assessment for Learning)
● इस आकलन में दो चरण शामिल है–
(i) निदानात्मक आकलन (ii) रचनात्मक आकलन
● अधिगम के लिए आकलन में पोर्टफोलियो, कार्य प्रगति पत्रक, शिक्षक अवलोकन व बातचीत आधारित हो सकते हैं।
(B) अधिगम के रूप में आकलन (Assessment as Learning)
● यह छात्रों के द्वारा सीखने-सीखाने की प्रक्रिया के दौरान होता है।
● स्वयं की शक्तियों की पहचान करवाने के लिए उपयोगी अर्थात् स्वयं का स्वयं के द्वारा आकलन।
(C) अधिगम का आकलन (Assessment of Learning)
● यह आकलन कार्य समाप्ती पर किया जाता है।
● इसमें ग्रेड द्वारा परिणाम प्रदर्शित किया जाता है। (योगात्मक मूल्यांकन के रूप में)
● विद्यार्थियों के उपलब्धि की सूचना दी जाती है।
मापन (Measurement)
● मापन क्रिया में विभिन्न पक्षों के संबंध में साक्षियों (evidences) का संकलन किया जाता है। मापन किसी वस्तु या उपलब्धि का संख्यात्मक मान है। उदाहरण के लिए राम का वजन 40 किलोग्राम है, कुसुम की बुद्धि-लब्धि 140 है, श्याम के गणित में 90% अंक हैं आदि।
● मापन द्वारा यह पता लगाया जा सकता है कि कोई वस्तु गुण या विशेषता में कितनी है?
● इस प्रकार मापन से अंक प्रदान किए जाते हैं तथा किसी गुण या विशेषता के प्रतीक निर्धारित किए जाते हैं जिससे परिमाण का सही ज्ञान हो सके।
● मापन, मूल्यांकन का ही भाग है अर्थात् मूल्यांकन में मापन निहित होता है।
परिभाषा
हैल्मस्टेडर – “मापन को किसी व्यक्ति या पदार्थ में निहित विशेषताओं के आंकिक वर्णन की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है।”
ब्रेडफील्ड तथा मोरेडॉक – “किसी तथ्य के विभिन्न आयामों को प्रतीक प्रदान करना ही मापन कहलाता है।”
एस.एस. स्टीवेन्स – “मापन किन्ही निश्चय स्वीकृत नियमों के अनुसार वस्तुओं को अंक प्रदान करने की प्रक्रिया है।”
रेमर्स, गेज और रूमल – “मापन से यह पता चलता है कि कोई वस्तु कितनी है? जबकि मूल्यांकन यह बताता है कि वस्तु कितनी अच्छी है?”
ई.बी. वैस्ले – “मापन, मूल्यांकन का वह भाग है जो प्रतिशत, मात्रा, अंकों, मध्यांक और मध्यमान द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।”
मापन के स्तर
● मापन के अंतर्गत व्यक्तियों, घटनाओं, वस्तुओं, शील गुणों अथवा विशेषताओं को संख्यात्मक या परिमाणात्मक रूप प्रदान किया जाता है।
● व्यावहारिक रूप से मापन की मुख्यत: चार विधियाँ प्रचलित हैं। मापन की इन विधियों को मापनी या स्तर भी कहते हैं।
● एस.एस. स्टीवेन्स ने मापन की यथार्थता के आधार पर मापन के चार स्तर बताए हैं-
i) शाब्दिक मापनी स्तर – (Nominal Scale)
- यह मापन की सबसे निम्न श्रेणी की मापनी
- इसमें वस्तुओं, घटनाओं अथवा विशेषताओं को उनके किन्हीं निश्चित गुणों के आधार पर अलग-अलग समूहों में रखा जाता है। उस समूह की पहचान के लिए उसे कोई संख्या, चिह्न अथवा नाम दे दिया जाता है।
- इस समूह की एक विशेषता होती है कि उस समूह के सभी व्यक्ति या तत्त्व आपस में तो समान होते हैं परंतु किसी दूसरे समूह से बिल्कुल भिन्न होते हैं।
- इस स्तर के मापन के लिए प्रश्नावली तथा निरीक्षण प्रविधि का प्रयोग किया जाता है।
ii) क्रम-सूचक या क्रमिक मापनी (Ordinal Scale)
- शाब्दिक मापनी की अपेक्षा क्रमिक मापनी अधिक परिशुद्ध।
- इस मापनी में घटनाओं, व्यक्तियों अथवा विशेषताओं को किसी गुण या समानता के आधार पर बढ़ते हुए क्रम या घटते हुए क्रम में व्यवस्थित करके उन्हें श्रेणी प्रदान की जाती है।
iii) अन्तराल मापनी (Interval Scale)
- यह मापनी या स्तर क्रमिक की अपेक्षा अधिक शुद्ध विकसित तथा विस्तृत सूचनाएँ प्रदान करता है क्योंकि यह मापनी विभिन्न इकाइयों के मध्य अंतर को भी स्पष्ट करती है।
- यह स्तर एक प्रकार से गुणात्मक आँकड़ों को परिमाणात्मक आँकड़ों में प्रस्तुत करता है।
iv) अनुपात मापनी (Ratio Scale)
- सबसे अधिक प्रचलित तथा लोकप्रिय मापनी है क्योंकि इसके द्वारा मापन अत्यधिक यथार्थ तथा शुद्ध रहता है।
- मापन की यह वस्तुनिष्ठ, विश्वसनीय तथा वैज्ञानिक मापनी है।
- इस मापनी की प्रमुख विशेषता निरपेक्ष शून्य बिन्दु (Absolute Zero) है।
- इस शून्य बिन्दु का संबंध किसी घटना, शीलगुण अथवा विशेषता की शून्य मात्रा से होता है।
- अनुपात मापनी स्तर में निरपेक्ष शून्य बिन्दु, मापनी का प्रारंभिक बिन्दु माना जाता है। इसी के द्वारा हम दो स्थानों या विशेषताओं के मध्य दूरी का अनुपात लगा पाते हैं तथा कह सकते हैं कि A स्थान की तुलना में B स्थान कितना अधिक पास या दूर है।
- इस मापनी का प्रयोग मुख्य रूप से भौतिक शास्त्र के विभिन्न चरों- तापक्रम, भार, आयतन आदि का मापन करने के लिए किया जाता है।
मापन के कार्य
मनोवैज्ञानिक और शैक्षिक मापन के अनेक कार्य हैं, जिनकी वजह से मापन शिक्षा की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण अंग बन गया है। मापन के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
मूल्यांकन (Evaluation)
● मूल्यांकन (Evaluation) एक निर्णय देने की प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि कक्षा अध्यापन द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है? अर्थात् अध्यापक यह देखना चाहता है कि उसके विद्यार्थियों ने प्राप्त ज्ञान को किस सीमा तक समझा है, उनकी रुचि तथा व्यवहार में कहाँ तक परिवर्तन हुआ है, उनकी विषय के प्रति अभिरुचि कितनी है, उनकी बुद्धि का स्तर क्या है आदि-आदि। यह सब मिलाकर ही मूल्यांकन की प्रक्रिया पूर्ण समझी जाती है।
● इस प्रकार शिक्षा में मूल्यांकन से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमें अध्यापक एक छात्र की शैक्षिक उपलब्धि (Educational Achievement) का पता लगाता है।
● प्रायः मूल्यांकन और परीक्षा मापन में अधिक अन्तर नहीं समझा जाता है परन्तु वास्तव में परीक्षा, मूल्यांकन का केवल एक अंग अथवा पक्ष ही है। मूल्यांकन करने के लिए अध्यापक को समय-समय पर विभिन्न प्रकार के मापन करने पड़ते हैं अथवा परीक्षा लेनी होती है। अंकन (Scoring) के बाद मापन का कार्य रुक किया जाता है। ये अंक सांख्यिकी (Statistics) के द्वारा विभिन्न रूपों में जोड़े-तोड़े (Manipulation) जाते हैं। किन्तु, मूल्यांकन इससे बहुत आगे तक जाता है, क्योंकि यह मापन द्वारा प्राप्त अंकों के आधार पर मूल्यात्मक निर्णय (Value Judgement) देना चाहता है।
● इस प्रकार, मूल्यांकन में मापन और मूल्यात्मक निर्णय समाविष्ट हैं। मूल्यांकन एक गुणात्मक निर्णय करने की प्रक्रिया है, जबकि मापन का रूप आँकिक है। मापन के बिना मूल्यांकन सम्भव नहीं है। मापन की सीमाएँ होती हैं तथा किसी सीमा के बाहर हम तथ्यों या गुणों का मापन नहीं कर सकते।
मूल्यांकन : अर्थ एवं परिभाषा
Evaluation : (Meaning and Definition)
● शिक्षा का सम्बन्ध बालक के सर्वांगीण विकास से है। शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करके बालक का सर्वांगीण विकास भलीभाँति किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से मूल्यांकन शिक्षा के उद्देश्यों शैक्षिक उद्देश्यों पर आधारित रहता है। मापन द्वारा विभिन्न गुणों, योग्यताओं, अथवा विशेषताओं के परिमाण के बारे में जानकारी प्राप्त होती है कि अमुक छात्र या छात्रा ने 50 में से 35 या 40 अंक प्राप्त किए, परन्तु 50 में से 35 या 40 अंक प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं होता है। अध्यापक को यह भी जानना होता है कि छात्र के प्राप्तांक कितने अच्छे (How Good) हैं? अतः मूल्यांकन के अन्तर्गत किसी गुण, योग्यता अथवा विशेषता का मूल्य निर्धारित किया जाता है अर्थात् मूल्यांकन द्वारा परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों ही प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त होती हैं जिनके आधार पर बालक की योग्यता एवं उपलब्धियों का आंकलन किया जाता है। मूल्यांकन के शाब्दिक अर्थ को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है :-
● इस प्रकार मूल्यांकन का आशय मापन के साथ-साथ मूल्य निर्धारण से है अर्थात् अधिगम-अनुभवों द्वारा विद्यार्थी में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन किस सीमा तक हुए? इसका मूल्य निर्धारण करके निर्णय देना है। अतः मापन मूल्यांकन का ही भाग है तथा सदैव उसमें निहित रहता है।
● राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान, दिल्ली की पुस्तक ‘Concept of Evaluation’ के अनुसार मूल्यांकन प्रक्रिया में मुख्यतः निम्न तीन बातों के सम्बन्ध में निर्णय किया जाता है-
i) शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई?
ii) उद्देश्य प्राप्त करने की विधि/प्रविधि कितनी प्रभावी रही?
iii) अधिगम-अनुभव कितने प्रभावी उत्पादक रहे?
उपर्युक्त तीनों बिन्दु मिलकर मूल्यांकन प्रक्रिया को पूरा करते हैं। इन तीनों के सम्बन्ध को त्रिभुजाकार आकृति से निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है :-
● शैक्षणिक उद्देश्य, अधिगम-अनुभव तथा मूल्यांकन दोनों को प्रभावित करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि उद्देश्यों के आधार पर अधिगम-अनुभवों की योजना तैयार की जाती है और वांछित उद्देश्य प्राप्त हुए या नहीं, इसकी जाँच के लिए मूल्यांकन किया जाता है। मूल्यांकन से प्राप्त परिणामों का विश्लेषण करके यह पता लगाया जाता है कि अधिगम-अनुभव बालक में उचित ढंग से व्यवहारगत परिवर्तन कर रहे हैं अथवा नहीं। अतः ये दोनों एक दूसरे का निर्धारण करते हैं तथा आपस में प्रभावित होकर परिवर्तित भी होते रहते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शिक्षण और अधिगम दोनों मूल्यांकन की ही विषय-वस्तु हैं, क्योंकि इनके द्वारा शिक्षण तथा अधिगम की उपयुक्तता का पता लगाया जा सकता है।
● कोठारी आयोग (Kothari Commission) ने अपने प्रतिवेदन (Report) में स्पष्ट किया है कि- “मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है तथा शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया का अभिन्न अंग है। यह शिक्षा के उद्देश्यों से पूर्णरूप से सम्बन्धित है। मूल्यांकन के द्वारा शैक्षिक उपलब्धि की ही जाँच नहीं की जाती बल्कि उसके सुधार में भी सहायता मिलती है।”
परिभाषाएँ (Definitions)
1. क्विलेन व हन्ना – विद्यालय द्वारा बालक के व्यवहार में लाए गए परिवर्तनों के सम्बन्ध में प्रमाणों के संकलन और उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया को मूल्यांकन कहते हैं।
2. डान्डेकर – मूल्यांकन एक ऐसी क्रमबद्ध प्रक्रिया है जो हमें यह बताती है कि बालक ने किस सीमा तक किन उद्देश्यों को प्राप्त किया है।
3. गुड्स – मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे सही ढंग से किसी वस्तु का मापन किया जा सकता है।
4. मुफ्फात – मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है तथा यह बालकों की औपचारिक शैक्षिक उपलब्धि की उपेक्षा करता है। यह व्यक्ति के विकास में अधिक रुचि रखता है। यह व्यक्ति के विकास को उसकी भावनाओं, विचारों तथा क्रियाओं से सम्बन्धित वांछित व्यवहारगत परिवर्तनों के रूप में व्यक्त करता है।
मूल्यांकन की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम कह सकते हैं कि मूल्यांकन वह सतत् प्रक्रिया है जिसके माध्यम से यह निर्धारित (निर्णय) किया जाता है कि छात्रों ने शिक्षण का किस सीमा तक अधिगम किया है तथा शिक्षण अधिगम से उनके ज्ञान एवं व्यवहार में कितनी उन्नति हुई है। इस आधार पर मूल्यांकन से संबंध में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि-
● मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है। यह मापन एवं परीक्षण की तुलना में काफी विशद् एवं व्यापक सम्प्रत्यय है।
● मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है।
● इसका सीधा संबंध शिक्षा के उद्देश्यों से होता है।
● यह छात्रों के परिणामों की गुणवत्ता, मूल्य एवं प्रमाणिकता के आधार पर उनके भावी कार्यक्रमों का निर्धारण करता है।
● मूल्यांकन द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के संदर्भ में शिक्षक, शिक्षार्थी, शिक्षण विधियों तथा शैक्षिक व्यवस्था की गुणवत्ता कैसी रही? इस सबकी व्यापक जाँच और मापन पूरी तरह संभव है।
● इसके द्वारा विद्यार्थियों के वांछित व्यवहारगत-परिवर्तनों के संबंध में साक्षियों का संकलन किया जाता है। इससे विद्यार्थी के व्यवहार के सभी पक्षों में आने वाले परिवर्तनों की जानकारी प्रदान करने में मदद मिलती है।
● मूल्यांकन का प्रमुख प्रयोजन छात्रों में हुए व्यवहारगत-परिवर्तनों की दिशा, प्रकृति एवं स्तर के संबंध में निर्णय करना है।
● यह शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है।
● यह शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के परिणामों का परिमाणात्मक एवं गुणात्मक विवरण प्रस्तुत करता है।
मूल्यांकन के उद्देश्य –
मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
● बालकों के व्यवहार-संबंधी परिवर्तनों की जाँच करना।
● बालकों की दुर्बलताओं तथा योग्यताओं की जानकारी प्रदान करने में सहायता देना।
● नवीनतम एवं प्रभावी शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों की खोज करना।
● अनुदेशन की प्रभावशीलता का पता लगाना।
● प्रचलित शिक्षण विधियों तथा पाठ्य-पुस्तकों की जाँच करके उनमें अपेक्षित सुधार करना।
● बालकों का विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकरण करना।
● बालकों की अधिगम कठिनाइयों का पता लगाना।
● बालकों को उत्तम ढंग से सीखने के लिए प्रोत्साहित करना।
● बालकों की व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उन्हें जानकारी प्रदान करना।
● पाठ्यक्रम में आवश्यक संशोधन करना।
● परीक्षा प्रणाली में सुधार करना।
● निर्देशन एवं परामर्श हेतु उचित अवसर प्रदान करना।
● अध्यापकों की कार्यकुशलता एवं सफलता का मापन करना।
● शिक्षण-व्यूह रचना में सुधार एवं विकास करना।
● निदानात्मक तथा उपचारात्मक शिक्षण पर बल देना।
मूल्यांकन की आवश्यकता एवं महत्त्व –
मूल्यांकन की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्न बिन्दुओं की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है-
● मूल्यांकन के द्वारा बालकों की मानसिक शक्ति, रुचि तथा उनके दृष्टिकोण का अनुमान लगाया जा सकता है।
● यह बालकों को योग्यतानुसार विभिन्न समूहों में विभाजित करने के लिए आवश्यक है।
● छात्रों को व्यावसायिक एवं शैक्षिक निर्देशन देने के लिए आवश्यक है।
● इसके द्वारा अधिगम-प्रक्रिया में सुधार होता है।
● पाठ्यक्रम-पाठ्य-पुस्तक एवं शिक्षण-विधियों में सुधार करने हेतु यह अत्यन्त आवश्यक है।
● इसके द्वारा छात्रों को अपनी कमजोरी तथा मजबूत स्थिति का पता लगता है।
● मानकों का निर्धारण करने हेतु मूल्यांकन करना अति आवश्यक है।
● बालकों की कक्षोन्नति और कक्षा विभाजन में सुविधा प्रदान करता है।
● परीक्षा प्रणाली में आवश्यक सुधार करता है।
मूल्यांकन एवं मापन में अन्तर
(Difference between Evaluation and Measurement)
मापन एवं मूल्यांकन में निम्नलिखित अंतर हैं-
मूल्यांकन | मापन | ||
1. | इसका क्षेत्र व्यापक है। यह छात्र के संपूर्ण व्यक्तित्व के संबंध में मूल्यों का अंकन करता है। | इसका क्षेत्र सीमित है। मापन व्यवहार के कुछ एक आयामों को ही प्रतीक प्रदान करता है। | |
2. | छात्र की स्थिति का वर्णन इस प्रकार से किया जाता है कि उससे तुलनात्मक अध्ययन संभव होता है। | मापन के द्वारा तुलनात्मक अध्ययन संभव होता है। | |
3. | मूल्यांकन के लिए अधिक श्रम, शक्ति, धन तथा साधन की आवश्यकता पड़ती है। | मापन के लिए अधिक समय, श्रम, साधन तथा धन की आवश्यकता नहीं पड़ती है। | |
4. | मूल्यांकन में अंक प्रदान करने के बाद मूल्यों का निर्धारण किया जाता है। जैसे 65 अंक प्राप्त करने वाले छात्र की कक्षा में क्या स्थिति है। मूल्यांकन बताता है कि 65 अंक प्राप्त करने वाला छात्र कक्षा में प्रथम है, द्वितीय है अथवा कुछ और स्थान रखता है। | मापन का कार्य केवल अंक प्रदान करना है, इसके आगे कुछ नहीं। यह केवल इतना बताएगा कि छात्र ने भूगोल या गणित में 65 अंक प्राप्त किए। | |
5. | मूल्यांकन के आधार पर छात्र के संबंध में स्पष्ट धारणा बनाई जा सकती है और कहा जा सकता है कि छात्र समग्र रूप से कैसा है? | मापन के आधार पर छात्र के संबंध में स्पष्ट धारणा का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। | |
6. | मूल्यांकन-परिणामों के आधार पर छात्र के संबंध में पूर्ण सार्थकता के साथ भविष्यवाणी की जा सकती है। | मापन के द्वारा सार्थक भविष्यवाणी संभव नहीं है। | |
7. | मूल्यांकन में गुणात्मक तथा परिमाणात्मक दोनों ही प्रकार के निर्णय किए जा सकते हैं। यह संख्यात्मक तथा वर्णनात्मक दोनों ही प्रकार का होता है। | मापन में केवल परिमाणात्मक निर्णय ही लिए जाते हैं। यह केवल संख्यात्मक होता है। | |
8. | इसके द्वारा निदानात्मक तथा उपचारात्मक शिक्षण संभव है। | इसके द्वारा निदानात्मक तथा उपचारात्मक शिक्षण संभव नहीं है। |
विशिष्ट मूल्यांकन
1. संरचनात्मक/रचनात्मक/निर्माणात्मक/रूपात्मक आंकलन (Formative Assessment) :- निर्माणात्मक मूल्यांकन शिक्षण काल में होता है। यह पता लगाने के लिए होता है कि क्या विद्यार्थियों ने विशिष्ट कलाओं में पर्याप्त दक्षता प्राप्त कर ली है? क्या इन कलाओं में और आगे शिक्षण देना उचित है?
● निर्माणात्मक मूल्यांकन के अंतर्गत मापन की भूमिका अलग से प्रत्येक कुशलता में जो विद्यार्थी ने सीखी है उसकी दक्षता का पता लगाना है।
● निर्माणात्म्क मूल्यांकन का प्रयोग विद्यार्थी को पृष्ठपोषण देने के लिए किया जाता है।
● निर्माणात्मक मूल्यांकन में कक्षा में बनाए गए परीक्षण अच्छे समझे जाते हैं।
● इसमें ग्रेड प्रदान नहीं किया जाता है।
2. योगात्मक/संकलित आंकलन (Summative Assessment) :- यह मूल्यांकन शिक्षण के अंत में होता हे। यह ग्रेड या श्रेणी परीक्षण काल के अंत में प्रदान करने का आधार है।
● योगात्मक मूल्यांकन में मापन की भूमिका सब सीखी हुई कुशलताओं में निष्पादन का एक संपूर्ण आलोकन देना है।
● योगात्मक मूल्यांकन के लिए प्रमापीकरण परीक्षणों को अच्छा समझा जाता है।
● योगात्मक मूल्यांकन का उपयोग ग्रेड देने के लिए किया जाता है।
FA तथा SA के अंतर को निम्न सारणी द्वारा समझा जा सकता है-
FA | SA | ||
1. | शैक्षिक कार्यक्रम के दौरान (मध्य में) समय-समय पर लिए जाते हैं। | शैक्षिक कार्यक्रम की समाप्ति पर लिए जाते हैं। | |
2. | इनकी प्रकृति सुधारात्मक अर्थात् विकासात्मक होती है। | इनकी प्रकृति निर्णायक होती है। | |
3. | इन आकलनों का उद्देश्य शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन या सुधार करना होता है। | इन आकलनों का उद्देश्य शैक्षिक कार्यक्रम की समाप्ति या बालकों की उपलब्धि का स्तरीकरण करना होता है। (अंक/ग्रेडिंग) | |
4. | ये सीखने के लिए आकलन होते हैं। | ये सीखने का आकलन होते हैं। | |
5. | ये शिक्षकों तथा छात्रों दोनों को प्रतिपुष्टि देते हैं। | संपूर्ण अनुदेशक प्रक्रिया की प्रभावशीलता का परिमाणात्मक/ गुणात्मक आकलन करते हैं। | |
6. | इनके परिणामों को अंतिम परिणाम में शामिल नहीं करते। | इनके परिणाम ही अंतिम परिणाम होते हैं। | |
7. | ये आकलन अनौपचारिक परीक्षणों, मौखिक/लिखित परीक्षणों इकाई परीक्षणों, अवलोकन आदि माध्यम से निरंतर किए जाते हैं। | ये निश्चित तथा पूर्व नियोजित परीक्षाओं जैसे टर्म परीक्षाएँ, अर्द्धवार्षिक या वार्षिक परीक्षाएँ आदि के रूप में किए जाते हैं। |
अच्छी परीक्षाओं के लक्षण (Characteristics of a Good Test)
मूल्यांकन की दृष्टि से एक अच्छी परीक्षा में सामान्यतः निम्नलिखित गुण होने चाहिये-
(1) वस्तुनिष्ठता (Objectivity)
(2) विश्वसनीयता (Reliability)
(3) वैधता (Validity)
(4) विभेदीकरण (Discrimination)
(5) व्यापकता (Comprehensiveness)
(6) कठिनाई स्तर (Difficulty Index)
(7) सहजता (Usability)
(1) वस्तुनिष्ठता (Objectivity) – जिस परीक्षा पर परीक्षक का व्यक्तिगत प्रभाव नहीं पड़ता है, वह परीक्षा वस्तुनिष्ठ कहलाती है। किसी भी परीक्षण के लिए वस्तुनिष्ठ होना बहुत जरूरी है, क्योंकि इसका विश्वसनीयता व वैधता पर बहुत प्रभाव पड़ता है। एक बार स्कोरिंग कुंजी (Scoring Key) बन जाने पर यह प्रश्न ही नहीं उठना चाहिये कि प्रश्न अस्पष्ट तो नहीं है उसके उत्तर के बारे में ठीक से निर्णय नहीं लिया जा सकता। अब मूल्यांकन कोई भी करे छात्र को सदैव उतने ही अंक मिलने चाहिये, इसी को वस्तुनिष्ठता (Objectivity) कहते हैं। निबन्धात्मक परीक्षाओं (Essay Type) में यह बात नहीं होती। इसमें कापियों का मूल्यांकन करते समय परीक्षक का व्यक्तिगत निर्णय अधिक महत्त्व रखता है। यही कारण है कि इन परीक्षाओं के स्थान पर हम नवीन परीक्षा प्रणाली (Objective Type Test) को अधिक प्रयोग में लाते हैं।
(2) विश्वसनीयता (Reliability) – “It refers to the consistency of the measurement.” अर्थात्, यदि किसी परीक्षा के परिणाम समान परिस्थितियों में एक समान बने रहते हैं तो उस परीक्षा को विश्वसनीय (Reliable) माना जाता है। इस प्रकार किसी परीक्षा को विश्वसनीयता परीक्षा में न्यादर्श की मात्रा (Sample Size) तथा अंकों की वस्तुनिष्ठता (Objectiveity in Scoring) पर निर्भर करती है।
Reliability = Sample Size + Objectivity in Scoring.
इसी प्रकार, कोई प्रश्न तभी विश्वसनीय कहा जाएगा जब उसके उत्तर विद्यार्थी की सही उपलब्धि अथवा स्तर का ज्ञान करवाएँ अर्थात् परिणामी अंक त्रुटियों की सम्भावना से मुक्त हों। त्रुटियों की सम्भावना प्रायः निर्देशों की अस्पष्टता के कारण होती है। यह दो स्तरों पर हो सकती है- प्रथम, जब विद्यार्थी प्रश्न का उत्तर दे रहा है और दूसरा, जब परीक्षक उत्तर का मूल्यांकन कर रहा है।
रिजलैंड ने विश्वसनीयता को निम्न प्रकार परिभाषित किया है-
“विश्वसनीयता उस विश्वास (Faith) को प्रकट करती है जो कि एक परीक्षा में स्थापित की जा सकती है।” Reliability refers to the faith that may be placed into a test.)
शैक्सपीयर ने कहा है, “Consistency, thou art the jewel.” प्रकृति में जहाँ कहीं भी एकरूपता है, वहाँ विश्वसनीयता अवश्य समाहित हो जाती है।
(3) वैधता (Validity) – “Validity means truthfulness of the test or purposiveness of a test.”
इसका आशय यह है कि यदि कोई परीक्षण वही मापन करता है जिसके मापन के लिए इसका निर्माण हुआ है तो वह परीक्षण वैध (Valid Test) कहलाता है। इस प्रकार वैधता गुणक (Validity Index) यह सूचित करता है कि किसी परीक्षण ने वस्तुतः उसी विशेषता (Trait) का मापन किस सीमा तक किया है? जिसका मापन करने के लिए वह दावा करता है। उदाहरणार्थ, गणित की परीक्षा को वैध तभी कहेंगे जबकि उसके द्वारा हम गणित की योग्यता का ही मापन करें, इसके अतिरिक्त भाषा की योग्यता, स्वच्छता अथवा सामान्य बुद्धि का नहीं।
किसी परीक्षण की भाँति कोई प्रश्न अपनी वैधता उसी सीमा तक खो देता है जिस सीमा तक वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल नहीं होता। कोई आइटम (Item) वैध नहीं कहलायेगा यदि वह पाठ्यक्रम से सम्बन्धित न हो, जैसे- हम आमतौर पर कहते हैं कि यह पाठ्यक्रम के बाहर है अथवा इसमें कुछ ऐसी अवांछित सामग्री है जिसके मापन का हमारा उद्देश्य नहीं है।
(4) विभेदीकरण (Discrimination) – विभेदीकरण से तात्पर्य परीक्षण के उस गुण से है जिसके द्वारा पढ़ने में तेज, सामान्य एवं पिछड़े छात्रों के मध्य काफी सीमा तक भेद किया जा सके। इसके द्वारा यह जाना जा सकता है कि पूरे परीक्षण पर प्राप्तांकों के आधार पर अधिकतम अंक (Maximum Score) एवं न्यूनतम अंक (Minimum Score) पाने वाले छात्रों को अलग करने में प्रत्येक प्रश्न का क्या योगदान रहा। परीक्षण के आइटमों की विभेदीकरण क्षमता ज्ञात करने के लिए प्रत्येक प्रश्न का विश्लेषण किया जाता है, जिसे पद विश्लेषण प्रक्रिया (Item Analysis) कहते हैं। इससे प्रत्येक प्रश्न के कठिनाई स्तर का पता चल जाता है।
(5) व्यापकता (Comprehensivenss) – व्यापकता के अन्तर्गत परीक्षण का वह प्रारूप आ जाता है जिसके द्वारा परीक्षण उस योग्यता (Trait) के विभिन्न पक्षों का मापन करने में समर्थ हो सकता है जिसके मापन हेतु उसको निर्मित किया गया है। परीक्षण की व्यापकता के बारे में निर्णय करना स्वयं एक निर्माता की सूझ-बूझ एवं क्षमता पर निर्भर करता है। संक्षेप में व्यापकता का अर्थ दो प्रकार से लिया जाता है-
(अ) पाठ्य-वस्तु का समावेश (Coverage of Subject-Matter or Content)
(ब) उद्देश्यों का समावेश (Coverage of Objectives)
(6) कठिनाई स्तर (Difficulty Index) – कठिनाई स्तर प्रश्न का बहुत महत्त्वपूर्ण लक्षण है। सम्पूर्ण प्रश्न पत्र में दिए गए अंकों के वितरण को इसी के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है। उन प्रश्नों में जिनका अंकन ‘शुद्ध अथवा अशुद्ध’ रूप में किया जा सकता है, कठिनाई स्तर की परिभाषा सही प्रश्न हल करने वाले विद्यार्थियों की प्रतिशतता है। निबन्धात्मक तथा लघु उतरीय प्रश्नों में, जो आंशिक रूप से शुद्ध हो सकते हैं, कठिनाई स्तर का सूत्र निम्न है-
जहाँ, X = प्रश्न में उस वर्ग द्वारा प्राप्त अंकों का मध्यमान
A = निर्धारित पूर्णांक
कठिनाई स्तर वास्तव में सुगमता सूचक होता है क्योंकि ज्यों-ज्यों प्रश्न सरलतम होता जाता है, कठिनाई स्तर बढ़ता जाता है। स्पष्टतः यह सूचक एक सामूहिक गुणक है जो शून्य से 100 तक जाता है।
(7) सहजता (Usability) – वह परीक्षण जो निर्माण करने, छात्रों द्वारा उसका उत्तर देने एवं अंकदान करने, तीनों पक्षों की दृष्टि से सरल हो, एक अच्छा परीक्षण कहलाता है। अर्थात्, वह परीक्षण जिसके निर्माण में कठिनाई न हो, छात्रों को भी उसके उत्तर देने में सहजता हो तथा अंकन की प्रक्रिया में भी किसी प्रकार की जटिलता न आए, सहजता के गुण वाला परीक्षण कहलाता है।
मूल्यांकन के उपकरण एवं प्रविधियाँ
सभी प्रकार के मापन में किसी न किसी प्रकार के उपकरण एवं प्रविधि की आवश्यकता है। मूल्यांकन के उपकरण एवं प्रविधियाँ बालक के विकास की दिशा में वांछनीय परिवर्तन लाने के लिए साक्षियों के संकलन का साधन होती हैं। इनकी सहायता से बालक के संबंध में विभिन्न प्रकार की सूचनाएँ एवं साक्षियाँ एकत्रित की जाती हैं, जिनके आधार पर उसके व्यवहार में होने वाले वांछित परिवर्तन का मूल्यांकन किया जाता है।
प्रो. H.S Singha ने अपनी पुस्तक ‘Modern Educational Testing’ में मूल्यांकन के उपकरण एवं प्रविधि के स्थान पर मूल्यांकन युक्तियाँ शब्द का प्रयोग करने का सुझाव दिया है। अपनी पुस्तक में उन्होंने स्पष्ट किया है कि किसी भी विषय में बच्चे की उपलब्धि का मूल्यांकन करने के लिए मूल्यांकन के उपकरण एवं प्रविधियों की आवश्यकता होती है। इनके प्रयोग करने से यह पता लगाया जाता है कि अध्यापक द्वारा प्रदान किए गए अधिगम- अनुभव बच्चों में किस सीमा तक वांछित परिवर्तन लाने में सहायक हैं।
अत: मूल्यांकन के ये विभिन्न उपकरण एवं प्रविधियाँ विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ, व्यापक तथा वेध होनी चाहिए। प्रत्येक व्यवहार के मूल्यांकन के लिए विभिन्न प्रकार की मूल्यांकन युक्तियों की आवश्यकता पड़ती है।
(I) परिमाणात्मक या गुणात्मक प्रविधियाँ
(Quantitative or Qualitative Techniques)
1. मौखिक परीक्षाएँ (Oral Examinations)
● ये परीक्षाएँ सबसे प्राचीन हैं।
● इसकी सहायता से बच्चों की पठन, अर्थ ग्रहण, उच्चारण, श्रवण, भाषण, अनुक्रिया करने एवं साक्षात्कार करने की योग्यताओं का मापन किया जा सकता है।
● इन परीक्षाओं में मौखिक सवाल-जवाब, वाद-विवाद, ड्रामा आदि सम्मिलित रहते हैं।
● इनका अधिकतर प्रयोग विद्यालयी शिक्षा के निम्न स्तर पर किया जाता है।
2. प्रायोगिक परीक्षाएँ (Practical Examinations)
● प्रायोगिक प्रविधियों का प्रयोग बच्चों के मनो-शारीरिक (गामक) पक्ष के उद्देश्यों का मापन करने के लिए किया जाता है।
● इन परीक्षाओं में छात्रों को कुछ कार्य दे दिया जाता है, जिसको वे प्रयोगशाला में स्वयं प्रयोग करके पूरा करते हैं।
● ये परीक्षाएँ करके सीखने एवं अवलोकन द्वारा सीखने के सिद्धांत पर आधारित होती हैं।
● ये परीक्षाएँ क्रिया-आधारित होती हैं।
● ये परीक्षाएँ विज्ञान, गृह विज्ञान, जीव विज्ञान, भूगोल, मनोविज्ञान, चिकित्सा विज्ञान आदि विषयों में अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं।
● इन परीक्षाओं की सहायता से विद्यार्थियों को प्रत्यक्ष अनुभव मिलते हैं, जिससे जटिल विषय-वस्तु तथा वैज्ञानिक नियमों, तथ्यों को सरलता से सीखा जा सकता है।
3. लिखित परीक्षाएँ (Written Examinations)
● ये परीक्षाएँ लिखित रूप से आयोजित की जाती हैं।
● इन परीक्षाओं में छात्रों से लिखित रूप में प्रश्न पूछे जाते हैं, जिनका उत्तर छात्रों को उत्तर-पुस्तिका में लिखना होता है। मौखिक परीक्षाओं की अपेक्षा ये अधिक प्रभावशाली होती हैं।
● ये परीक्षाएँ इकाई, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, छह-मासिक, वार्षिक आदि परीक्षाओं के रूप में हो सकती हैं।
(i) निबंधात्मक परीक्षाएँ (Essay Type Examinations)
● ऐसी परीक्षाएँ जिनमें बालक से कोई भी प्रश्न लिखित या मौखिक रूप से पूछा जाए तो वह उसका उत्तर निबंधात्मक रूप से प्रस्तुत करे। इन परीक्षाओं का प्रयोग बहुत प्राचीन समय से किया जा रहा है।
● आज के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक समय में इनकी उपयोगिता इतनी बढ़ गई है कि इनका उपयोग केवल शिक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि औद्योगिक प्रबंध, सेना अधिकारी आदि सभी अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इनका प्रयोग व्यापक रूप से करते हैं। इस प्रकार इनकी नींव इतनी गहरी है जिसके कारण इन परीक्षाओं को रूढ़िवादी परीक्षाओं के नाम से भी जाना जाता है।
● इन परीक्षाओं से बालक की उपलब्धि के साथ-साथ उसकी अभिव्यक्त करने की क्षमता, लेखन क्षमता, रुचियों अभिवृत्तियों, कुशलताओं आदि का सही-सही मूल्यांकन संभव है। फिर भी निबंधात्मक परीक्षाओं में मूल रूप से इस बात को विशेष महत्त्व दिया जाता है कि परीक्षार्थी अपने सुंदर हस्तलेख एवं भाषा-शैली के आधार तथ्यों को किस कुशलता के साथ तार्किक एवं क्रमबद्ध ढंग से प्रस्तुत कर पाता है।
निबंधात्मक परीक्षणों का महत्त्व
● जब परीक्षार्थियों की संख्या अधिक हो।
● समस्या का त्वरित अध्ययन करना हो।
● परीक्षार्थी की लेखन शैली के विषय में जानना हो।
● व्यक्तिगत समस्याओं का अध्ययन करना हो।
● जब विद्यार्थी में उपयुक्त ज्ञान के चयन करने की योग्यता का पता करना हो।
● जब परीक्षार्थियों की रुचियों, अभिवृत्तियों, मूल्यों तथा व्यक्तित्व गुणों को मापना हो।
निबंधात्मक परीक्षाओं के कार्य
● विद्यार्थियों की विषय-वस्तु संबंधी उपलब्धियों का अध्ययन करना।
● विद्यार्थियों की रुचियों, क्षमताओं, दक्षताओं, दृष्टिकोणों तथा मूल्यों का मापन करना।
● विद्यार्थियों को अधिगम के लिए प्रेरित करके अनुशासन तथा चरित्र निर्माण की भावना विकसित करना।
● किसी विषय में कठिनाइयों का पता लगाकर तत्काल समाधान करना।
● विद्यार्थियों का वर्गीकरण करना।
● विद्यार्थियों के शैक्षिक समायोजन को बनाए रखना।
● विद्यार्थियों का निर्देशन एवं परामर्श करने में सहायता प्रदान करना।
● शिक्षकों के कार्य का मूल्यांकन करना।
● विद्यार्थियों के विचारों, भावनाओं, अभिव्यक्ति की क्षमता तथा आलोचनात्मक प्रवृत्तियों से अवगत करवाना।
निबंधात्मक परीक्षाओं के गुण/विशेषताएँ
● उच्च मानसिक क्रियाओं का मापन।
● व्यक्तित्व एवं चिंतन विधि पर प्रकाश
● भावों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति संभव
● वांछनीय अध्ययन विधियों के विकास में सहायक
● विश्वसनीयता एवं वैधता में बढ़ोतरी संभव
● उचित अध्ययन विधि को प्रोत्साहन
● प्रश्न रचना अत्यधिक सरल।
● विद्यार्थियों को पढ़ाए जाने वाले कुछ पाठ्यक्रमों पर निबंधात्मक प्रश्न ही संभव हैं।
● नकल की कम संभावना।
निबंधात्मक परीक्षाओं के दोष व सीमाएँ
● परीक्षा निपुणता का लाभ
● संपूर्ण पाठ्यक्रम के प्रतिनिधित्व की कमी
● अपर्याप्त न्यादर्श
● एकरूपता की कमी
● रटने पर बल
● आत्मनिष्ठ फलांक व्यवस्था
● उत्तर मूल्यांकन से बालक की स्वयं अनभिज्ञता
● निदानात्मक उपयोग नहीं
निबंधात्मक परीक्षाओं में सुधार संबंधी सुझाव
(a) रचना एवं प्रयोग संबंधी सुधार
● इन परीक्षाओं का उपयोग केवल उन्हीं कार्यों का मापन करने के लिए किया जाना चाहिए, जिनके लिए विशेष रूप से उपयुक्त हो।
निबंधात्मक परीक्षा विशेष रूप से दो प्रकार की परिस्थितियों के लिए उपयुक्त है-
- किसी क्षेत्र में योग्यता की अभिव्यक्ति का मापन करने के लिए।
- किसी विषय में योग्यता का समालोचनात्मक मूल्यांकन करने के लिए।
● वांछित उद्देश्यों की स्पष्टता के लिए सरल भाषा में प्रत्यक्ष प्रश्न पूछने चाहिए।
● प्रश्नों की संख्या अधिक होनी चाहिए ताकि संपूर्ण पाठ्यक्रम का व्यापक रूप से प्रतिनिधित्व हो सके।
● समग्र विकल्प के स्थान पर प्रश्न-वार विकल्प रखा जाए।
● आत्मनिष्ठ तत्त्वों के प्रभाव को कम करने हेतु वस्तुनिष्ठ पदों को भी स्थान मिलना चाहिए।
(b) फलांकन संबंधी सुधार
● मूल्यांकन प्रणाली में वैज्ञानिक तथा तार्किक विधि अपनाई जानी चाहिए।
● परीक्षा-रचना से पूर्व ही फलांकन किस प्रकार करना है, इस बात को महत्त्व देना चाहिए।
● फलांकन से पहले उत्तर-पुस्तिकाओं को विभिन्न वर्गों, उत्तम, सामान्य, औसत तथा अति उत्तम वर्गों में बाँट लेते हैं। ध्यान रहे कि प्रत्येक वर्ग में उत्तर-पुस्तिकाओं का प्रतिशत सामान्य वितरण के आधार पर रहे।
● कोठारी आयोग (1964-66) ने भी लिखित परीक्षाओं में सुधार हेतु मूल्यांकन की नवीन विधियों को अपनाने पर बल दिया, जिससे परीक्षाओं में विश्वसनीयता तथा वैधता लाई जा सके।
● मुदालियर आयोग (1952-53) के अनुसार – निबंधात्मक परीक्षाओं के स्थान पर वस्तुनिष्ठ एवं लघु उत्तरीय प्रश्नों का उपयोग करना चाहिए।
● ऑल इंडिया सेमिनार (1956) ने निबंधात्मक परीक्षाओं के संबंध में स्पष्ट किया है कि वर्तमान प्रश्नों का स्वरूप मूलत: निबंधात्मक है। अत: इनमें अध्यापक को पक्षपात करने का अवसर होता है। इस त्रुटि को दूर करने के लिए प्रश्न-पत्र का स्वरूप निम्न प्रकार होना चाहिए-
– लघु उत्तरीय प्रश्न
– निबंधात्मक प्रश्न
– वस्तुनिष्ठ प्रश्न
(ii) वस्तुनिष्ठ परीक्षण अथवा नवीन प्रकार के परीक्षण
वस्तुनिष्ठ प्रश्न या परीक्षण से तात्पर्य ऐसे परीक्षणों से है जिनकी रचना अध्यापक अपने अनुभवों के आधार पर शिक्षण उद्देश्यों, अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तनों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है।
● ये वस्तुनिष्ठ इसलिए कहलाते हैं क्योंकि इनमें एक निश्चित उत्तर होता है। ये प्रश्न अध्यापक की छात्र के प्रति चाह, इच्छा एवं द्वेष होने पर यथार्थ मूल्यांकन के लिए बाध्य करते हैं।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के प्रकार
(a) साधारण प्रत्यास्मरण
इसके अंतर्गत साधारण प्रश्न पूछे जाते हैं, जिसका एक विशिष्ट उत्तर होता है। छात्र स्मरण शक्ति के आधार पर इनका उत्तर देते हैं। इस प्रकार के प्रश्नों में उत्तर देने के लिए उपयुक्त स्थान दिया हुआ होता है।
उदाहरणार्थ –
निर्देश – नीचे कुछ प्रश्न दिए हैं, उनका उत्तर सामने दिए गए स्थान में भरना है।
1. किस ग्रंथि को मास्टर ग्रंथि कहते हैं? (पीयूष ग्रंथि)
2. विटामिन ‘बी’ की कमी से कौन-सी बीमारी होती है? (बेरीबेरी)
(b) रिक्त स्थान पूर्ति
इस प्रकार के प्रश्नों में अपूर्ण कथन दिए हुए होते हैं। स्मृति के आधार पर छात्रों को इन अपूर्ण कथनों में दिए रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी होती है।
निर्देश – निम्नलिखित कथनों में जो रिक्त, है, उनकी पूर्ति उपयुक्त शब्दों के द्वारा कीजिए-
1. रेडियो का आविष्कार …………….. ने किया था।
2. ‘मास्टर’ की मास्टर ग्रंथि ………….. को कहते हैं।
प्रत्याभिज्ञान रूप (Recognition Type) –
इस प्रकार के प्रश्नों में प्रश्नों के साथ उनके एक से अधिक संभावित उत्तर दिए जाते हैं। छात्र इनमें से सही उत्तर पहचान कर उत्तर का चयन करता है। ये प्रश्न पाँच प्रकार के होते हैं-
(a) एकान्तर अनुक्रिया रूप
इन प्रश्नों को सत्य-असत्य तथा हाँ/नहीं प्रकार के प्रश्न भी कहते हैं।
निर्देश – निम्न प्रश्नों के ‘सत्य’ होने पर ‘सही’ और असत्य होने पर ‘गलत’ को चिह्नितकीजिए-
1. योजना विधि का जन्मदाता किलपैट्रिक है। (सत्य/असत्य)
2. ‘एलीमेन्ट्स’ नामक पुस्तक के लेखक का नाम ‘बोधायन’ है। (सत्य/असत्य)
3. अभिक्रमित-अधिगम के प्रणेता स्कीनर हैं। (सत्य/असत्य)
(b) बहुविकल्पीय रूप
इस प्रकार के प्रश्नों में एक कथन के लिए एक से अधिक उत्तर दिए रहते हैं। छात्र को इनमें से सही उत्तर पहचान कर उसे चिह्नित करना अथवा उनके सामने दिए गए कोष्ठक में लिखना होता है।
निर्देश – निम्न प्रश्नों के चार सम्भावित उत्तर दिए गए हैं। सही उत्तर को कोष्ठक में लिखिए।
1. निम्नलिखित में श्रव्य सामग्री है-
(a) मानचित्र
(b) दूरदर्शन
(c) रेडियो
(d) चलचित्र ( )
2. उद्देश्यों के कितने पक्ष होते हैं-
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच ( )
(c) मिलान रूप परीक्षण (Matching Type)
उदाहरणार्थ-
निर्देश – प्रथम स्तम्भ में लिखित अपूर्ण कथनों को दूसरे स्तम्भ के कथनों में ढूँढ़कर उनका मिलान करो-
स्तम्भ A | स्तम्भ B | |
(i) | विटामिन A | बेरी-बेरी |
(ii) | विटामिन B | रिकेट्स |
(iii) | विटामिन C | रतौंधी |
(iv) | विटामिन D | स्कर्वी |
(d) वर्गीकरण रूप (Classification Type)
इसके अंतर्गत कुछ शब्दों का समूह दिया जाता है, जिनमें एक शब्द अन्य से भिन्न अथवा असंगत होता है। छात्रों को इस शब्द का चयन करके उसे रेखांकित करना होता है।
निर्देश – नीचे कुछ शब्दों के समूह दिए गए हैं। इन शब्दों में से एक शब्द अन्य शब्दों से किसी ने किसी दृष्टि से पूर्णतया भिन्न है। ऐसे शब्दों को रेखांकित कीजिए-
1. P, S, C, H, N
2. प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन, न्यूट्रॉन, पॉजीट्रॉन
3. H2SO4, HNO3, HCl, O2
(e) सादृश्य-अनुभव रूप (Analogy Type)
इनमें दो समान परिस्थितियों को प्रस्तुत किया जाता है। पहली परिस्थिति पूर्ण, दूसरी परिस्थिति अपूर्ण होती है। पहली परिस्थिति के आधार पर समान संबंध स्थापित करते हुए दूसरी परिस्थितियों की पूर्ति की जाती है।
1. नमक : Nacl : : भारी जल :
2. पृथ्वी : ग्रह : : चंद्रमा :
3. लम्बाई : मीटर : : क्षेत्रफल :
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण
- ये बनावट में सरल तथा छोटे होते हैं।
- इन परीक्षण में उत्तर संक्षिप्त तथा केवल एक ही होता है।
- यदि इनकी जाँच विभिन्न परीक्षकों द्वारा की जाए तो उनके द्वारा प्रदान किए गए अंक समान होते हैं।
- इन परीक्षणों का अंकन शीघ्रता एवं सुगमता से किया जा सकता है।
- ये परीक्षण परीक्षकों के व्यक्तिगत प्रभाव से प्रभावित नहीं होते।
- ये परीक्षण अधिक विश्वसनीय तथा वैध होते हैं, क्योंकि इनमें वस्तुनिष्ठता होती है।
- ये परीक्षाएँ रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा नहीं देती।
- ये परीक्षण निर्माण, प्रशासन तथा अंकन की दृष्टि से अधिक व्यावहारिक होते हैं।
- इन परीक्षणों द्वारा छात्रों की कमजोरियों का आसानी से निदान किया जा सकता है।
वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के दोष तथा सीमाएँ
- विचारों का संगठन संभव नहीं होता।
- सभी पदों का निदानात्मक महत्त्व नहीं होता।
- परीक्षा से पूर्व परिचय हो जाना।
- परीक्षा रचना जटिल
- परीक्षा निर्माण में प्रशिक्षण
- अनुमान लगाना संभव
- यथार्थता से कम संबंध
- व्यक्तित्व पर प्रकाश नहीं
- नकल की संभावना अधिक
वस्तुनिष्ठ परीक्षण बनाते समय ध्यान देने योग्य बातें
- प्रश्नों के संबंध में उचित निर्देश अवश्य देने चाहिए।
- बनाए गए वस्तुनिष्ठ प्रश्न मौलिक होने चाहिए।
- प्रश्नों की भाषा द्विअर्थी नहीं होनी चाहिए।
- वस्तुनिष्ठ परीक्षा बनाते समय इनकी वैधता, विश्वसनीय एवं व्यापकता को पूर्णरूपेण दिमाग में रखना चाहिए।
- प्रश्न विषय के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर बनाने चाहिए।
- वस्तुनिष्ठ परीक्षा बनाते समय उसमें ऐसे विज्ञान के प्रश्न न दिए जाएं जो काफी जटिल हों।
वस्तुनिष्ठ परीक्षण की निर्माण विधि
स्टेनले तथा रॉस के अनुसार वस्तुनिष्ठ परीक्षा/परीक्षण के निर्माण में निम्नलिखित चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है-
(i) नियोजन (Planning)
(ii) पदों की रचना (Preparation of items)
(iii) परीक्षण की जाँच (Testing of Test)
(iv) मूल्यांकन करना (Evaluation)
(iii) लघु-उत्तरात्मक परीक्षाएँ (Short-Answer Type Examinations)
लघु-उत्तरात्मक परीक्षाओं में लघु या छोटे प्रश्नों का निर्माण किया जाता है, जिनका छात्रों को लघु (short) उत्तर देना होता है। इन परीक्षणों का मुख्य उद्देश्य कम समय में छात्रों की जानकारी या ज्ञान (Knowledge), योग्यताओं (abilities) और समझ (understanding) की अधिकतम मात्रा (Large amount) का परीक्षण करना होता है। लघु-उत्तरात्मक परीक्षाओं को Supply type Test भी कहते हैं। ये परीक्षाएँ छात्रों की तथ्यात्मक (factual) जानकारी यथा- तारीख, नाम, स्थान आदि के परीक्षण के लिए उपयोगी होती है। इनमें छात्रों की स्मृति का अधिक महत्त्व होता है। इस प्रकार की परीक्षाओं के लिए पदों या प्रश्नों (items) का निर्माण करना अपेक्षाकृत कठिन कार्य होता है, क्योंकि इनमें छात्रों के अपने ज्ञान, अनुभव आदि का संश्लेषण (synthesis) तथा व्याख्या (interpretration) होती है। लघु-उत्तरीय परीक्षणों के अलावा अति लघु-उत्तरात्मक (very-short-answer) प्रकार के प्रश्नों का प्रयोग भी विज्ञान शिक्षण में किया जाता है, जिनमें छात्रों को बिल्कुल सही (pin-pointed) उत्तर देना होता है। लघु-उत्तरात्मक तथा अति-लघु उत्तरात्मक प्रश्न निबंधात्मक प्रश्नों की तुलना की तुलना में उत्तर की लम्बाई की दृष्टि से भिन्न होते हैं। लघु-उत्तरात्मक परीक्षाओं में छात्रों को प्रश्नों के उत्तर एक, दो या तीन पंक्तियों या शब्द सीमा यथा 50 शब्दों, 100 शब्दों आदि में देना होता है, जबकि अति-लघुत्तरात्मक परीक्षाओं में प्रश्नों का उत्तर एक या दो शब्दों में देना होता है, इसलिए इन्हें Supply type examinations भी कहते हैं। उदाहरण-
(अ) लघुत्तरीय प्रश्न (Short Answer Type Items)
1. डाल्टन के परमाणु सिद्धांत के मुख्य बिंदु लिखिए।
2. डी.एन.ए. तथा आर.एन.ए. में तीन अंतर बताइए।
3. प्राथमिक और द्वितीयक सेलों में क्या अंतर है।
4. फैराडे के विद्युत चुम्बकीय प्रेरण के नियम लिखिएँ
(ब) अतिलघुत्तरीय प्रश्न (Very Short Answer Type Items)
1. MKS प्रणाली का पूरा नाम लिखिए।
2. SI प्रणाली का पूरा नाम बताइए।
3. नाभिक में पाए जाने वाले दो मौलिक कणों के नाम बताइए।
4. डी.एन.ए. का पूरा नाम लिखिए।
(II) मूल्यांकन की गुणात्मक प्रविधियाँ
(Qualitative Techniques of Evaluation)
1. अवलोकन प्रविधि (Observational Technique)
इस प्रविधि का उपयोग बालकों की योग्यता और व्यवहारों के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया जाता है। यह प्रविधि छोटे बच्चों के मूल्यांकन के लिए अधिक उपयोगी है, क्योंकि उन्हें कोई अन्य परीक्षा तो दी नहीं जा सकती। उच्च कक्षाओं के विद्यार्थी स्वयं आत्मनिरीक्षण के लिए भी इसका प्रयोग करते हैं। इस प्रविधि द्वारा मूल्यांकन करने पर संबंधित विषय-वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करके तथ्यों का वास्तविक रूप में अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार निरीक्षण या अवलोकन द्वारा एकत्र किए गए आँकड़े एवं सूचनाएँ अधिक विश्वसनीय होती हैं।
पी.वी. यंग के अनुसार – “अवलोकन आँख के द्वारा विचारपूर्वक किया गया अध्ययन है, जिसको सामूहिक व्यवहार एवं जटिल सामाजिक संस्था के साथ-साथ संपूर्ण का निर्माण करने वाली पृथक् इकाइयों का सूक्ष्म निरीक्षण करने की एक प्रणाली के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।”
अवलोकन को परिभाषित करते हुए मोजर ने स्पष्ट किया है कि – अवलोकन का अर्थ कानों और वाणी की अपेक्षा आँखों का प्रयोग करना है।
अवलोकन के प्रकार (Types of Observation)
मुख्यत: अवलोकन का निरीक्षण निम्न प्रकार का होता है-
- नियंत्रित अवलोकन – यह नियंत्रित तथा निश्चित परिस्थितियों में किया जाता है।
- अनियंत्रित अवलोकन – यह अनियंत्रित तथा अनिश्चित परिस्थितियों में किया जाता है।
- बाह्य अवलोकन – यह किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा किया जाता है।
- आंतरिक या स्व–प्रेरित अवलोकन – इसमें व्यक्ति को स्वयं अपना विवरण देने के लिए कहा जाता है।
- निर्देशित अवलोकन – यह पहले से तैयार की गई सूची के आधार पर नियंत्रित परिस्थितियों में किया जाता है।
- अनिर्देशित अवलोकन – यह अनियंत्रित तथा अनिश्चित परिस्थितियों में किया जाता है।
- स्वाभाविक अवलोकन – इसमें बालक के दिन-प्रतिदिन के क्रिया-कलापों का निरीक्षण स्वाभाविक ढंग से किया जाता है।
- प्रमापीकृत अवलोकन – इसमें बालक को विशेष परिस्थितियों में कुछ प्रमापीकृत निष्पादन परीक्षाएँ दी जाती हैं।
- उपपत्ति अवलोकन – इसमें अवलोकनकर्ता केवल उन्हीं परिस्थितियों का अवलोकन करता है, जिनके लिए उसे कहा जाता है।
- सहभागी अवलोकन – इसमें जिस बालक या समूह का अवलोकन होता है, अवलोकनकर्ता उस समूह में एक अनजान की भाँति सहभागी होकर अवलोकन करता है।
- असहभागी अवलोकन – इसमें अवलोकनकर्ता किसी ऐसे स्थान पर बैठकर या छिपकर अवलोकन करता है, जहाँ से वह उस समूह की सभी गतिविधियों का अवलोकन कर सके।
अवलोकन की प्रक्रिया (Process of Observation)
अवलोकन या निरीक्षण या प्रेक्षण की प्रक्रिया निम्न पदों में संपन्न की जाती है-
2. आकस्मिक निरीक्षण विधि (Anecdotal Record)
इस अभिलेख के आधार पर विद्यार्थियों के संबंध में सामान्यीकरण किया जा सकता है और निर्देशन में इसे प्रयुक्त किया जा सकता है। इस आलेख में विद्यार्थियों के व्यवहार से संबंधित महत्त्वपूर्ण घटनाओं तथा कार्यों का वर्णन किया जाता है। आकस्मिक निरीक्षण अभिलेख में निरीक्षणकर्ता द्वारा बालकों की रुचियों तथा दृष्टिकोण को उत्पन्न करने वाले कारकों या घटकों (factors) का भी उल्लेख किया जाता है। इसके द्वारा मुख्यत: बालक के सामाजिक गुणों तथा समायोजन का अध्ययन आसानी से किया जा सकता है।
3. जाँच सूची (Check List)
जाँच सूची का प्रयोग बालक की अभिरुचियों, अभिवृत्तियों तथा भावात्मक पक्ष की जाँच के लिए किया जाता है। इसकी सहायता से किसी विशिष्ट गुण या विशेषता की उपस्थिति (presence) अथवा अनुपस्थिति (absence) का पता लगाया जाता है। जाँच सूची में कुछ कथन दिए होते हैं, उन कथनों के संबंध में ‘हाँ’ (Yes) या ‘नहीं’ (No) में उत्तर देना होता है। इस सूची का निर्माण करते समय उद्देश्यों की स्पष्टता पर ध्यान रखना चाहिए। प्रत्येक कथन को किसी विशेष उद्देश्य का मापन करना चाहिए। उदाहरण के लिए-
आप दैनिक पाठ योजना निर्माण में रुचि लेते हैं। (हाँ/नहीं)
आप शिक्षण करने में आनंद की अनुभूति करते हैं। (हाँ/नहीं)
आप विज्ञान का अध्यापन करना पसंद करते हैं। (हाँ/नहीं)
4. साक्षात्कार (Interview)
साक्षात्कार मूल्यांकन की एक महत्त्वपूर्ण प्रविधि है। इसमें मूल्यांकनकर्ता आमने-सामने (face to face) बैठकर तथ्यों का संकलन करता है। साक्षात्कार में व्यक्ति का व्यक्ति से संपर्क होता है तथा इसका एक विशेष उद्देश्य होता है। यह एक मनोवैज्ञानिक प्रविधि है, जिसकी सहायता से बालक के संबंध में यथार्थ तथा विश्वसनीय सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं। गुडे एवं हैट के अनुसार- “साक्षात्कार मौलिक रूप से एक सामाजिक अंत:क्रिया की प्रक्रिया है।” इसी प्रकार जॉन डार्ले ने साक्षात्कार को एक उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप के रूप में परिभाषित किया है।
साक्षात्कार के प्रकार (Types of Interview)
साक्षात्कार मुख्य रूप से निम्न प्रकार का होता है-
● संरचित या नियंत्रित – नियंत्रित परिस्थितियों में होता है।
● असंरचित या अनियंत्रित – अनियंत्रित परिस्थितियों में होता है।
● व्यक्तिगत साक्षात्कार – व्यक्तिगत रूप से लिया जाता है।
● सामूहिक साक्षात्कार – एक समय में एक से अधिक छात्रों को समूह में लिया जाता है।
● सेवा (व्यवसाय) संबंधी साक्षात्कार – किसी संस्थान में सेवा, नौकरी या व्यवसाय के लिए किया जाता है।
● सर्वेक्षण साक्षात्कार – किसी समस्या के प्रति जनमत (Mass opinion) जानने के लिए किया जाता है।
● अनुसंधान साक्षात्कार – खोज या अनुसंधान के लिए किया जाता है।
● बाह्य साक्षात्कार – किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा लिया जाता है।
● आंतरिक साक्षात्कार – यह आंतरिक रूप से लिया जाता है।
● निदानात्मक साक्षात्कार – छात्रों की कमजोरियों एवं अच्छाइयों का निदान करने के लिए किया जाता है।
साक्षात्कार प्रक्रिया (Process of Interview)
साक्षात्कार की प्रक्रिया में निम्न पदों (steps) का अनुसरण किया जाता है-
5. क्रम निर्धारण मापनी (Rating Scale)
इसे वर्गक्रम निर्धारण या मापनी के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्रयोग प्राय: उच्च कक्षा के बालकों के लिए किया जाता है क्योंकि कम आयु के बच्चों में निर्णय लेने की शक्ति का पर्याप्त मात्रा में अभाव होता है। वर्ग क्रम मापनी में कुछ कथन दिए जाते हैं, जिनका तीन, पाँच अथवा सात बिंदुओं तक सापेक्ष निर्णय करना होता है। इसमें लिए गए प्रश्न या कथन स्पष्ट तथा विशिष्ट व्यवहारों से संबंधित होने चाहिए। इसमें सूचनादाता अपने विचार या कथन के उत्तरों को एक क्रम में निर्धारित करता है। रुथ स्ट्रॉन्ग के अनुसार निर्देशित अवलोकन ही क्रम निर्धारण है।
उदाहरणार्थ – कथन – आप विज्ञान के अध्ययन में रुचि लेते हैं।
मापदण्ड (i) बहुत अधिक
(5 बिंदुओं पर) (ii) अधिक
(iii) औसत या सामान्य रूप से
(iv) कम
(v) बहुत कम
इस प्रकार सूचनादाता संबंधित कथन को पढ़कर अपने निर्णय को किसी एक क्रम पर चिह्न (P) लगाकर प्रदर्शित कर सकता है। वर्गक्रम निर्धारण मापनी मुख्यतया चार प्रकार की होती है-
(i) संख्यात्मक – इसमें केवल 1, 2, 3 आदि संख्याओं का ही प्रयोग किया जाता है।
(ii) वर्णनात्मक – इसमें विशिष्ट गुण या विशेषता के संबंध में वर्णन दिया जाता है।
(iii) रेखांकित – इसमें न तो संख्याओं को प्रयोग में लाया जाता है और न ही गुण या विशेषता का वर्णन किया जाता है। इसमें एक रेखा को ही 3, 5 या 7 भागों में विभाजित करके क्रम निर्धारित किया जाता है।
(iv) व्यक्ति का व्यक्ति से क्रम निर्धारण – इसमें किसी गुण या विशेष का क्रम निर्धारण विभिन्न व्यक्तियों द्वारा किया जाता है। इसका विकास प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था।
6. संचयी अभिलेख (Cummulative Record)
संचयी अभिलेख (अभिलेख) में विद्यालय में अध्ययनरत प्रत्येक विद्यार्थी के संबंध में सूचनाओं को क्रमबद्ध तथा नियमित रूप से प्रस्तुत किया जाता है। इस आलेख में बालक से संबंधित संपूर्ण महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ जैसे- शैक्षिक प्रगति, मासिक परीक्षाफल, उपस्थिति, योग्यता, रुचियों आदि का आलेख प्रस्तुत किया जाता है। संचयी आलेख अभिभावकों, शिक्षकों तथा संस्था प्रधानों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी होता है। इसकी सहायता से नवीन छात्रों से शीघ्रता से परिचय किया जा सकता है।
जब विद्यार्थी एक विद्यालय छोड़कर दूसरे में जाता है तो उसका यह अभिलेख भी दूसरे विद्यालय में भेज दिया जाता है जिससे उस विद्यालय के शिक्षक या प्रधानाध्यापक को इस अभिलेख की सहायता से अमुक बालक के संबंध में संपूर्ण जानकारी मिल जाती है। यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अभिलेख होता है। यह कार्ड, फोल्डर तथा बुकलैट के रूप में तैयार किया जा सकता है। अत: यह अध्यापक, प्रधानाध्यापक आदि के लिए सूचनाओं का स्रोत का कार्य करता है।
7. प्रश्नावली (Questionnaire)
मूल्यांकन में प्रश्नावली का विशेष महत्त्व होता है। यह एक ऐसी सूची या प्रपत्र होता है, जिसमें अनेक व्यक्ति अपना मत प्रस्तुत करते हैं। प्रश्नावली को प्रश्नों के एक समूह या सूची के रूप में भी स्पष्ट किया जा सकता है। इसमें प्रश्नों का उत्तर सूचनादाता स्वयं भरता है। इसके अंतर्गत ऐसे प्रश्नों का समावेश किया जाता है, जिनका उत्तर सूचनादाताओं द्वारा बिना किसी संकोच के दिया जा सके। इसके द्वारा सूचनाएँ आसानी से एकत्रित की जा सकती हैं, क्योंकि दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले व्यक्तियों से सूचनाएँ प्राप्त करने के लिए इसे डाक द्वारा भी उस व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। इसी कारण बालक या व्यक्ति के संबंध में सूचनाएँ एकत्र करने की यह एक महत्त्वपूर्ण प्रविधि है। गुडे एवं हैट के शब्दों मं, “सामान्यत: प्रश्नावली से अभिप्राय प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने की युक्ति से है, जिसमें एक पत्रक प्रयोग किया जाता है, जिसे सूचनादाता स्वयं भरता है।”
प्रश्नावली के मुख्य रूप से दो आधार हो सकते हैं-
● प्रश्नों की रचना के आधार पर – संरचित एवं असंरचित प्रश्नावली।
● प्रश्नों की प्रकृति के आधार पर – खुली प्रश्नावली, बंद प्रश्नावली, मिश्रित प्रश्नावली तथा चित्रमय प्रश्नावली।
प्रश्नावली का निर्माण करते समय कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए ताकि हम अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु सही तथा वास्तविक सूचनाएँ प्राप्त कर सकें। कुछ प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं-
2. आधार-पत्रक का निर्माण
● मूल्यांकनकर्ता को समस्या की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।
● उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को ही सम्मिलित करना चाहिए।
● प्रश्नों की भाषा सरल, स्पष्ट तथा समझने योग्य होनी चाहिए।
● प्रश्नों की संख्या कम तथा संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न होने चाहिए।
● प्रश्नावली का कागज एवं छपाई आकर्षक होनी चाहिए।
नील पत्र/आधार पत्र (Blue Print)
जिस प्रकार भवन का निर्माण करने से पूर्व उसका एक नया नक्शा बना लिया जाता है और कारीगर उसी के अनुसार भवन का निर्माण करता है। उसी प्रकार एक आदर्श या अच्छे प्रश्न-पत्र का निर्माण करने से पहले प्रश्न-पत्र का आधार-पत्र तैयार कर लिया जाता है। तद्नुसार पूर्व प्रश्न-पत्र बनाया जाता है।
आधार प्रश्न-पत्र के आधार-पत्र के निर्माण के सोपान निम्नलिखित हैं-
1. प्रश्न-पत्र डिजाइन का निर्माण
(a) शिक्षण उद्देश्यों का अंक भार – इकाई हेतु पूर्व निर्धारित विशिष्ट उद्देश्यों में जिन उद्देश्यों की निष्पत्ति की जाँच करनी है, उन्हें प्रश्न-पत्र के पूर्णांक में से अंकभार निश्चित करना चाहिए। छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन लाने हेतु उद्देश्यों ज्ञान, अवबोध, ज्ञानोपयोग व कौशल पर अंकभार दिया जाना चाहिए।
क्र.सं. | उद्देश्य | अंक | प्रश्नों की संख्या | प्रतिशत |
1. | ज्ञान | |||
2. | अवबोध | |||
3. | ज्ञानोपयोग | |||
4. | कौशल |
(b) विषय-वस्तु के अनुसार अंकभार निर्माण
क्र.सं. | उद्देश्य | अंक | प्रश्नों की संख्या | प्रतिशत |
1. | A | |||
2. | B | |||
3. | C | |||
4. | D | |||
5. | E |
(c) प्रश्नों के प्रकार के अनुसार अंकभार का निर्धारण
क्र.सं. | प्रश्नों का प्रकार | अंक | प्रश्नों की संख्या | प्रतिशत |
1. | वस्तुनिष्ठ प्रश्न | |||
2. | अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न | |||
3. | लघुत्तरात्मक प्रश्न | |||
4. | निबंधात्मक |

Note :-
1. कोष्ठक के अंदर प्रश्नों की संख्या दी गई है व कोष्ठक के बाहर अंक भार दर्शाया गया है।
2. निबंधात्मक प्रश्न, लघुत्तरात्मक प्रश्न, अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न व वस्तुनिष्ठ प्रश्न।
3. जो प्रश्न दो उद्देश्यों पर आधारित होते हैं, उसकी प्रश्न संख्या अधिक अंक वाले उद्देश्यों में सम्मिलित होती है। कम अंक उद्देश्यों के कोष्ठक के बाहर अंकित कर प्रश्न संख्या (-) अंकित की जाती है।
नील-पत्र/आधार-पत्र का महत्त्व
● इंजीनियर जब कोई निर्माण कार्य इमारत या पुल आदि बनाने का कार्य अपने हाथ में लेते हैं तो सर्वप्रथम उन्हें उस निर्माण कार्य का मानचित्र बनाना पड़ता है। मानचित्र पहले से तैयार कर लेने से उसके दिशा-निर्देश के आधार पर निर्माण कार्य सफलतापूर्वक व सरलता से संपन्न हो जाता है। ठीक इसी प्रकार शिक्षक के लिए भी यह आवश्यक है कि एक आदर्श प्रश्न-पत्र बनाने से पूर्व वह उसका आधार-पत्र तैयार करे। आधार-पत्र को नील-पत्र भी कहते हैं। इस ब्लू-प्रिंट में प्रश्नों के प्रकार व जिन उद्देश्यों का वे परीक्षण करते हैं, उन सभी का उल्लेख रहता है। यह त्रि-दशा सूचक चार्ट होता है जिसमें प्रश्नों की संख्या कोष्ठक के अंदर व निर्धारित अंक कोष्ठक के बाहर दिखाए जाते हैं।
नील-पत्र बनाते समय ध्यान में रखने योग्य बातें
● नील-पत्र का प्रश्न-पत्र निर्माण में बहुत अधिक योगदान होता है। अत: नील-पत्र बनाते समय प्रश्न-पत्र निर्माता शिक्षक को निम्नलिखित बातें अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए-
1. इकाई हेतु पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को पूर्णांक में से अंकभार निर्धारित करने चाहिए।
2. प्रश्नों के विभिन्न प्रकारों वस्तुनिष्ठ, अतिलघुत्तरात्मक, लघुत्तरात्मक व निबंधात्मक आदि का अंकभार निर्धारित कर लेना चाहिए।
3. प्रश्न-पत्र में सारी विषय-वस्तु का समावेश हो गया है, इसका दिग्दर्शन नील-पत्र में हो जाना चाहिए।
4. विषय-वस्तु प्रकरणों के अनुसार भी अंकभार का निर्धारण कर लेना चाहिए।
5. त्रि-आयामी दिशा सारणी में प्रश्न-पत्र का आधार पत्रक बनाना चाहिए।
6. नील-पत्र में प्रश्नों की संख्या कोष्ठक के भीतर व अंक कोष्ठक के बाहर दर्शाने चाहिए।
7. जो प्रश्न दो प्राप्य उद्देश्यों पर आधारित है, उसकी प्रश्न संख्या अधिक अंक वाले प्राप्य उद्देश्यों में सम्मिलित कर देनी चाहिए। कम अंक प्राप्य उद्देश्य के भाग में बाहर अंक अंकित कर प्रश्न संख्या (-) अंकित की जानी चाहिए।
8. प्रश्नों की सही स्थिति को नील-पत्र पर दर्शाने में लापरवाही नहीं हो, इसलिए पुन: जाँच कर लेनी चाहिए।
9. नील-पत्र जब सभी दृष्टियों से पूर्ण हो जाए तो नील पत्र निर्माता व मार्गदर्शक दोनों को अपने-अपने हस्ताक्षर, तैयार नील-पत्र पर कर देने चाहिए।
10. नील-पत्र को ही प्रश्न-पत्र बनाने की प्रक्रिया का आधार बना लेना चाहिए।