कुंभलगढ़

  • इस दुर्ग का नाम राजस्थान के सबसे दुर्भेद्य दुर्गों की कोटि में रखा जाता है। 
  • मेवाड़ के यशस्वी शासक एवं अपने समय के महान् निर्माता महाराणा कुम्भा द्वारा  दुर्ग-स्थापत्य के प्राचीन भारतीय आदर्शों के अनुरूप निर्मित कुम्भलगढ़ गिरि दुर्ग का उत्कृष्ट उदाहरण है। 
  • कुल 32 किलों के निर्माता महाराणा कुम्भा ने इस दुर्ग का निर्माण गौड़वाड़ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए किया था। 
  • इस किले की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि “यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।”
  • मेवाड़ के इतिहास वीर विनोद के अनुसार महाराणा कुम्भा ने वि. संवत् 1505 (1448 ई.) में कुम्भलगढ़ या कुम्भलमेरू दुर्ग की नींव रखी। 
  • इस दुर्ग का निर्माण कुम्भा के प्रमुख शिल्पी और वास्तुशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान मंडन की योजना और देखरेख में किया गया। 
  • मेवाड़ के यशस्वी महाराणा कुम्भा की उन्ही के द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग में उनके ज्येष्ठ राजकुमार ऊदा (उदयकरण) द्वारा धोखे से पीछे से वार कर हत्या कर दी। 
  • पितृघाती ऊदा को उसके सामन्तो ने कुम्भलगढ़ से बाहर भेजकर रायमल को  महाराणा बनाया। एक प्रसिद्ध दोहा 

ऊदा बाप न मारजै लिखियो लाभै राज।

देस बसायो रायमल, सरयो न एको काज।। 

  • सन् 1537 ई. में इस दुर्ग से प्रयाण कर उदयसिंह ने बनवीर को परास्त कर चितौड़ पर वापस अधिकार कर लिया। 
  • मुगल बादशाह अकबर के सेनापति शाहबाज खां ने विशाल सेना के साथ इस दुर्ग पर आक्रमण किया तब सफलता की कोई मंशा न देख महाराणा प्रताप अपने विश्वस्त योद्धा राव भाण सोनगरा को दुर्ग की रक्षा का भार सौंपकर सुरक्षित स्थान पर पहुँच गये। किले की अधिक दिनों तक घेराबंदी रहने से रसद सामग्री की कमी हो गई तब किले का दरवाजा खोलकर राव भाण सोनगरा व अन्य योद्धा मुगल सेना के साथ वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए काम आये। 
  • इस पर एक प्राचीन दोहा प्रसिद्ध है। 
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कुम्भलगढ़ रा कांगरा, रहि कुण कुण राण। 

इक सिंहावत सूजड़ो इक सोनगरो भाण।। 

  • कुम्भलगढ़ के स्थापत्य में उसकी यह विशेषता किले के भीतर बने लघु दुर्ग या आन्तरिक दुर्ग कटारगढ़ (मेवाड़ की आँख) के रूप में प्रकट हुई है। 
  • इस किले के उत्तर की तरफ पैदल रास्ता ‘टूंटया का होड़ा’ तथा पूर्व की तरफ ‘हाथिया गुढ़ा’ की नाल में उतरने का रास्ता दाणीवटा कहलाता है।
  • किले की तलहटी में महाराणा रायमल के कुँवर पृथ्वीराज की छतरी बनी हुई। 
  • इस दुर्ग का पहला दरवाजा ‘आरेठपोल’ है तथा उसके बाद ‘हल्लापोल’ नामक दरवाजा है। उसके बाद ‘हनुमानपोल’ दरवाजा है। इसके बाद विजयपोल दरवाजा है। 
  • किले में नीलकंठ महादेव का मंदिर तथा यज्ञ की एक प्राचीन वेदी बनी है। 
  • कटारगढ़ के मुख्य प्रवेश द्वार – भैरवपोल, नींबूपोल, चौगानपोल, पागड़ापोल और गणेशपोल है। 
  • कर्नल टॉड ने कुम्भलगढ़ दुर्ग से सम्बन्धित एक रोचक प्रणय कथा का उल्लेख किया है। इसके अनुसार महाराणा कुम्भा झालावाड़ की राजकुमारी जो मंडोर की मंगेतर थी शक्ति के बल पर जबरन विवाह कर यहां लाये थे 

इस प्रसंग का प्रसिद्ध दोहा – 

झाल कटायाँ झाली मिले, न रंक कटायां राव। 

कुम्भलगढ़ रे कांगरे, माछर हो तो आव।। 

  • कटारगढ़ के उत्तर में नीचे वाली भूमि में ‘झालीबाव (बावड़ी) तथा मामादेव का कुण्ड है। यह कुण्ड महाराणा कुम्भा की उनके ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार ऊदा द्वारा जघनत्य हत्या की लोमहर्षक घटना का साक्षी है। 
  • कुंभलगढ़ दुर्ग मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी का काम करता आया है। 
  • पन्नाधाय ने इसी दुर्ग में पाल-पोस कर उदयसिंह को बड़ा किया था। 
  • गोगुंदा में राजतिलक के बाद महाराणा प्रताप ने कुंभलगढ़ से ही सैन्य-शक्ति संगठित की थी। 
  • कटारगढ़ की परिधि में प्रथम महल ‘झाली रानी का मालिया (महल) है। इसे राणा उदयसिंह की झाली रानी ने बनवाया था। 
  • ऐतिहासिक विरासत की शान व शूरवीरों की तीर्थस्थली इस दुर्ग के बारे में मांड गायक प्रशंसा करते हुए कहते हैं 
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कुंभलगढ़ कटारगढ़ पाजिज अवलन फेर 

संवली मत दे साजना, वसूंज कंभलमेर 

  • इस दुर्ग की तुलना में कर्नल जेम्स टॉड ने ‘एस्टूस्कन’ से की है। 

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