समायोजन (Adjustment) और कुसमायोजन

समायोजन

● समायोजन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:-
सम + आयोजन अर्थात् अच्छी तरह से व्यवस्था करना।
व्यक्ति अच्छी तरह से व्यवस्था करके परिस्थितियों के अनुकूल सामंजस्य स्थापित करता है।

● शारीरिक एवं मानसिक संतुलन बनाए रखने की प्रक्रिया समायोजन कहलाती है।

परिभाषाएँ 
1. स्कीनर :- “समायोजन एक अधिगम प्रक्रिया है।”

2. बोरिंग, लैंगफिल्ड व वेल्ड :- “समायोजन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राणी अपनी आवश्यकताओं और इन आवश्यकताओं की पूर्ति को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में संतुलन रखता है।”

3. गेट्स  अन्य :- “समायोजन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने एवं अपने वातावरण के बीच संतुलित संबंध रखने के लिए अपने व्यवहार में परिवर्तन करता है।”

4. एडलर :- “समायोजन श्रेष्ठता प्राप्ति का आधार है।”

5. गेट्स  अन्य :- “कुसमायोजन, व्यक्ति और उसके वातावरण में असंतुलन का उल्लेख करता है।”

6. शेफर – “समायोजन वह प्रक्रिया है जिसकी सहायता से कोई जीवित प्राणी, आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के मध्य संतुलन स्थापित करता है।”

7. कॉलमेन – “समायोजन, व्यक्ति की अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा कठिनाइयों के निराकरण के प्रसारों का परिणाम है।”

8. स्मिथ – “अच्छा समायोजन वह होता है जो यथार्थ पर आधारित तथा संतोष देने वाला होता है।”

समायोजन की प्रकृति :
1. समायोजन निरंतर (सतत) चलने वाली प्रक्रिया है। (गतिशील)
2. समायोजन इच्छाओं या आवश्यकताओं को पूरा करने संबंधी योग्यताओं व क्षमताओं में संतुलन बनाने में मदद करती है।
3. मानसिक व शारीरिक संतुलन बनाए रखने की योग्यता।
4. समायोजन का मानसिक स्वास्थ्य के साथ घनिष्ठ संबंध है।
5. समायोजन अनुरूपता की अवस्था है।
6. समायोजन व्यक्ति के व्यवहार एवं वातावरण में परिवर्तन करता है।
7. समायोजन उपलब्धि है।

समायोजित व्यक्ति की विशेषताएँ
1. परिस्थिति का ज्ञान, नियंत्रण तथा अनुकूल आचरण।
2. संतुलन
3. पर्यावरण तथा परिस्थिति से लाभ उठाने की योग्यता।
4. संवेगात्मक रूप से समायोजित
5. सामाजिकता
6. अपने गुण व कमियों दोनों की समझ।
7. आत्मसम्मान एवं दूसरों को सम्मान देना।
8. शारीरिक रूप से समायोजित तथा मानसिक रूप से संतुलित।
9. महत्त्वाकांक्षा का उचित स्तर।
10. व्यवहार का लचीलापन।
11  हालातों से संघर्ष करने की क्षमता।
12. मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति।
13. संतुष्टि एवं सुख।
14. साहसी एवं समस्या-समाधान युक्त।
15. दायित्वपूर्ण, आदर्श चरित्र
16. आत्ममूल्यांकन की योग्यता आदि।

समायोजन के प्रकार तथा क्षेत्र :-

(1) स्वास्थ्य समायोजन (शारीरिक व मानसिक) :- व्यक्ति शारीरिक रूप से एवं मानसिक रूप से समायोजित रहता है। आयु/स्तर के अनुसार विकास के निर्धारित मापदण्ड को प्राप्त करता है। मानसिक स्वास्थ्य में चिंता, क्लेश, कुंठाओं, दबाव व तनाव से रहित होता है।

(2) सामाजिक समायोजन :- घर-परिवार, मित्र-मण्डली, संबंधियों, पड़ोसियों, समाज के साथ उचित तालमेल, विनियम, सम्प्रेषण, संबंध आदि रखता है।

(3) संवेगात्मक समायोजन :– संवेगात्मक रूप से परिपक्व व स्थिर होता है। उचित समय पर उचित संवेगों की अभिव्यक्ति संतुलित व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, वे असंतुलित व कुसमायोजित होते हैं।

(4) विद्यालय समायोजन :– विद्यालयी परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को अनुकूलित करना।

(5) व्यावसायिक समायोजन :- अपने व्यवसाय से संतुष्टि का अनुभव करना तथा अपने व्यवसाय के कार्यों में प्रसन्नता का अनुभव, व्यवसाय के प्रति निष्ठा एवं साथियों के साथ तालमेल बनाकर अपने व्यवसाय की गरिमा तथा प्रतिष्ठा बनाने का समुचित प्रयत्न करते हैं।

(6) लैंगिक समायोजन :– व्यक्ति का समुचित लैंगिक विकास, यौन/काम के प्रति उचित दृष्टिकोण, उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति एवं तृप्ति ही उसे अपने परिवेश के साथ उचित प्रकार से समायोजित करती है।

दैनिक जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के सामने निम्नलिखित प्रकार की परिस्थितियाँ आती रहती हैंजिनसे वह समायोजित होता है:-

(1) तनाव (TENSION) :-
तनाव, व्यक्ति की शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशा है। यह उसमें उत्तेजना और असंतुलन उत्पन्न कर देता है एवं उसे परिस्थिति का सामना करने के लिए क्रियाशील बनाता है। तनाव के समय व्यक्ति में सूझ कम पड़ जाती है और वह क्रोध करने लगता है।

● गेट्स व अन्य :- “तनाव असंतुलन की दशा है, जो प्राणी को अपनी उत्तेजित दशा का अंत करने के लिए कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।”

● ड्रेवर :- “तनाव का अर्थ है- संतुलन के नष्ट होने की सामान्य भावना और परिस्थितियों के किसी अत्यधिक संकटपूर्ण कारक का सामना करने के लिए व्यवहार में परिवर्तन करने की तत्परता।”

● तनाव (Tension) का सामान्य अनुकूलन संलक्षण (GAS) का सम्प्रत्यय हंस सेली (Hens Selye) ने दिया तथा इसमें 3 अवस्थाएँ होती हैं:-
1. चेतावनी प्रतिक्रिया की अवस्था (Alarm Reaction)
2. प्रतिरोध की अवस्था (Stage of Resistance)
3. समाप्ति/परिश्रांति की अवस्था (Stage of Exhusation)

(2) दबाव (Stress) :-
इसकी उत्पत्ति Stringer से हुई है जिसका अर्थ है- कसना/संकीर्ण होना।
● जब व्यक्ति अपने परिणाम या मान-सम्मान को लेकर सोचता है तो वह बाह्य वातावरण या लोगों के विचारों से दबाव महसूस करने लगता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का काम में अवधान नहीं हो पाता और उसका मस्तिष्क अस्थिर हो जाता है।
● इस स्थिति में स्मृति ह्रास, आत्मसम्मान में कमी, गलत निर्णयन, भावात्मक अस्थिरता, मानसिक परिश्रांति आदि व्यवहार होते हैं।
● दबाव दो प्रकार का होता है-
1. यूस्ट्रेस – सकारात्मक दबाव (स्वीकारात्मक)
2. डिस्ट्रेस – नकारात्मक दबाव (अस्वीकारात्मक)

(3) दुश्चिंता (Anxiety) :-
भय व आशंका की स्थिति, जब व्यक्ति उपयुक्त रक्षातंत्र नहीं अपना पाता है तब उसमें दुश्चिंता उत्पन्न होने लगती है।
● दुश्चिंता की स्थिति में व्यक्ति को कोई सकारात्मक परिणाम नजर नहीं आते हैं। दुश्चिंता के समय व्यक्ति सदैव दूसरों के पास रहना एवं दूरियाँ कम करने का प्रयास करता है।
● यह सामान्यत: 2 प्रकार की होती है:-
1. सामान्य दुश्चिंता- तनाव की सामान्य स्थिति/चिंता
2. आतंक दुश्चिंता- गंभीर तनाव/दहशत

(4) कुण्ठा/भग्नाशा (FRUSTRATION) :-
व्यक्ति की अनेक इच्छाएँ और आवश्यकताएँ होती हैं। वह उनको संतुष्ट करने का प्रयास करता है परंतु यह आवश्यक नहीं है कि वह ऐसा करने में सफल ही हो। उसके मार्ग में अनेक बाधाएँ आ जाती हैं और ये बाधाएँ उसकी आशाओं को पूर्ण या आंशिक रूप से भंग कर सकती हैं। ऐसी दशा को भग्नाशा/कुंठा कहते हैं।
अत: ‘भग्नाशा’ तनाव और असमायोजन की वह दशा है, जो हमारी किसी इच्छा या आवश्यकता के मार्ग में बाधा आने से उत्पन्न होती है।
● गुड :- भग्नाशा का अर्थ है- “किसी इच्छा या आवश्यकता में बाधा पड़ने से उत्पन्न होने वाला संवेगात्मक तनाव।“

● कोलसनिक :- “भग्नाशा उस आवश्यकता की पूर्ति या लक्ष्य की प्राप्ति में अवरुद्ध होने की प्रक्रिया है जिसे व्यक्ति महत्त्वपूर्ण समझता है।”

● केरौल :- “कुण्ठा को किसी भी अभिप्रेरक की संतुष्टि में आने वाली बाधा के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली स्थिति या परिस्थिति के रूप में जाना जा सकता है।”

भग्नाशा के प्रकार :-
1. बाह्य भग्नाशा :- कोई बाह्य कारक/बाधा व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति से रोकती है।
जैसे- भौतिक बाधा, दूसरों की इच्छाओं का परिणाम।

2. आंतरिक भग्नाशा :- व्यक्ति की स्वयं की कमी से उत्पन्न बाधा।
जैसे- पर्याप्त ज्ञान, शक्ति, साहस, कुशलता का अभाव।

भग्नाशा के कारण :-
1. भौतिक वातावरण :- बाढ़, अकाल, भूकम्प आदि।
2. सामाजिक वातावरण :- नियम, आदर्श, परम्पराएँ और मान्यताएँ आदि।
3. शारीरिक दोष
4. आर्थिक कारक :- निर्धनता आदि।
5. विरोधी इच्छाएँ व उद्देश्य
6. नैतिक आदर्श
7. महत्त्वाकांक्षा का उच्च स्तर।
8. प्रयत्न करने में धैर्य व लगन की कमी
9. अन्य व्यक्ति आदि।

भग्नाशा/कुंठा में बालक का व्यवहार :-
1. बालक आक्रमणकारी बन जाता है।
2. वह कुछ समय के लिए एकान्तवासी बन जाता है।
3. वह आत्मसमर्पण कर देता है।
4. रोगग्रस्त होने का विचार।
5. पलायन करना।
6. समझौतावादी उपाय अपनाना।

Note :-
1. कुण्ठा आक्रामकता परिकल्पना – डोलार्ड व मिलर ने।
इसके अनुसार आक्रामकता कुण्ठा का परिणाम है।
2. कुण्ठा प्रतिगमन परिकल्पना – आर.सी. बार्कर ने दी।

(5) द्वंद्व (संघर्ष) (Conflicts) :-
संघर्ष का सामान्य अर्थ है- विपरीत इच्छाओं, विचारों, उद्देश्यों आदि का विरोध।
● जब दो परस्पर विरोधी इच्छाएँ अपनी संतुष्टि चाहती हैं परंतु व्यक्ति के लिए मात्र एक को ही संतुष्ट करना संभव हो पाता है तो उस स्थिति को द्वंद्व कहते हैं।
● संघर्ष की दशा में व्यक्ति में संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसकी मानसिक शक्ति नष्ट हो जाती है और वह किसी भी प्रकार का निर्णय करने में असमर्थ होता है।

परिभाषाएँ:-
1. डगलस व हॉलैंड :- “विरोधी और विपरीत इच्छाओं में तनाव के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली कष्टदायक संवेगात्मक दशा द्वंद्व है।”

2. बोरिंगलेंगफील्ड एवं वेल्ड :- “द्वंद्व ऐसी अवस्था है, जिसमें दो या दो से अधिक विरोधी इच्छाओं का उत्पन्न होना है, जिनकी एक साथ पूर्ति संभव नहीं है।”

3. फ्रॉयड :- “इदम्, अहम् एवं परम्-अहम् के मध्य सामंजस्य का अभाव होने से मानसिक द्वंद्व उत्पन्न होता है।”

● उपर्युक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं :-
1. द्वंद्व व्यक्ति की पीड़ादायक अवस्था है।
2. इस अवस्था में व्यक्ति तीव्र संवेगात्मक तनाव से गुजरता है।
3. यह मानसिक संघर्ष की अवस्था है।
4. यह विरोधी इच्छाओं या परिस्थितियों की अवस्था है।

द्वंद्व (संघर्ष) के प्रकार
मुख्यत: 4 प्रकार :- कुर्त लेविन ने

1. उपागम-उपागम द्वंद्व (Approach-Approach Conflict) :-
जब व्यक्ति के सामने 2 धनात्मक/सकारात्मक लक्ष्य या परिस्थितियाँ होती हैं, जिनकी पूर्ति वह एक साथ ही कर लेना चाहता है। जैसे-
1. शादी के लिए 2 सुंदर, सुशील तथा शिक्षित लड़कियों के एक साथ प्रस्ताव आना।
2. अपना पसंदीदा उपन्यास भी पढ़ना है और चहेते सितारों की मूवी देखने के लिए साथियों के साथ भी जाना है।

2. परिहार-परिहार द्वंद्व (Avoidance-Avoidance Conflict) :-
जब व्यक्ति के सामने दो ऋणात्मक (नकारात्मक) परिस्थितियाँ या लक्ष्य एक साथ उपस्थित होते हैं और इन दोनों लक्ष्यों में से किसी एक को स्वीकार करना ही होता है।
जैसे-
1. न चाहते हुए भी छात्र को भौतिकी या रसायन में से किसी एक विषय को चुनना।
2. पढ़ना भी नहीं चाहता और काम भी नहीं करना चाहता।
3. इधर गिरे तो कुआँ और उधर गिरे तो खाई।

3. उपागम-परिहार द्वंद्व (Approach-Avoidance Conflict) :-
जब व्यक्ति के सामने एक सकारात्मक व एक नकारात्मक परिस्थिति होती है तब उनमें उत्पन्न द्वंद्व उपागम-परिहार द्वंद्व कहलाता है।
जैसे-
1. एक लड़की लोकप्रिय नायिका बनना चाहती है लेकिन उसे स्टेज पर लोगों के सामने काम करने से डर लगता है।
2. एक प्रेमी जोड़ा प्रेम विवाह तो करना चाहता है लेकिन परिवार को नाराज नहीं करना चाहता है।
3. गाड़ी खरीदना चाहता है लेकिन पैसा खर्च नहीं करना चाहता।

4. बहु-उपागम परिहार द्वंद्व (Multiple Approach-Avoidance)
इस द्वंद्व की उत्पत्ति तब होती है जब व्यक्ति के सामने दो या दो से अधिक धनात्मक तथा ऋणात्मक लक्ष्य एक साथ उपस्थित होते हैं।
Note :- उपागम को ग्राह्य/पद्धति/पहुँच तथा परिहार को त्याग/वर्जन भी कहते हैं।

READ MORE about  आकलन || Assesment

संघर्ष (द्वंद्व) से बचाव के उपाय :-
1. अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष विधियों/युक्तियों का प्रयोग।
2. परिवार एवं विद्यालय का वातावरण, विवेक व समझदारी आधारित हो।
3. मानसिक चिकित्सा का आयोजन।
4. बालकों को असंतोषजनक परिस्थितियों का सामना करने व समायोजन करने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
5. निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहन।
6. निर्देशन, परामर्श व अभिप्रेरणा का प्रयोग।

समायोजन के उपाय (समायोजन तंत्र) :-
● विभिन्न परिस्थितियों के समय व्यक्ति को समायोजन करने की आवश्यकता होती है क्योंकि समायोजन नहीं कर पाने पर वह असामाजिक या पागल हो सकता है इसलिए मनोविज्ञान में समायोजन के विभिन्न उपाय प्रस्तुत किए गए हैं, जिसे समायोजन तंत्र कहते हैं।

1. प्रत्यक्ष उपाय :-
(i) बाधा का निवारण/विनाश
(ii) मार्ग परिवर्तन/अन्य उपाय की खोज
(iii) लक्ष्य प्रतिस्थापन
(iv) व्याख्या/निष्कर्ष/निर्णय

(i) बाधा का निवारण/विनाश (Removing of Barrier) :-
इस विधि में व्यक्ति उस बाधा का निवारण या विनाश करता है, जो उसे अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं करने देती है। वह उस बाधा के निवारण के लिए प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न उपाय करता है।

(ii) मार्ग परिवर्तन/अन्य उपाय की खोज (Seeking Another Plan) :- जब व्यक्ति बाधा का निवारण/विनाश नहीं कर पाता है, तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता है। तब वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किसी अन्य उपाय/रास्ते की खोज करता है, उसे मार्ग परिवर्तन कहते हैं।
जैसे-
1. एक बालक पेड़ पर लगा हुआ अमरूद हाथ से नहीं तोड़ पाता है तो वह उसे डंडे की सहायता से तोड़ लेता है।
2. स्वाध्याय से सफल नहीं हो पाने वाला प्रतियोगी किसी मार्गदर्शक को चुन लेता है।

(iii) लक्ष्य प्रतिस्थापन (Subtitution of Others Goals) :-
जब व्यक्ति अपने मौलिक लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल नहीं होता है तब वह उसके बजाय उसी प्रकृति का अन्य छोटा लक्ष्य बना लेता है और स्वयं को समायोजित करता है।
जैसे-
1. प्रथम श्रेणी शिक्षक भर्ती में असफल व्यक्ति द्वितीय श्रेणी शिक्षक बनकर लक्ष्य समायोजित कर लेता है।
2. वर्षा के कारण हॉकी नहीं खेल पाने पर एक खिलाड़ी घर पर ताश या शतरंज खेलकर अपना मनोरंजन करता है।

(iv) व्याख्या/निर्णय/निष्कर्ष (Analysis Decision) :- जब व्यक्ति के समक्ष दो समान रूप से वांछनीय पर विरोधी लक्ष्य या इच्छाएँ होती हैं, तब वह अपने पूर्व-अनुभवों के आधार पर उन पर विचार करता है और अंत में उनमें से एक का चुनाव करने का निर्णय करता है।
जैसे- एक ही दिन दो प्रतियोगी परीक्षाएँ होने पर प्रतियोगी उस परीक्षा का चुनाव करता है जिनकी तैयारी उसने ज्यादा अच्छी तरह से की हो।
Note :- कॉपिग – प्रत्यक्ष तरीका
– व्यवहार में व्यक्ति समस्या का सामना करते हुए उसे हल करने का प्रयास करता है। लक्ष्य प्राप्त करता है।
– कॉपिग धनात्मक है, जबकि रक्षा तंत्र ऋणात्मक है।

2. अप्रत्यक्ष उपाय/मानसिक मनोरचनाएँ/रक्षात्मक युक्तियाँ (Defense Mechanism) :-
● अहं रक्षा युक्तियाँ अचेतन स्तर पर काम करती हैं।
● अहं रक्षा युक्तियाँ वास्तविकता के प्रत्यक्षण को विकृत कर देती हैं, इसलिए मानसिक संघर्ष से उत्पन्न चिंता अपने आप दूर हो जाती है।
● रक्षात्मक युक्तियाँ हमारे विशिष्ट प्रकार के व्यवहार और प्रतिक्रियाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं।
● हमारे अहं तथा आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाली हर बात से हमारी रक्षा करना ही इनका उद्देश्य है।
● रक्षात्मक युक्तियों का प्रयोग व्यक्ति अर्द्धचेतन या अचेतन अवस्था में करता है।
● रक्षात्मक युक्तियाँ या मनोरचनाएँ व्यक्तित्व का रक्षाकवच होती हैं।
● डेवीसन एवं नीएले :- “दुश्चिंता से अहम् (Ego) की रक्षा हेतु अचेतन मन जिस युक्ति की सहायता लेता है उसे रक्षात्मक युक्ति कहा जाता है।”

प्रमुख रक्षात्मक युक्तियाँ निम्नलिखित हैं:-

(i) दमन (Repression) :- दमन एक ऐसी रक्षा युक्ति है जिसके द्वारा व्यक्ति चिंता, तनाव एवं संघर्ष उत्पन्न करने वाली असामाजिक व अनैतिक इच्छाओं, यादों को चेतना से हटाकर अचेतन में दबा लेता है अर्थात् अपनी इच्छाओं का दमन करता है। व्यक्ति दु:खद अनुभवों, कटु स्मृतियों, मानसिक संघर्ष और अतृप्त इच्छाओं को अचेतन मन के किसी कोने में दबा देता है।
जैसे- एक बीमार व्यक्ति खाने-पीने की कई वस्तुओं से परहेज करता है।
दमन को कभी-कभी चयनात्मक विस्मरण (Selective Forgeting) की घटना कहा जाता है।

(ii) युक्तीकरण/तर्कसंगतीकरण/औचित्य स्थापन/परिमेयकरण (Rationalization) :- इस युक्ति का सहारा लेकर व्यक्ति अपने किए हुए कार्य या व्यवहार की उचितता सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। व्यक्ति विभिन्न तर्क देकर अपने कार्य-व्यवहार को उपयुक्त ठहराने का प्रयत्न करता है अर्थात् अयुक्तिसंगत अभिप्रेरकों एवं इच्छाओं से उत्पन्न मानसिक संघर्ष या तनाव का समाधान उन अभिप्रेरकों एवं इच्छाओं को युक्तिसंगत बनाकर तर्कपूर्ण या विवेकपूर्ण व्याख्या करता है। इसमें व्यक्ति संबंधित लक्ष्य या कार्य में ही कमी बता देता है।
जैसे-
1. अंगूर खट्‌टे हैं।
2. नीबू मीठे हैं।
3. किसी के पास स्कूटर या कार नहीं होते पर वह तर्क देता है कि मेरे पास ये नहीं है तभी तो साइकिल से अच्छा व्यायाम हो जाता है।
4. एक व्यक्ति प्रथम श्रेणी शिक्षक भर्ती में सफल नहीं होता है तो कहता है कि मुझे अध्यापक नहीं प्रशासनिक अधिकारी बनना है।
5. निर्धन व्यक्ति द्वारा सूखी रोटी में ही असली स्वाद बताना और अपनी झोपड़ी को महल से भी अच्छा बताना।

(iii) प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction Formation) :- अन्तर्निहित इच्छा के बिल्कुल विपरीत व्यवहार करना। इसमें व्यक्ति अपने अहं (Ego) को किसी कष्टदायक एवं अप्रिय इच्छा तथा प्रेरणा के ठीक विपरीत इच्छा या प्रेरणा विकसित कर बचाता है।
जैसे-
1. भ्रष्ट नेता द्वारा भ्रष्टाचार के विरोध में भाषण देना।
2. चरित्रहीन व्यक्ति द्वारा चरित्र संबंधी बातों पर तरह-तरह के मुँह बनाना।
3. सौतेली माँ द्वारा बेटी से नफरत के बावजूद स्नेह और प्यार करना।
4. बगुला भगत होना।

(iv) प्रतिगमन (Regression) (प्रत्यावर्तन) :- प्रतिगमन एक प्रमुख अहम् रक्षा युक्ति है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है- पीछे की ओर मुड़ना अथवा भूतकाल में जाना। इसमें व्यक्ति अपने मानसिक तनावों और संघर्षों से बचने के लिए अपनी आयु से नीचे के स्तर का व्यवहार करता है अर्थात् जब कोई वयस्क अपनी इच्छाओं, प्रेरणाओं एवं व्यवहारों को बाल्यावस्था की इच्छाओं, प्रेरणाओं एवं व्यवहार के अनुकूल बना देता है तो इसे प्रतिगमन कहते हैं।
जैसे-
1. एक युवती शादी के बाद फिर से अपने माँ-बाप के आँचल में मुँह छुपाने के लिए वापस आ जाती है।
2. बड़े भाई का छोटे भाई के साथ घुटनों के बल चलना, अँगूठा चूसना आदि।
3. प्रेम में असफल व्यक्ति गुड़िया के साथ खेलने व उसे सजाने का प्रयत्न करता है।
4. एक 14 वर्षीय बालक का अँगूठा चूसना, बिस्तर पर पेशाब करना।

(v) उदात्तीकरण/शोधन/मार्गन्तीकरण (Sublimation) :-
इसमें व्यक्ति अपनी समाज विरोधी या गलत इच्छाओं को समाज मान्य रूप में बदल देता है अर्थात् दमित इच्छाओं की पूर्ति समाज द्वारा स्वीकृत रचनात्मक क्रियाओं के रूप में करता है। इसमें व्यक्ति अपनी असंतुष्ट इच्छाओं की पूर्ति समाज द्वारा स्वीकृत लक्ष्यों या उद्देश्यों के रूप में प्रतिस्थापित करके करता है।
● सभी मानसिक रक्षात्मक/समायोजन युक्तियों में सर्वाधिक उन्नत, अत्यंत विकसित व रचनात्मक (निर्माणात्मक) युक्ति है।
जैसे-
1. एक संतानहीन व्यक्ति धर्मशाला, अनाथालय एवं मंदिर की स्थापना करके मानसिक तनाव को दूर करता है।
2. लड़ाई-झगड़े करने वाला बालक मुक्केबाज, पहलवान बनकर स्वयं को समायोजित करता है।
3. तुलसीदास ने अपनी पत्नी के प्रति आसक्ति को साहित्य में लगाकर महाकवि की उपाधि धारण की।
4. पहले समाज में अन्तर्जातीय विवाह नहीं होते थे परंतु वर्तमान में सरकारी मान्यता प्राप्त होना।

(vi) रूपांतरण (Conversion) :- यह एक ऐसी मानसिक मनोरचना है जिसमें व्यक्ति मानसिक संघर्षों तथा तनावों का समाधान शारीरिक लक्षणों के रूप में उसे रूपांतरित करके करता है।
जैसे-
● परीक्षा से भयभीत छात्र का ठीक परीक्षा के दिन तीव्र बुखार, अतिसार आदि से ग्रसित होना।
● बुरी आदतों का त्याग करना।

(vii) प्रक्षेपण (Projection) :- इस युक्ति में व्यक्ति अपनी कमी, दोष को दूसरे व्यक्ति या परिस्थिति पर आरोपित करता है अर्थात् व्यक्ति अपने दोष या कमी के लिए किसी दूसरे व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को जिम्मेदार ठहराता है।
जैसे-
1. बढ़ई द्वारा बनाई गई किवाड़ टेढ़ी हो जाती है तो वह कहता है कि लकड़ी गीली/खराब थी।
2. नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
3. अपनी असफलता का दोष अन्य सहयोगी कारकों को देना।
4. चरित्रहीन व्यक्ति अपनी पत्नी पर दुराचारिणी होने का लाँछन लगाता है।

(viii) आत्मीकरण/तादात्मीकरण (Identification) :- स्वयं को  किसी अन्य के अनुसार ढाल लेना। इस विधि में व्यक्ति किसी महान पुरुष, अभिनेता, आदर्श के अनुसार स्वयं को जोड़ता है और उनका अनुकरण करता है।
जैसे- 10वीं में बार-बार अनुत्तीर्ण एक विद्यार्थी अपने आपकी तुलना सचिन तेंदुलकर से करता है।

(ix) शमन (Supression) :- जब एक व्यक्ति अपनी अतृप्त इच्छाओं को जान-बूझकर भूलने का प्रयास करता है तो शमन कहलाता है। इसमें व्यक्ति सचेतन रूप से बलपूर्वक अपनी इच्छाओं को भूलना चाहता है।
Note :– दमन तथा शमन में यह अंतर है कि दमन की स्थिति में व्यक्ति को पता नहीं चलता है कि कोई कष्टदायक विचार उसके अचेतन मन में धकेला जा रहा है किंतु शमन की स्थिति में व्यक्ति को पता रहता है कि कोई विचार अचेतन मन में डाला जा रहा है।

(x) दिवास्वप्न/कल्पनातरंग (Day Dreaming/Fantasy) :
इस विधि में व्यक्ति कल्पना जगत में विचरण करते हुए तनाव को कम करता है। इसके अंतर्गत हम उसकी केवल कल्पना करते हैं जो हमें वास्तविक रूप से प्राप्त नहीं है। इस युक्ति का प्रयोग व्यक्ति उस समय करता है जब वह वास्तविक दुनिया से स्वयं को हारा हुआ/असमर्थ महसूस करता है।
जैसे-
1. हवाई किले बनाना।
2.‘यदि मैं प्रधानमंत्री होता’ शीर्षक पर निबंध लिखकर अपने सारे उद्गार निकाल देता है।

(xi) नकारना :- जब एक व्यक्ति यह सोचता है कि कोई कार्य या व्यवहार करने में वह सामर्थ्यवान नहीं है तो वह उस कार्य या परिस्थिति को नकारते हुए समायोजन करता है।
जैसे- M.A. पास नहीं होने पर प्रतियोगी Ist श्रेणी भर्ती को नकारता है।

(xii)विस्थापन (Displacement) :- एक व्यक्ति किसी विशेष व्यक्ति या वस्तु के प्रति अपने विचारों, भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने में अपने आपको असमर्थ पाता है तो वह अपनी अभिव्यक्ति को किसी दूसरे वस्तु या व्यक्ति को माध्यम बनाकर अपनी दमित इच्छाओं, आक्रोश को निकालने का प्रयास करता है अर्थात् किसी दूसरे व्यक्ति पर अपना गुस्सा उतारना।
जैसे-
1. अध्यापक द्वारा डाँट या मार पड़ने पर घर आकर छोटे भाई-बहन पर गुस्सा उतारना।
2.माँ-बाप से डाँट पड़ने पर बालक बगीचे के फूलों को तोड़कर गुस्सा शांत करता है।
3.कर्मचारी दफ्तर में डाँट खाकर अपमानित होने पर घर आकर अपनी पत्नी तथा बच्चों पर झल्लाकर अपने आक्रोश को शांत करता है।

READ MORE about  क्रियात्मक अनुसंधान || Action Research

(xiii) प्रत्यागमन (पलायन/पृथक्करण) :- जब व्यक्ति किसी परिस्थिति से या कार्यस्थल से दूर हो जाता है और स्वयं को समायोजित करता है।
जैसे- गाँव में आर्थिक स्थिति कमजोर होने पर लोग शहरों की ओर पलायन करते हैं।

(xiv) क्षतिपूर्ति (Compensation) :- इस विधि में व्यक्ति एक क्षेत्र की कमी को उसी क्षेत्र में या किसी दूसरे क्षेत्र में पूरी करता है अर्थात् अपनी एक अयोग्यता को दूसरे क्षेत्र की योग्यता से ढक लेता है।
जैसे-
1. पढ़ाई में कमजोर बालक दिन-रात परिश्रम करके अच्छा छात्र बन जाता है। 
2.पढ़ाई में कमजोर छात्र खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन कर स्वयं को समायोजित करता है।
3.विकलांग बालक कक्षा में प्रथम आकर स्वयं को समायोजित करता है।
4.कम ऊँचाई की लड़की का ऊँची एड़ी के जूते पहनना।

(xv) आक्रामक उपाय (Aggression) :- जब व्यक्ति अपने क्रोधित व्यवहार को हिंसात्मक ढंग से अभिव्यक्त करता है तो वह आक्रामकता कहलाती है। यह भी दो प्रकार की होती है:-

(a) प्रत्यक्ष आक्रामक उपाय :- जिस परिस्थिति के द्वारा क्रोध उत्पन्न होता है, उसी परिस्थिति पर अपना क्रोध उतारते हुए समायोजन करता है।
जैसे- दो बालकों में विवाद हो जाने पर एक-दूसरे को मारना-पीटना।

(b) अप्रत्यक्ष आक्रामक उपाय :- जिस परिस्थिति के कारण व्यक्ति में क्रोध उत्पन्न होता है तथा उसका मुकाबला नहीं कर पाने पर किसी अन्य परिस्थिति पर अपना क्रोध प्रदर्शित करता है।
Note :- “साहचर्य” को रक्षात्मक क्रियाविधि में शामिल नहीं किया जाता है।
– मुड स्विंग (मुडिनेस) :- दमित सांवेगिक ऊर्जा को बाहर निकालने का तरीका है।

कुसमायोजन (Maladjustment) :

कुसमायोजन, समायोजन की विपरीत अवस्था है अर्थात् जब व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता है तथा अपने वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने में असमर्थ रहता है तो यह कुसमायोजन कहलाता है।

गेट्स  अन्य :- कुसमायोजन, व्यक्ति और उसके वातावरण में असंतुलन का उल्लेख करता है।

कुसमायोजित व्यक्ति के लक्षण
1. आत्म-नियंत्रण का अभाव
2. हीन-भावना से ग्रस्त
3. असुरक्षा की भावना
4. चिन्ताग्रस्त
5. आत्मविश्वास की कमी
6. एकान्तप्रियता
7. धैर्य व सहनशीलता का अभाव
8. समस्यात्मक, असामाजिक एवं अपराधी व्यवहार प्रदर्शन
9. मानसिक अस्वस्थता एवं विकारों से ग्रस्त
10. चोरी करना, झूठ बोलना, विद्यालय से भागना।
11. आक्रामक व्यवहार
12. दूसरों पर टिका-टिप्पणी करना व झाड़ना-फटकारना आदि।
13. हकलाना, तुतलाना, बाल नोचना आदि शारीरिक लक्षण
14. आत्मदोष

कुसमायोजन के कारण
1. वंशानुगत कारण
2. शारीरिक विकार
3. व्यक्ति की प्रकृति, स्वभाव संबंधी कारण
4. हीनता, मनोग्रंथि
5. आवश्यकताओं की पूर्ति न होना
6. दोषपूर्ण वातावरण
7. भौतिक, सामाजिक, विद्यालय एवं परिवार का वातावरण
8. निर्धनता
9. माता-पिता, शिक्षक का पक्षपातपूर्ण व्यवहार
10. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम, अनुचित विधियाँ आदि।
11. कुंठा, तनाव, दबाव, द्वंद्व आदि।
12. बिखरे घर (संबंधविच्छेद)

कुसमायोजन को रोकने के उपाय
1. बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया जाए।
2. उचित मात्रा में खेल-कूद की व्यवस्था हो।
3. अध्यापक स्वयं संवेगात्मक रूप से संतुलित हो तथा छात्रों के संवेगों पर समुचित ध्यान दे।
4. अध्यापक का व्यवहार स्नेहिल तथा सहयोगात्मक हो। शिक्षक किसी भी परिस्थिति में द्वेष-भावना से पक्षपूर्ण व्यवहार न करे।
5. छात्रों के आकांक्षा स्तर को समुचित स्तर पर रखा जाए।
6. हानिकारक प्रतिस्पर्द्धाओं पर नियंत्रण लगाया जाए।
7. छात्रों को पर्याप्त स्वतंत्रता दी जाए तथा स्वानुशासन की व्यवस्था की जाए।
8. पाठ्यक्रम व शिक्षण विधि अनुकूल हो तथा शिक्षण-अधिगम के लिए पर्याप्त सुविधाएँ दी जाएँ।
9. नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाए।
10. शैक्षिक, व्यावसायिक, व्यक्तिगत तथा यौन निर्देशन की समुचित व्यवस्था हो।

मानसिक स्वास्थ्य
(MENTAL HEALTH)

● मानसिक स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ है- मस्तिष्क को स्वस्थ या निरोगी रखना। जिस प्रकार से शारीरिक स्वास्थ्य का संबंध शरीर से होता है, उसी प्रकार से मानसिक स्वास्थ्य का संबंध मस्तिष्क व मन से होता है।
अत: मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान, वह विज्ञान है जो मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने, मानसिक रोगों को दूर करने और इन रोगों की रोकथाम के उपाय बताता है।
● मानसिक स्वास्थ्य से अभिप्राय व्यक्ति के उचित सामाजिक व्यवहार से है। जब व्यक्ति सामाजिक वातावरण में समायोजित होकर व्यवहार करता है तो यह उसके मानसिक रूप से स्वस्थ होने के लक्षण हैं। शारीरिक अस्वस्थता इतनी अधिक घातक नहीं होती है जितनी कि मानसिक अस्वस्थता। इसलिए व्यक्ति को अपने मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए।
जैसे कि अरस्तू ने कहा है- स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।
● मानसिक स्वास्थ्य का सर्वप्रथम विचार देने का श्रेय सी. डब्ल्यू. बीयर्स (C.W. Beers) को जाता है। इन्होंने सन् 1908 में अपनी पुस्तक “A Mind that Found Itself” को प्रकाशित की।
● विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस – 10 अक्टूबर
● मानसिक स्वास्थ्य आंदोलन एडोल्फ मेयर ने चलाया।
● मानसिक स्वास्थ्य आंदोलन अमेरिका में डोराथिया ने चलाया था।
● भारत में मानसिक स्वास्थ्य का प्रमुख संस्थान केंद्रीय मानश्रिकित्सा संस्थान राँची (झारखंड)

परिभाषाएँ :-
1. लाडेल :- “मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जो सामाजिक वातावरण में जीना पसंद करता है।”

2. ल्यूकन :- “वह व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ होता है जो स्वयं सुखी रहता है एवं दूसरों को सुखी रहने देता है। अपने बालकों को सुनागरिक बनाता है और शेष बची ऊर्जा को जनकल्याण के लिए उपयोग करता है।”

3. हैडफील्ड :- “मानसिक स्वास्थ्य से तात्पर्य है व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का सामंजस्य पूर्णता के साथ कार्य करना।”

4. कुप्पूस्वामी :- “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है- दैनिक जीवन में भावनाओं, इच्छाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आदर्शों में संतुलन बनाए रखने की योग्यता।”

5. कट्स  मोसले :- “मानसिक स्वास्थ्य वह योग्यता है जो हमें अपने जीवन की कठिन परिस्थितियों में समायोजन करने में सहायक होती हैं।”

6. हैडफील्ड :- “सामान्य उद्देश्य जो हर एक प्राणी को प्रेरणा देते हैं, पूर्णता की प्रेरणा ही है।”
– “मानसिक स्वास्थ्य का संरक्षण व मानसिक रोगों से बचाव करने वाला बताता है।”

7. लैडेल :- “संपूर्ण व्यक्तित्व का पूर्णरूपेण एवं सामंजस्यपूर्ण कार्य करतेम रहना ही मानसिक स्वास्थ्य है।”
“मानसिक स्वास्थ्य वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से पर्याप्त सामंजस्य करने की योग्यता है।”

8. कॉलेस्निक :- “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान नियमों का समूह है। जो व्यक्ति को स्वयं तथा दूसरों के साथ शांति से रहने के योग्य बनाता है।”

9. विश्व स्वास्थ्य संगठन :- “मानसिक स्वास्थ्य मानसिक रोगों या विकारों की अनुपस्थिति को नहीं अपितु शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक कुशलता को व्यक्त करता है।”

10. ड्रेवर द्वारा :- “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अभिप्राय मानसिक स्वास्थ्य के नियमों की खोज करना और उसके संरक्षण के लिए उपाय करना या बतलाना।”
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ व्यक्ति का दैनिक जीवन में सक्रिय व सामंजस्यपूर्ण व्यवहार करने से है। व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से समायोजन करते हुए अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
1. मानसिक स्वास्थ्य एक गतिशील प्रक्रिया है।
2. मानसिक स्वास्थ्य और कार्य क्षमता दोनों अलग-अलग हैं।
3. मानसिक स्वास्थ्य समायोजन में सहायक है।
4. बिना शारीरिक स्वास्थ्य के मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति संभव नहीं।
5. मानसिक स्वास्थ्य व नैतिकता दोनों अलग-अलग हैं।

मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण :-
1. सहनशीलता
2. मिलनसार
3. आत्म-विश्वास
4. संवेगात्मक परिपक्वता
5. सामंजस्य की योग्यता
6. निर्णय क्षमता
7. वास्तविक संसार में निवास
8. शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति ध्यान
9. आत्म सम्मान की भावना
10. आत्म-मूल्यांकन की क्षमता
11. व्यक्तिगत सुरक्षा की भावना
12. वातावरण का ज्ञान
13. सहयोगी भाव
14. कार्यों के प्रति लगन
15. नेतृत्व क्षमता
16. उच्च आकांक्षा स्तर
17. जीवन उद्देश्य
18. स्वस्थ चिंतन
19. जीने की कुशलता
20. आशावादी
21. प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की योग्यता
22. स्वस्थ रुचियाँ एवं अभिरुचियाँ
23. कार्य, आराम और मनोरंजन में पर्याप्त संतुलन
24. व्यवसाय से संतुष्टि
25. अपनी योग्यताओं, क्षमताओं तथा कमजोरियों का ध्यान।
26. शारीरिक इच्छाओं की संतुष्टि

बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
1. वंशानुक्रम
2. परिवार का वातावरण
3. विद्यालय का वातावरण
4. समाज का वातावरण
5. परिवार की आर्थिक स्थिति
6. परिवार की सामाजिक स्थिति
7. मित्र मण्डली
8. आवश्यकताओं की पूर्ति
9. शिक्षक का व्यवहार
10. रुचिपूर्ण पाठ्यक्रम
11. शिक्षण विधि
12. पाठ्य सहगामी क्रियाएँ
13. परिवार एवं विद्यालय का अनुशासन
14. पारिवारिक संघर्ष
15. परिवार का विघटन
16. शारीरिक दोषों का प्रभाव
17. माता-पिता का व्यवहार
18. परीक्षा प्रणाली

शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
1. पद की असुरक्षा
2. वेतन का असंगत होना (आर्थिक कठिनाई)
3. कार्य का अत्यधिक भार (अन्य कार्य)
4. निरंकुश प्रशासन
5. आपसी संघर्ष
6. मनोरंजन का अभाव
7. शिक्षण सामग्री का अभाव
8. समाज में निम्न स्थिति
9. जातीय विद्यालय
10. अस्वस्थ निवास स्थान
11. अपरिपक्व बुद्धि के बालकों से संपर्क
12. बाहरी कार्यों पर प्रतिबंध
13. नैतिक मूल्यों की कमी

बालक के मानसिक स्वास्थ्य में उन्नति करने वाले कारक
1. अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य की प्राप्ति में सहायता
2. उचित संवेगात्मक विकास में सहायता
3. उचित सामाजिक समायोजन में सहायता
4. माता-पिता एवं शिक्षक का बालक से उचित व्यवहार
5. महत्त्वाकांक्षा का उचित स्तर बनाने में सहयोग
6. पूर्णता पर अनावश्यक बल नहीं
7. अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धाओं के दुष्प्रभावों से बचाना।
8. स्वतंत्रता एवं स्व-अनुशासन स्थापित करना।
9. उचित यौन, धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा
10. उचित निर्देशन एवं परामर्श सेवाओं की व्यवस्था
11. शिक्षण की उचित विधियों एवं तकनीकों को अपनाना।
12. पाठ्यक्रम में उचित सुधार एवं परिवर्तन
13. माता-पिता एवं अध्यापक का स्वस्थ मानसिक स्वास्थ्य
14. वातावरण जन्य परिस्थितियों में अपेक्षित सुधार लाना।
15. परिवार का शांतिपूर्ण वातावरण
16. अल्प गृह कार्य।
17. विभिन्न पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन
18. अभिभावक-अध्यापक सम्मेलन
19. बालक एवं उनके साथियों से संबंध की देखभाल
20. अवसर प्रदान करना।

मानसिक स्वास्थ्य की विधियाँ

(A) निदानात्मक विधियाँ
(i) प्रश्नावली
(ii) व्यक्ति इतिहास विधि
(iii) उपलब्धि परीक्षण
(iv) निरीक्षण विधि
(v) साक्षात्कार
(vi) बुद्धि परीक्षण
(vii) अनौपचारिक विवरण

(B) उपचारात्मक विधियाँ
(i) निर्देशन
(ii) परामर्श
(iii) मनोविश्लेषण विध
(iv) मनोभिनय विधि
(v) मनोचिकित्सा विधि
(vi) जल, शल्य, समूह, संगीत चिकित्सा

विकासात्मक विकार :-

● किसी भी बालक का विकास किसी कारण से अवरोधित होता है तो वह मानसिक/शारीरिक प्रकार से विकास को रोक देता है, इसलिए इसे विकासात्मक विकास कहते हैं।
 अमरीकी मनोरोग संघ (APA) ने विभिन्न प्रकार के मनोवैज्ञानिक विकारों का वर्णन एवं वर्गीकरण करते हुए एक आधिकारिक पुस्तिका प्रकाशित की है। इसका वर्तमान संस्करण ‘डायग्नोस्टिक एंड स्टैटिस्टिकल मैनुअल ऑफ मेंटल डिसऑर्डर’ (DSMS) पंचम संस्करण सबसे नवीन संस्करण है।
● भारत में विकारों का अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण ‘व्यवहारात्मक एवं मानसिक विकारों का वर्गीकरण-10’ (ICD-10) कहा जाता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने जारी किया।
● विकासात्मक विकारों को मुख्यत: दो प्रकारों में विभक्त किया गया है-
A. आंतरिक विकार
B. बहि:करण विकार

READ MORE about  राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF)-2005 || National Curriculum Framework (NCF)

(A) आंतरिक विकार

(1) ऑटिज्म (Autism) :- यह आंतरिक विकासात्मक विकार है।
● स्वलीनता का शाब्दिक अर्थ है- अपने आप में लीन होना।
● ऑटिज्म (स्वलीनता) की सर्वप्रथम पहचान लियोकेनर ने की थी। (1943 में)
● वैज्ञानिक नाम – ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर
 विश्व ऑटिज्म दिवस – 2 अप्रैल
● अन्य नाम :- 1. स्वलीनता
2. आत्मविमोह
3. स्वपरायणता
4. शैशवलीनता
● उत्तर शैशवावस्था में उत्पन्न आंतरिक विकासात्मक विकार।
● यह एक आंतरिक विकार है, जिसमें बालक स्वयं में जीना पसंद करता है तथा दूसरे लोगों से प्रभावित नहीं होता है।

ऑटिज्म/स्वलीनता के लक्षण

(i) सम्प्रेषण विकार
● प्रतिक्रिया नहीं देना
● कम बोलना, हकलाना
● अभिव्यक्ति में कठिनाई
● अनुभवों एवं संवेगों को प्रदर्शन करने में असमर्थ
● भाषा की गंभीर असामान्यताएँ
● वाक् (भाषा) प्रतिरूप पुनरावृत्ति और विसामान्य होती है।
● सांकेतिक भाषा

(ii) सामाजिक विकार
● सामाजिक अन्त:क्रिया में कठिनाई
● मित्रवत् होने में कठिनाई
 सामाजिक व्यवहार प्रारंभ करने में असमर्थ
 लोगों की भावनाओं के प्रति अनुक्रियाशील नहीं होते हैं।
● सीमित अभिरुचियाँ

(iii) अन्य व्यवहार संबंधी विकार
● पुनरावृत्ति (रूढ़िबद्ध) व्यवहार (व्यवहार को बार-बार करना)
● पेशीय गति, स्व उद्दीपक (हाथ से मारना, दीवार से सिर पटकना आदि)
● वस्तुओं को एक लाइन से लगाना
● रूढ़ शरीर गति (शरीर को इधर-उधर हिलाना-डुलाना)
● कपड़े, खिलौने, भोजन आदि को सूंघना या चाटना
● किसी खिलौने, खेल या मित्र से प्रभावित नहीं होना।
● नियमित दिनचर्या की तीव्र इच्छा
Note :- स्वलीनता (ऑटिज्म) विकार वाले लगभग 70 प्रतिशत बच्चे बौद्धिक रूप से अशक्त होते हैं।

स्वलीनता के प्रकार
1. क्लासिकल (सम्प्रेषण संबंधित विकार)
2. एस पर्गर ऑटिज्म (सामाजिक विकार)
3. परवेसिव ऑटिज्म (व्यापक) – सम्प्रेषण एवं सामाजिक विकार
Note :-
1. 3 वर्ष की आयु से पहले-पहले इसके लक्षण प्रकट होने लगते हैं लेकिन प्रभाव 3 वर्ष बाद दिखाई देता है।
2. ऑटिज्म विकार वाले बालकों के लिए अमेरिका में TEACCH कार्यक्रम चलाया गया।

ऑटिज्म के कारण
1. आनुवंशिकता
2. मस्तिष्कीय/तंत्रिकीय विकार
3. मानसिक मंदन

(2) भोजन/पोषण विकार (आहार ग्रहण विकार) :- यह आंतरिक विकासात्मक विकार है जो मुख्यत: युवाओं में पाया जाता है।
इसमें (i). क्षुधातिशयता, (ii). क्षुधा-अभाव, (iii). अनियंत्रित भोजन आदि विकार पाए जाते हैं।

(i) क्षुधा अतिशयता (बुलिमिया नरवोसा)/भस्मक :- इसमें व्यक्ति बहुत अधिक मात्रा में खाना खाता है, उसके बाद रेचक और मूत्रवर्धक दवाओं के सेवन से या उल्टी करके, खाने को अपने शरीर से साफ करता है। व्यक्ति पेट साफ होने के बाद तनाव और नकारात्मक संवेगों से अपने आपको मुक्त महसूस करता है।
बुलिमिया के दो प्रकार हैं :-
(a) पर्जिंग बुलिमिया – अत्यधिक भोजन करके उल्टियाँ करना।
(b) नॉन पर्जिंग बुलिमिया – अत्यधिक भोजन के बाद व्यायाम, खेल आदि।

(ii) क्षुधा-अभाव (एनोरेक्सिया नरवोसा) :- इसमें व्यक्ति स्वयं को भूखा रखता है और कम खाता है। यह पूर्व किशोरावस्था में लड़कियों में पाई जाती है। इसमें व्यक्ति में अपने शरीर की प्रतिमा को लेकर गलत धारणा होती है, जिसके कारण वह स्वयं को अधिक वजन वाला समझता है। अक्सर खाने को मना करना, अधिक व्यायाम-बाध्यता का होना तथा साधारण आदतों को विकसित करना जैसे- दूसरों के सामने न खाना आदि।
इसमें व्यक्ति काफी मात्रा में वजन घटा सकता है और अधिक समय तक स्वयं को भूखा रख सकता है।

(iii) अनियंत्रित भोजन विकार (बिंज इटिंग डिसऑर्डर) :- इसमें व्यक्ति अत्यधिक मात्रा में भोजन करता है तथा सामान्य की तुलना में जल्दी-जल्दी खाने की आदत होती है और तब तक खाता है जब तक उसे महसूस होता है कि वह जरूरत से ज्यादा खा चुका है।
व्यक्ति उस स्थिति में भी बहुत अधिक खा लेता है जब उसे भूख नहीं लगी होती है एवं इसमें व्यक्ति मुटापायुक्त होता है।

(3) वियोगज दुश्चिंता विकार (SAD) (Separation Anxiety Disorder) :- यह एक अन्य प्रकार का दुश्चिंता विकार है। इससे ग्रसित व्यक्तियों को जिनसे लगाव होता है, उनसे अलग होने के बारे में सोचकर काफी हद तक भयमुक्त/डरे और चिंतित रहते हैं।
इस विकार से ग्रसित बच्चों को एक कमरे में अकेले रहने तथा अकेले विद्यालय जाने में कठिनाई होती है। वे नई परिस्थितियों में प्रवेश करने से डरते हैं और हमेशा अपने माता-पिता की छाया में रहकर उनसे चिपके रहते हैं।
ये अलगाव से बचने के लिए गड़बड़ी, चिल्लाना, झल्लाहट आदि प्रदर्शित करते हैं।

(B) बहि:करण विकार

(1) अवधान न्यूनता अतिक्रिया विकार (ADHD) (Attention Deficit Hyperactivity Disorder) (अकव)
● यह बहि:करण विकासात्मक विकार है।
● विश्व में 5 प्रतिशत बालक ADHD से पीड़ित हैं।
● अक्टूबर माह में विश्व ADHD जागरूकता माह मनाया जाता है।
● यह बाल्यावस्था में प्रारंभ होता है।

लक्षण :-
(i) अनवधान (Inattention) :- ध्यान, अवधान व एकाग्रता का अभाव होता है। अपना ध्यान केवल एक वस्तु पर लगाने में या अनुदेशों की पालना करने में बड़ी कठिनाई होती है। आसानी से ध्यान हटाया जा सकता है।

(ii) आवेगशील (Impulsive) :- वे अपनी तात्कालिक प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाते या काम करने से पहले सोच नहीं पाते। इनमें धैर्यशीलता का अभाव (प्रतीक्षा नहीं कर सकते हैं) पाया जाता है।

(iii) अतिक्रिया (Hyperactivity) :- ADHD वाले बालक हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं। एक पाठ के समय स्थिर व शांत बैठना इनके लिए कठिन होता है। वह उपद्रव कर सकता है। क्रोध व चिड़चिड़ापन अधिक पाया जाता है। स्मृति दोष एवं क्रियाओं का दोहराव इनके लक्षण हैं।

अन्य लक्षण

  • कार्य को पूर्ण करने में असफलता।
  • एकाग्रता में कमी।
  • ध्यान भंग होना।
  • लगातार पर्यवेक्षण की आवश्यकता।
  • संवेंगानुवर्ती, बिना विचारे कार्य करने लगना, कार्य सम्पादन में कोई स्थायीत्व नहीं।
  • कभी-कभी अधिक सक्रियता।
  • अपने हाथों या पैरों को बेचेनी से हिलाते-डुलाते रहना।
  • अपने बैठने के स्थानां पर कुलबुलाहट प्रदर्शित करते हैं।
  • बहुत बातचीत करते हैं।

अन्य विकार

(1) मनोग्रस्ति-बाध्यता विकार (OCD) (Obsessive Compulsive Disorder) :- यह एक ऐसी मानसिक विकृति होती है जिसमें रोगी में मनोग्रस्तता या बाध्यता की अवस्था में से कोई एक या कभी-कभी दोनों ही रोगी में संतुलित रूप से समान मात्रा में दिखलाई देते हैं।
इसमें रोगी बार-बार किसी अतार्किक एवं असंगत विचारों को न चाहते हुए भी मन में दोहराता है। वे विशिष्ट विचारों में अपनी ध्यानमग्नता को नियंत्रित करने में असमर्थ होते हैं।

लक्षण :-
1. अपनी क्रिया को बार-बार दोहराना।
2. साफ-सुथरे हाथ को बार-बार धोना।
3. ताला ठीक से लगा रहने पर भी उसे बार-बार देखना।
4. सड़क पर खड़े होकर आते-जाते वाहनों के नंबर नोट करना।
5. किसी चीज को चुराने की बाध्यता।
6. अत्यधिक वस्तुएँ जमा करना।
7. बार-बार किसी चीज को जाँचना।
8. कामुक, हिंसक या मजहबी विचारों में डूबे रहना।

(2) उत्तर-अभिघातज दबाव विकार (PTSD) (Post Traumatic Stress Disorder) :-
● यह चिंता विकृति का एक प्रकार है।
● जो लोग किसी प्राकृतिक आपदा (सुनामी, भूकंप, इंद्र घटना) में फँस चुके होते हैं या किसी आतंकवादी बम विस्फोट के शिकार हो चुके हैं या किसी गंभीर दुर्घटना या युद्ध की स्थितियों को अनुभव कर चुके होते हैं, उनमें PTSD के लक्षण पाए जाते हैं। अर्थात् पूर्वघटित किसी प्राकृतिक या मानवीय घटना से संबंधित समस्याओं से पीड़ित होता है।

लक्षण :-
1. बार-बार किसी स्वप्न का आना।
2. अतीत अवलोकन
3. एकाग्रता में कमी।
4. सांवेगिक शून्यता की स्थिति आदि।

प्रमुख दुर्भीतियाँ :-
1. ऐरोफोबिया – हवा से डर
2. पायरोफोबिया – आग से डर
3. आकलोफोबिया – भीड़ से डर
4. पेथोफोबिया – रोग से डर
5. हाइड्रोफोबिया – पानी से डर
6. स्क्रोफोबिया – ऊँचाई से डर
7. क्लाउस्ट्रफोबिया – बंद जगह से डर

प्रमुख चिकित्सा उपागम

1. व्यवहारवादी चिकित्सा
व्यवहार चिकित्सा की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं जिनका संबंध विशेष रूप से पावलॉव व स्कीनर के सिद्धांतों से है।

(i) क्रमबद्ध असंवेदीकरण (Systematic Desensitisation)
यह दुर्भीति या अविवेकी भय के उपचार के लिए एक तकनीक है। इसका प्रतिपादन वोल्प (Wolpe) तथा सॉल्टर ने किया है।
● इसमें रोगी को पहले विश्राम की अवस्था में होने का प्रशिक्षण दिया जाता है और जब विश्राम की अवस्था में होता है तो उसमें चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों को बढ़ते क्रम में दिया जाता है। अंत में, रोगी चिंता उत्पन्न करने वाले उद्दीपकों के प्रति असंवेदित हो जाता है क्योंकि रोगी उन्हें विश्राम की अवस्था में ग्रहण करने की अनुभूति प्राप्त कर चुका है।
● यह पावलॉव के सिद्धांत पर आधारित है।

(ii) अन्त:स्फोटात्मक चिकित्सा (Implosive Therapy)
यह विलोपन के नियम पर आधारित है।
● इस विधि में रोगी को सर्वाधिक चिंता उत्पादक परिस्थिति के बारे में कल्पना करने के लिए कहा जाता है तथा चिंता से संबंधित विरुचिकर दृश्यों को दिमाग में ताजा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। कई सत्रों के बाद रोगी यह महसूस करने लगता है कि वह व्यर्थ ही वैसे उद्दीपकों या परिस्थिति से चिंतित रहता था। परिणामस्वरूप वह अपअनुकूली व्यवहार धीरे-धीरे विलोपित हो जाता है।

(iii) टोकन इकोनॉमी (टोकन अर्थव्यवस्था) :- स्कीनर।
● इसमें व्यवहारात्मक समस्याओं वाले लोगों को कोई वांछित व्यवहार करने पर पुरस्कार के रूप में एक टोकन दिया जाता है। ये टोकन संगृहीत किए जाते हैं और फिर पुरस्कार से उनका विनिमय या आदान-प्रदान किया जाता है।
जैसे- रोगी को बाहर घुमाने ले जाना या बच्चे को बाहर खाना खिलाना आदि।

(iv) फ्लडिंग (Flooding) :- यह अंत:स्फोटात्मक चिकित्सा से काफी मिलती-जुलती है। इसे “इन विवो प्रविधि (In vivo technique)” भी कहते हैं।
● इसमें रोगी को इस तरह की वास्तविक परिस्थितियों में रखकर उपचार किया जाता है जिससे उसे चिंता उत्पन्न होती है।
● इस प्रविधि का उपयोग उन व्यक्तियों पर किया जाता है जो चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक के बारे में ठीक ढंग से किसी कारण से कल्पना नहीं कर सकते हैं।

(v) अन्योन्य प्रावरोध का सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अनुसार दो परस्पर विरोधी शक्तियों को एक ही समय में उपस्थिति करने से कमजोर शक्ति को अवरुद्ध करती है।

(vi) विरुचि चिकित्सा (Aversion Therapy) :- यह व्यवहार चिकित्सा की एक ऐसी विधि है जिसमें चिकित्सक रोगी को अवांछित व्यवहार न करने का प्रशिक्षण कुछ दर्दनाक या असुखद उद्दीपक देकर करता है। इससे चिंता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति या उद्दीपक के प्रति रोगी में एक तरह की विरुचि पैदा कर दी जाती है, जिससे अवांछित व्यवहार धीरे-धीरे बंद हो जाता है।

About the author

thenotesadda.in

Leave a Comment

You cannot copy content of this page